पुस्तक के विषय में
हिन्दी में स्वनामधन्य कवि रहीम की कृतियो के आकर्षण तथा उनके मकबरे के दर्शन ने इस महाकवि की छोटी सी जीवनी लिखने की प्रेरणा दी । उस वक्त ख्याल नहीं था, कि ''उँगली पकड़ते पहुँचा पकड़ने'' की कहावत चरितार्थ होगी । अकबर के एक रत्न के बारे में लिख लेने पर दूसरे रत्नों पर कलम उठने लगी । फिर सोचा, हिन्दी में अकबर पर कोई ऐसी पुस्तक नही है, जिससे उस महापुरुष को ठीक तरह से समझा जा सके। (श्री रामचन्द्र वर्मा ने आजाद की पुस्तक ''दरबार-अकबरी'' का हिन्दी अनुवाद सालो पहले कर दिया।) आजाद पहले भारतीय है, जिन्होने अकबर के साथ न्याय करने के लिए अपनी प्रभावशालिनी लेखनी को उठाया। उसमें अनेक गुण रहते भी कुछ कमियाँ थी, क्योकि वह बहुत-कुछ उन पाठकों के सामने अकबर की वकालत करना चाहते थे, जो अकबर को इस्लाम का दुश्मन समझ कर उसके साथ घृणा करते थे। अकबर की बढिया जीवनी विन्सेन्ट स्मिथ ने लिखी। यद्यपि पीछे की पुस्तके और जानकारी देनेवाली है, तो भी स्मिथ की पुस्तक का मूल्य कम नहीं हुआ है । मैने इन दोनो पुस्तको से बहुत अधिक सहायता ली है ।
अशोक के बाद हमारे देश में दूसरा महान् ध्रुवतारा अकबर ही दिखाई प ड़ता है । कुषाण कनिष्क (ईसवी प्रथम सदी) अकबर से भी बडा विजेता और भारतीय संस्कृति से अत्यन्त प्रभावित था । पर, उसे उन पहाडी के तो ड़ने की आवश्यकता नही पडी, जिनसे अकबर को मुकाबिला करना पडा । समुद्रगुप्त (ईसवी चौथी सदी) बहुत बड़ा विजेता था, संस्कृति और कला का बडा प्रेमी तथा उन्नायक था । पर, उसने करीब-करीब भारत के सारे भाग को एकराष्ट्र कर दिया था । पर, उसके सामने भी वह दुर्लघ्य भयंकर मार्ग-रोधक पर्वतमालाये नही आई, जो अकबर के सामने थीं । यही बात हर्षवर्धन (ईसवी सातवी सदी) के बारे में है । उसके बाद तो कोई ऐसा पुरुष नही दीख प ड़ता, जिसका नाम अकबर के सामने लिख जा सके ।
अकबर सही अर्थो मे देशभक्त, अपने राष्ट्र का परम उन्नायक था । अकबर से साढे तीन शताब्दी पहले भारत के एक बडे भाग पर इस्लामिक शासन कायम हुआ । भारत की बहुत-सी सामाजिक और राजनीतिक कमजोरियाँ थी। इन्ही कमजोरियों के कारण उसे मुट्ठी भर विदेशियो के सामने पराजित होना पडा, उनका जूआ अपनी गर्दन पर उठाना पडा । उससे पहले भी यवनो, शको, हेफ्तालों (श्वेत हूणो) ने भारत पर शासन किया था, पर थोडे ही समय मे वह भारतीयसंस्कृति से प्रभावित हो यही के गण में विलीन हो गये और उनकी उपस्थिति से राष्ट्रीय जीवन के छित्र-भित्र होने का ड़र नहीं रह भया । पर, मुस्लिम विजेता- भारतीय संस्कृति से प्रभावित होकर जनगण में विलीन होने के लिए तैयार होकर नही आये थे, बल्कि जनगण को अपने में विलीन करना चाहते थे और इस शर्त के साथ कि तुम अपनी संस्कृति का चिन्ह भी नहीं रहने दोगे। भारत जैसे अत्यन्त उन्नत और प्राचीन संस्कृति के धनी देश के लिए यह चेलेंज ऐसा था जिसे वह मान नही सकता था । इस प्रकार हमारा देश संस्कृतियों के दो दल में बँट कर गुप्त या प्रकट भयंकर गृह-युद्ध का अखाडा बन गया । मुस्लिम शासन ने