निवेदन
यह अतिशयोक्ति नहीं है कि प्राचीनकाल से ही विश्व की जिन गिनी चुनी सभ्यताओं में चिंतन मनन को सर्वाधिक प्रमुखता मिली उनमें भारतीय सस्कृति सर्वप्रमुख है । आध्यात्म हो या विज्ञान,दर्शन हो या साहित्य या जीवन के अन्य क्षेत्र सभी में भारतीय चिंतन मनन ने असीमित ऊँचाइयों का संस्पर्श किया है । आध्यात्म और दर्शन के क्षेत्र में विशेष रूप से यह चिंतन मनन इस सीमा तक गया कि प्राय:ऐसा प्रतीत होता है कि संभवत:कोई छोर अछूता नहीं रहा । भारतीय षट दर्शन से प्राय:सभी परिचित हैं जो मूलत:12 थे तथा जिनमें भौतिकता और अलौकिकता के अस्तित्व और उनके बीच पारस्पारिक सम्बन्धों पर विशद् वैचारिक मंथन मिलता है । दर्शन उच्चस्तरीय विचारों की वह प्रणाली है,जिसमें आम्यांतरिक अनुभव तथ्य तर्कपूर्ण कथनों से वर्ण्य विषय को व्यक्त किया जाता है । प्राचीन काल से ही अनेकानेक विद्वान और दार्शनिक इस महान परम्परा को निरंतर आगे बढाते आये हैं ।
अद्वैतवाद इसी भारतीय दार्शनिक परम्परा का महत्वपूर्ण सोपान है,जिसे शंकराचार्य जी ने आठवीं सदी के अंत में वर्तमान स्वरूप प्रदान किया । इसे ब्रह्मसूत्र शांकर भाष्य’ भी कहते हैं तथा सर्वाधिक मान्यता भी इसी ‘शांकर भाष्य’ को मिली है । शंकराचार्य जी का समय वह समय था,जब बौद्ध,जैनियों व कापालियों के प्रभाव के चलते वैदिक धर्म अवसान की ओर था । शंकराचार्य जी ने अपनी प्रतिभा व तर्क से इसे पुनर्जीवित किया । उन्होंने देश के चार कोनों में मठों की स्थापना की । सनातन धर्म का आज जो भी रूप है,इसमें शंकराचार्य की इस परम्परा निर्माण का महत्वपूर्ण योगदान है । जहाँ तक अद्वैतवाद का प्रश्न है,संक्षेप में शंकराचार्य ने इसके अन्तर्गत अपने भाष्य में सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को दो भागों में बीटा है दृष्टा और दृश्य । एक वह तत्त्व जो सम्पूर्ण प्रतीतियों का अनुभव करने वाला है तथा दूसरा वह जो सम्पूर्ण अनुभव का विषय है,वह अनात्म है । आत्मतत्त्व नित्य,निश्चल,निर्विकार,नि:संग और निर्विशेष है तथा बुद्धि से लेकर स्थूल भूत पर्यन्त सभी अनात्म है । इसी के साथ ज्ञान और अज्ञान को समझना व उन्हें समझने के साधनों पर भी शकराचार्य जी ने जोर दिया है । यह भक्ति से सम्भव है और भक्ति है अपने शुद्ध स्वरूप का स्मरण । यह स्थूल कर्मो से संन्यास द्वारा सम्भव है और इसका माध्यम है निष्काम कर्म । ब्रह्मसूत्र के शांकर भाष्य को इन्हीं संदर्भो में ‘चतु:सूत्री’ कहा गया है ।