अपने जीवन में विरोधी संस्कृति के दल से लोगो को खींच कर अपने को मजबूत करने का प्रयत्न किया । तीन सदियाँ बतीते-बीतते भारतीय जनगण का काफी भाग उधर चला गया । दोनों का सघर्ष निरन्तर चलता रहा । यह माय होने में कठिनाई नहीं थी कि दूसरे को -करके केवल एक संस्कृति को यहाँ रहने देना आसान काम नहीं था, इसके लिए युग चाहिये और जब तक वह समय नहीं आता. तब तक खूनी गृह-युद्ध चलता रहेगा, हिन्दू सांस्कृतिक दल के सैनिक अगुवा अपनी फूट की बीमारी से मुक्त होने के लिए तैयार नही थे और जब तक यह नही हो, तब तक उनकी वीरता और कुर्बानी का कोई लाभ नहीं था । हिन्दू धर्म कै धार्मिक अगुवों के दिमाग में गोबर भरा हुआ था । वह दूर तक सोचने की शक्ति नही रखते थे । आक्रमणात्मक नही प्रतिरक्षात्मक युद्ध लड़ना ही उनका ढंग था । जात-पाँत की जंजीरों को मजबूत करके अपनी जनता के 80 प्रतिशत लागों को अपनी आन के लिए मरने का भी वह अधिकार देने को तैयार नहीं थे । म्लेच्छ के हाथ का एक घूँट पानी यदि किसी के गले के नीचे उतर गया, तो वह पतित है-जिसका अर्थ है शत्रुदल की सेना का सिपाही । उनके पक्ष में सिर्फ यही कहा जा सकता है, कि उन्होने देश की सांस्कृतिक निधियों की बड़ी तत्परता से रक्षा की ।
मुस्लिम पक्ष के राजनीतिक अगुवा-सुल्तान, बादशाह-अपने प्रतिपक्षियों से कुछ बेहतर स्थिति में थे । वह सामरिक रूढ़िवाद से उतने ग्रस्त नहीं थे । राजवंश के पुराने होने पर उनमें भी हिन्दू राजनीतिक अगुवों की तरह ही भयंकर फूट पड़ जाती थी, जिससे उनकी शक्ति निर्बल हो जप्ती थी । पर, इसी समय मध्य-एशिया से कोई नया विजेता आ टपकता और सभी लड़ने वाले उसके पक्ष में हो जाते । इस प्रकार इस पक्ष का पलड़ा भारी हो जाता। मुस्लिम पक्ष के धार्मिक अगुवा- मुल्लों को काम के लिए एक बडा सुभीता यह था, कि विरोधी के गले में एक बूँद पानी उतार कर वह उसे अपना बना लेते थे । पकी हुई फसल काटने का उन्हें कितना सुभीता था? इसी से हिन्दू काफी संख्या में मुसलमानहो गये । लेकिन यह सौदा बडा मँहगा था। देश में समय-समय पर खून की नदियाँ बहती थी और एक ही देश के निवासी को दूसरे के ऊपर कभी विश्वास नही कर सकते थे । मुस्लिम पक्ष के पास हथियार मौजूद थे, लेकिन उतने नही, कि नजदीक भविष्य में पूरी सफलता की आशा हो ।
जिस तरह चौबीस घंटे खुली या प्रकट लडाई, एक दूसरे के प्रति निराबाध घृणा चल रही थी, उससे हम मानवता से दूर हटते जा रहे थे । हर वक्त विदेशी आक्रान्ता के आ जाने का खतरा रहता था । तैमूर, नादिरशाह. अब्दाली के आक्रमणो ने सिद्ध कर दिया, कि विजेताओं - आक्रान्ताओं की तलवारें हिन्दू - मुसलमान का फर्क नही करतीं । मुसलमानों और हिन्दुओं के धार्मिक नेताओं में कुछ ऐसे भी पैदा हुए, जिन्होंने रामखुदैया के नाम पर लडी जाती इन भयंकर लडाइयों को बन्द करने का प्रयत्न किया । ये थे मुस्लिम सूफी और हिन्दू सन्त । पर इनका प्रेम सन्देश अपनी खानकाहो और कुटियों मे ही चल सकता था, लडाई के मैदान में उनकी कोई पूछ नही थी । लाखो आदमी अपने-अपने धर्म के झण्डो के नीचे कटरे--मरने के लिए तैयार थे । धर्म के नामपर आग लगाने वालों के इशारे पर जब देनी ओर से कटाकटी होने लगती, तो सन्तों- सूफियों को कोई नहीं पूछता शा । दोनों दल कहते थे - जो हमारे साथ नहीं, वह हमारा दुश्मन है । सन्तों - सूफियो के शांति और प्रेम के सन्देश ने हजारों-लाखो के मन को शान्ति प्रदान की, पर वह देश की सामाजिक समस्या को हल करने में असमर्थ रहा ।