आधुनिक युग में शंकराचार्य के ब्रह्मसूत्र का भाष्य अनेक विद्वानों ने किया है,परन्तु इनमें उद्भट विद्वान स्वर्गीय रमाकांत त्रिपाठी जी का भाष्य अप्रतिम है । इसमें स्वर्गीय त्रिपाठी जी ने न केवल शांकर भाष्य की सरलतम व्याख्या की है,अपितु प्रारम्भ में व्याख्या व अंत में परिशिष्ट अध्यायों के अन्तर्गत इसको सरलतम रूप में व्याख्यायित भी किया है,जो छात्रों तथा जिज्ञासुओं से लेकर विद्वानों सभी के लिए अत्यंत उपयोगी है । विशेष परिशिष्ट में जिस तरह दार्शनिक शब्दावली के प्रचलित एव दुरूह शब्दों (यथा आत्मा,माया,जीव. अविद्या आदि) को जिस सरलता के साथ स्पष्ट किया गया है उससे सहज ही विद्वान लेखक रमाकांत त्रिपाठी जी के असाधारण पांडित्य एवं अभिव्यक्ति सामर्थ्य का पता चलता है । आशा है,विगत की भाँति उनकी अप्रतिम रचना ‘ब्रह्मसूत्र शांकर भाष्य (चतु:सूत्री)’ के इस पंचम संस्करण का भी सर्वत्र स्वागत एवं समादर होगा तथा इसे सराहा जायेगा ।
प्रकाशकीय
अपने अस्तित्व और परम्परा को लेकर मनुष्य प्रारम्भ से ही अत्यंत जागरूक रहा है और इसके चलते अनेक मत मतातरों का काल के अंतराल मे उद्भव हुआ । भारत तो मानो इस परम्परा का सुमेरु रहा है । इसी के चलते यहा दर्शन की भी अनेक धाराओं का प्रस्फुटन हुआ । इस गौरवपूर्ण भारतीय दार्शनिक परम्परा में अद्वैतवाद का अनन्यतम स्थान है,जिसकी ब्रह्मसूत्र रूप में असाधारण व्याख्या शंकराचार्य ने की है । असाधारण विद्वता के चलते उन्होंने कई अन्य प्राचीन ग्रंथों के भी भाष्य लिखे,वैदिक धर्म का प्रचार प्रसार किया और सिर्फ 32 वर्ष की आयु में जब यह नश्वर संसार छोडा,तो वह संसार को ज्ञान की उन ऊँचाइयों से परिचित करा चुके थे,जिनकी तुलना गिने चुने प्रकाश बिन्दुओं से ही की जा सकती है ।
शंकराचार्य के ब्रह्मसूत्र भाष्य के बारे में प्रसिद्ध है कि उन्होंने इसे लिख कर अपने शिष्य सनन्दन को सुनाया था । इन्हीं सनन्दन का नाम बाद में पदमपाद पडा । शंकर की यह रचना बाद में कही खो गयी,तब पदमपाद ने ही इसे लिपिबद्ध किया क्योंकि यह उन्हें अक्षरश:याद हो गयी थी । यह समय नवीं सदी के प्रारम्भ का था । लगभग पाँच सौ वर्षो बाद 14 वीं सदी में महात्मा शंकरानन्द ने ‘ब्रह्मसूत्र दीपिका’ नाम से ब्रह्मसूत्र सष्कधी शकर मत को नयी पहचान दी । कुछ ही समय बाद वेदान्ताचार्य अद्वैतानंद ने इसी के आधार पर ‘वेदातवृत्ति’ लिखी,जिसमें ब्रह्मसूत्र के केवल चार अध्यायों की व्याख्या है । बाद में रामानुजाचार्य ने भी इसका भाष्य लिखा और अद्वैतवाद को असाधारण ऊँचाइयां दी जो आज तक अक्षुण्ण हैं । इसके चलते कालान्तर में समय समय पर वैदिक धर्म के प्रचार प्रसार के बीच ब्रह्मसूत्र शांकर भाष्य की अनेक व्याख्याएं भाष्य सामने आये । इनके अनुसार इस सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड का एक नियंता है और उसके अतिरिका जो कुछ भी है,सब उसी की देन है । दोनो के पारस्परिक सम्बन्धो के बीच ही ब्रह्माण्ड गतिशील है ।