भारत मे दो संस्कृतियों के संघर्ष से जो भयंकर स्थिति पिछली तीन - चार शताब्दियो से चल रही थी, उसको सुलझाने के लिये चारों तरफ से प्रयत्न करने की जरूरत थी और प्रयत्न ऐसा, कि उसके पीछे कोई दूसरा छिपा उद्देश्य न हो । संस्कृतियों के समन्वय का प्रयास हमारे देश में अनेक बार किया गया । पर. जो समस्या इन शताब्दियों में उठ खडी हुई थी, वह उससे कहीं अधिक भयकर और? कठिन थी । यह इससे भी मालूम है, कि आखिर उन्हीं के कारण बीसवी सदी के मध्य में देश के दो टुकडे हुए और वह भी खून की नदियों के बहाने के साथ ।
अकबर ने इसी महान् समन्वय का बीडा उठाया और आगे के पृष्ठों में हम देखेंगे, कि वह बहुत दूर तक सफल हुआ । अन्त में उन सफलताओं को मिटा देने के बाद भी उससे बढकर कोई दूसरा रास्ता आज भी दिखाई ड़टे ण्डता । हम देखेंगे, जिन बातो के लिये अकबर को दोनों दल बदनाम करते थे. उन्हे अब हम चुपचाप अपनाये जा रहे है । हिन्दू-मुसलमान दोनों की संस्कृति -साहित्य संगीत, कला, ज्ञान-विज्ञान का सब आदर करे, सभी उन्हे स्त्रेह और सम्मान की दृष्टि से देखे, यह पहला काम था, जिसे अकबर ने सबसेपहले शुरू किया । फिर अकबर ने चाहा, दोनों की मिलकर एक जाति हो
जाय-एके हिन्दी या भारतीय जाति बन जाये । इसके लिये उसने दोनों में रोटी-बेटी का सम्बन्ध स्थापित किया। हिन्दू अपनी जड़ता के कारण उसे अपनाने में पीछे रहे । मुसलमानों में एकतरफा व्यापार पहले चला आता था, इसलिए उन्हें इतराज नहीं हो सकता था । अकबर ने अपनी सदिच्छा को साबित करने के लिये मुल्लों के सामने काफिर तक होना स्वीकार किया । ऐसा कदम उठाया, जिससे उसके तख्त और सिर दोनों खतरे में प ड़ गये । पर, उसने दाँवपर सब कुछ रखना मंजूर किया । उसकी देशभक्ति राष्ट्रप्रेम अद्धितीय था । पर, जैसा कि आगे की पंक्तियों से मालूम होगा, समस्या इतनी जबर्दस्त थी, कि अकबर जैसे अद्धितीय महापुरूष का दीर्घ जीवन भी उसको सुलझाने के लिये पर्याप्त नहीं था । आगे ले चलने के लिये और वैसे दो महापुरुषो की आवश्यकता थी । काल और समाज से वह उल्टे जाना चाहता था और दोनों उसका जी जान से विरोध करने के लिये तैयार थे । अकबर का रास्ता आज बहुत हद तक हमारा रास्ता बन गया है। अकबर 16 वीं सदी नही, बल्कि 20 वीं सदी का हमारे देश का सांस्कृतिक पैगम्बर है। पर, आज भी इसे समझने वाले हमारे देश में कितने आदमी है ' कितने यह मानने के लिये तैयार है, कि अशोक और गाँघी के बीच में उनकी जोडी का एक ही पुरूष हमारे देश में पैदा हुआ, वह अकबर था? अकबर को इससे निराश होने की आवश्यकता नहीं थी, क्योंकि उसका ही रास्ता एकमात्र रास्ता था, जिसके द्वारा हमारा देश आगे बढ़ सकता था । आज से 400 वर्ष पहले (14 फरवरी 1556) अकबर भारत के शासन का सूत्रधार हुआ । फरवरी में किसी को मालूम भी नही हुआ, कि भारत के लिये यह एक महान् घटना थी । आज से आधी शताब्दी बाद 2005 ई० में अकबर का निर्वाण हुए 400 वर्ष बीत जायेंगे । आशा करनी चाहिए. उस वक्त इस दिन के महत्व को हमारा देश मानेगा । यदि इस पुस्तक से हमारे लोग अकबर को कुछ पहचान सकें, तो मै अपने प्रयत्न को सफल मानूँगा ।
प्रकाशकीय
हिन्दी साहित्य में महापंडित राहुल सांकृत्यायन का नाम इतिहास-प्रसिद्ध और अमर विभूतियों में गिना जाता है । राहुल जी की जन्मतिथि 9 अप्रैल, 1893 ई० और मृत्युतिथि 14 अप्रैल 1963 ई० है । राहुल जी का बचपन का नाम केदारनाथ पाण्डे था । बौद्ध दर्शन से इतना प्रभावित हुए कि स्वयं बौद्ध हो गये । ' राहुल' नाम तो बाद मे पड़ा -बौद्ध हो जाने के बाद । 'सांकृत्य' गोत्रीय होने के कारण उन्हें राहुल सांकृत्यायन कहा जाने लगा । राहुल जी का समूचा जीवन घुमक्कड़ी का था । मित्र-भिन्न भाषा साहित्य एवं प्राचीन संस्कृत- पालि-प्राकृत-अपभ्रंश आदि भाषाओं का अनवरत अध्ययन-मनन करने का अपूर्व वैशिष्ट्य उनमें था । प्राचीन और नवीन साहित्य-दृष्टि की जितनी पक ड़ और गहरी पैठ राहुल जी की थी-ऐसा योग कम ही देखने को मिलता है । घुमक्क ड़ जीवन के मूल में अध्ययन की प्रवृति ही सर्वोपरि रही । राहुल जी के साहित्यिक जीवन की शुरूआत सन् 1927 ई० से होती है। वास्तविकता यह है कि जिस प्रकार उनके पाँव नहीं रूके, उसी प्रकार उनकी लेखनी भी निरन्तर चलती रही। विभित्र विषयों पर इन्होंने 150 से अधिक ग्रंथों का प्रणयन किया है। अब तक उनके 130 से अधिक ग्रंथ प्रकाशित हो चुके है । लेखों निबन्धो एवं भाषणों की गणना एक मुश्किल काम है।
राहुल जी के साहित्य के विविध पक्षों को देखने से ज्ञात होता है कि उनकी पैठ न केवल प्राचीन-नवीन भारतीय साहित्य में थी, अपितु तिब्बती, सिंहली, अग्रेजी, चीनी, रूसी, जापानी आदि भाषाओं की जानकारी करते हुए तत् साहित्य को भी उन्होंने मथ डाला । राहुल जी जब जिसके सम्पर्क में गये, उसकी पूरी जानकारी हासिल की। जब से साम्यवाद के क्षेत्र में गये, तो कार्ल मार्क्स, लेनिन, स्तालिन आदि के राजनीतिक दर्शन की पूरी जानकारी प्राप्त की । यही कारण है कि उनके साहित्य में जनता, जनता का राज्य और मेहनतकश मजदूरों का स्वर प्रबल और प्रधान है ।
राहुल जी बहुमुखी प्रतिभा-सम्पन्न विचारक है। धर्म, दर्शन, लोकसांहित्य, यात्रासाहित्य, इतिहास, राजनीति, जीवनी, कोश, प्राचीन, तालपोथियो का सम्पादन आदि विविध क्षेत्रों में स्तुत्य कार्य किया है। राहुल जी ने प्राचीन के खं ड़हरों से गणतंत्रीय प्रणाली की खोज की । 'सिंह सेनापति' जैसी कुछ कृतियों में उनकी यह अन्वेषी वृति देखी जा सकती है । उनकी रचनाओं में प्राचीन के प्रति आस्था, इतिहास प्रति गौरव और वर्तमान के प्रति सधी हुई दृष्टि का समन्वय देखने को मिलता है । यह केवल राहुल जी थे जिन्होंने प्राचीन और वर्तमान भारतीय और साहित्य-चिन्तन को समग्रत: आत्मसात् कर हमे मौलिक दृष्टि देने का निरन्तर प्रयास किया है । चाहे साम्यवादी साहित्य हो या बौद्ध दर्शन इतिहास-सम्मत उपन्यास हों या 'वोल्गा से गंगा' की कहानियाँ-हर जगह राहुल जी की चिन्तक वृति और अन्वेषी सूक्ष्म दृष्टि का प्रमाण मिलता जाता है । उनके उपन्यास और कहानियाँ बिलकुल एक नये दृष्टिकोण को हमारे सामने रखते है सम्भवत: यह कहा जा सकता है । कि राहुल जी न केवल हिन्दी साहित्य अपितु समूचे भारतीय वाङमय के एक ऐसे महारथी है जिन्होंने प्राचीन और नवीन, पौर्वात्य जिन पर साधारणत: लोगो की दृष्टि नही गई थी । सर्वहारा के प्रति विशेष मोह होने के कारण अपनी साम्यवादी कृतियों में किसानों, मजदूरी और मेहनतकश लोगो को बराबर हिमायत करते दीखते है । विषय के अनुसार राहुल जी की भाषा-शैली अपना स्वरूप निर्धारित करती है । उन्होने सामान्यत' सीधी-सादी सरल शैली का ही सहारा लिया है जिससे उनका सम्पूर्ण साहित्य-विशेषकर कथासाहित्य-साधारण पाठकों के लिए भी पठनीय और सुबोध है । प्रस्तुत ग्रंथ ' अकबर' में तत्कालीन सभी सामाजिक पहलुओं की सविस्तार । चर्चा की गई है । ग्रंथ मे कुल 24 अध्याय है जिनमें पूर्वार्द्ध के 14 अध्यायों मे अकबर के सहकारी और उसके विरोधियो का यथातथ्य लेखा जोखा प्रस्तुत किया गया है । हेमचन्द्र (हेमू) सैयद मुहम्मद जौनपुरी, मियाँ अब्दुल्ला नियाजी, शेख अल्लाई (मुस्लिम साम्यवादी), मुल्ला अब्दुल्ला सुल्लानपुरी, बीरबल, तानसेन, शेख अब्दुन नवी, हुसेन खीं टुकडिया, शेख मुबारक, कविराज फैजी. अबुल फजल, मुल्ला बदायूँनी, टो ड़रमल, रहीम, मानसिंह जैसे सहयोगियों की अलग-अलग अध्याय में व्यापक चर्चा मिलती है । इन सहकारियों का जीवन-परिचय ही नही, बल्कि सम्राट अकबर के साथ इनके गठजोड़ का सूक्ष्मातिसूक्ष्म और मनोवैज्ञानिक गंभीर विश्लेषण प्रामाणिक आधार पर अत्यन्त गहराई के साथ प्रस्तुत है । उत्तरार्ध के 10 अध्यायों में अकबर महान् के आरम्भिक जीवन से लेकर अन्तिम जीवन तक के सम्पूर्ण ऐतिहासिक तथ्यों को बहुत ही विस्तार के साथ और ठोस प्रामाणिक आधारों पर उजागर करने की चेष्टा की गई है । उसक युद्धों का वर्णन, उसकी विजयों, उसकी आकृति, पोशाक, दिनचर्या और उसके स्वभाव, भोजन मद्यपान, शिकार, विनोद आदि उसके जीवन के विविध पक्षों पर बडी ईमानदारी से विस्तृत प्रकाश डाला गया है । कहा जा सकता है कि अकबर के बारे मे शायद ही किसी दूसरे ग्रंथ मे इतनी विशद और बेलाग सच्चाई प्राप्त हो सके । अकबर का समय भारतीय इतिहास में साहित्य और कला के क्षेत्र मे स्वर्ण-काल कहा जा सकता है । स्वयं राहुल जी के शब्दों में '' भारत में दो संस्कृतियो के संघर्ष से जो भयंकर स्थिति पिछली तीन-चार शताब्दियों से चल रही थी. उसको सुलझाने के लिए चारों से प्रयत्न की जरूरत थी और प्रयत्न ऐसा, कि उसके पीछे कोई दूसरा छिपा उद्देश्य न हो । संस्कृतियों के समन्वय का प्रयास हमारे देश में अनेक बार किया गया'। पर जो समस्या इन शताब्दियों में उठ खड़ी हुई थी, वह उससे कहीं अधिक भयंकर और कठिन थी। अकबर ने इसी महान् समन्वय का बीड़ा उठाया और बहुत दूर तक सफल हुआ । अकबर का रास्ता आज बहुत हद तक हमारा रास्ता बन गया है। अकबर 16 वीं सदी का नहीं, बल्कि बीसवीं सदी का हमारे देश का सांस्कृतिक पैगम्बर है।''
विषय-सूची |
||
1 |
पूर्वार्ध (अकबर के सहकारी और विरोधी) |
|
2 |
हेमचन्द्र (हेमू) |
3-10 |
3 |
देश की स्थिति |
3 |
4 |
कुल |
5 |
5 |
कार्यक्षेत्र मे |
7 |
6 |
सलीमशाह |
8 |
7 |
विक्रमादित्य |
8 |
8 |
मुस्लिम साम्यवादी |
11-20 |
9 |
सैयद महम्मद जौनपुरी |
11 |
10 |
मियाँ अब्दुल्ला नियाजी |
14 |
11 |
शेख अल्लाई |
14 |
12 |
मुल्ला अबदुल्ला सुल्तानपुरी |
21-27 |
13 |
प्रताप आसमान पर |
21 |
14 |
अवसान |
23 |
15 |
बीरबल |
28-36 |
16 |
दरबारी |
28 |
17 |
युद्ध में |
30 |
18 |
मृत्यु |
32 |
19 |
तानसेन |
37-43 |
20 |
शेख अब्दुन् नवी |
44-51 |
21 |
प्रताप-सूर्य |
44 |
22 |
मक्का में निर्वासन |
46 |
23 |
हुसेन खां दुकड़िया |
52-58 |
24 |
पूर्व-पीठिका |
52 |
25 |
मन्दिरों की लूट और ध्वंस |
54 |
26 |
अवसांन |
58 |
27 |
शेख मुबारक |
56-77 |
28 |
जीवन का आरम्भ |
56 |
29 |
आगरा में |
64 |
30 |
आफत के बादल |
66 |
31 |
महान कार्य |
74 |
32 |
कविराज फैजी |
78-94 |
33 |
महान् ह्रदय |
78 |
34 |
बाल्य |
81 |
35 |
कविराज |
82 |
36 |
मृत्यु |
87 |
37 |
कृतियों |
86 |
38 |
फैजी का धर्म |
91 |
39 |
अबुल फजल |
95-109 |
40 |
बाल्य |
65 |
41 |
दरबार में |
67 |
42 |
कलम ही नहीं, तलवार का भी धनी |
100 |
43 |
मृत्यु |
104 |
44 |
अबुलफजल का धर्म |
105 |
45 |
कृतियाँ |
106 |
46 |
सन्तान |
108 |
47 |
मुल्ला मुल्तानी |
110-132 |
48 |
बाल्य |
110 |
49 |
आगरा में |
113 |
50 |
टुकड़िया की सेवा में |
115 |
51 |
दरबार में |
118 |
52 |
मृत्यु |
125 |
53 |
कृतियाँ |
127 |
54 |
टो ड़रमल |
133-144 |
55 |
आरम्भिक जीवन |
133 |
56 |
दीवान (वजीर) |
134 |
57 |
माहन् जेनरल |
137 |
58 |
महान् प्रशासक |
136 |
59 |
रहीम |
145-153 |
60 |
बाल्य |
145 |
61 |
महान् सेनापति |
148 |
62 |
महान् लेखक |
146 |
63 |
दुस्सह जीवन |
150 |
64 |
महान् कवि |
151 |
65 |
रहीम की कविताओं के कुछ नमूने |
152 |
66 |
मानसिंह |
154-172 |
67 |
आरम्भ |
154 |
68 |
अक्सर से पहली भेंट |
156 |
69 |
महान् सेनापति |
158 |
70 |
महान् शासक |
164 |
71 |
उत्तरार्ध (अकबर) |
|
72 |
आरम्भिक जीवन |
173-184 |
73 |
जन्म |
174 |
74 |
माता-पिता से अलग |
178 |
75 |
हुमायुँ पुन भारत सम्राट् |
176 |
76 |
शिक्षा |
183 |
77 |
नाबालिग बादशाह |
185-166 |
78 |
बैरम की अतालीकी |
185 |
79 |
बैरम का पतन |
187 |
80 |
बेगमों का प्रभाव |
161 |
81 |
राज्य-प्रसार |
200-206 |
82 |
रानी दुर्गावती पर विजय |
200 |
83 |
सजेको क्त विद्रोह |
201 |
84 |
चित्तौड़ रणथंभौर-विजय |
204 |
85 |
गुजरात विजय |
210-217 |
86 |
प्रथम विजय |
210 |
87 |
तैमूर मिर्जाओं का उपद्रव |
212 |