इसी गौरवपूर्ण परम्परा में उद्भट संस्कृत विद्वान रमाकांत त्रिपाठी ने इस पुस्तक ‘ब्रह्मसूत्र शांकर भाष्य (चतु:सूत्री)’ के रूप में इसका भाष्य लिखा,जिसका मूल उद्देश्य छात्रों व जागरूक पाठको को इस अत्यत जटिल दार्शनिक परम्परा से सुपरिचित कराना है । विद्वान भाष्यकार ने मूल ग्रंथ के सरल हिन्दी अनुवाद के साथ साथ स्वयं भी इसकी सारगर्भित व्याख्या की है । इसके प्रथम अध्याय में श्रुतियों न्याय मीमांसा आदि के मत मतांतरों का समन्वय है,उनके तर्कों से अपने मत को विद्वान लेखक ने पुष्ट किया है । दूसरा अध्याय विरोधी मतों के खंडन से जुड़ा है । तीसरा अध्याय है साधन’ यानी ब्रह्म से तादात्म्य का माध्यम । अंतिम चौथा अध्याय साधना के फल का निरूपण करता है ।
उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान,हिन्दी कथ अकादमी प्रभाग योजना के अन्तर्गत इसका प्रथम संस्करण 1675 में प्रकाशित हुआ था । जागरूक पाठकों के बीच इसे लोकप्रियता मिलते देर नहीं लगी और सन् 1961 में इसका चतुर्थ संस्करण प्रकाशित हुआ । इसी परम्परा में अब यह पाँचवा संस्करण प्रस्तुत है । स्पष्ट है कि इसकी पठनीयता और उपादेयता के बिना स्वर्गीय रमाकांत त्रिपाठी विरचित ‘ब्रह्मसूत्र शांकर भाष्य (ञचतु:सूत्री)’ की यह लोकप्रियता सम्भव न थी । विश्वास है,पुस्तक का यह पंचम संस्करण भी छात्रो,जागरूक पाठकों व विद्वानों की बीच पूर्व की ही भाँति समादृत होगा. आदर पायेगा ।
प्रथम संस्करण का प्राक्कथन
भारतीय विश्वविद्यालयों में प्राय:सभी जगह एम.ए. के पाठ्यक्रम मे अद्वैत वेदात को स्थान प्राप्त है और अद्वैत वेदात के पाठ्यक्रम मे ब्रह्म सूत्र चतु:सूत्री शाङ्करभाष्य अवश्य रखा जाता है । हिन्दी भाषा भाषी प्रान्तों में प्राय:सभी विश्वविद्यालयों में अध्ययन अध्यापन हिन्दी में होता है । अद्वैत वेदांत पर अंग्रेजी में तो कुछ पुस्तकें उपलब्ध है किन्तु हिन्दी में पुस्तकों का अभाव अभी भी है । ब्रह्मसूत्र चतु:सूत्री शाङ्करभाष्य के कुछ अनुवाद हिन्दी मे भी देखने को मिलते हैं परन्तु ऐसा मालूम पडता है कि वे छात्रों के लिए अधिक उपयोगी नही है । उनको पढ़कर छात्र शंकराचार्य के तात्पर्य को समझने में सफल नहीं होते । यह पुस्तक छात्रों के आग्रह से लिखी जा रही है । अत:इसे अधिक से अधिक छात्रोपयोगी बनाने का प्रयत्न किया गया है ।
इस पुरतक की दो एक विशेषताएँ हैं । एक तो यह कि अनुवाद को बिल्कुल अक्षरश:अनुवाद न बनाकर उसे भावार्थक अनुवाद बनाया गया है जिससे वह छात्रों को सुगम हो । फिर भी कुछ पारिभाषिक शब्दों का प्रयोग अनिवार्य हो गया है । यथा स्थल उन शब्दों को समझाने का प्रयत्न किया गया है । पूर्वपक्ष और उत्तरपक्ष को स्पष्ट किया गया है । दूसरी विशेषता यह है कि अनुवाद के साथ साथ एक संक्षिप्त व्याख्या भी दी गयी है । इस व्याख्या में प्राय:उन सभी महत्व के प्रश्नों को उठाया गया है जो भाष्य में प्रसंगत:उठते है और यथा सम्भव शंकाओं का निवारण किया गया है । तर्कपाद का भी कुछ अश व्याख्या मे ले लिया गया है । व्याख्या को प्राय:बोलचाल की भाषा में रखा गया है न कि शस्त्रीय भाषा में । लेखक का उद्देश्य न तो विद्वता प्रदर्शन है और न कोई मौलिक सिद्वान्त रखने की इच्छा है । यदि कहीं मौलिकता मिली भी तो वह विषय के प्रतिपादन में ही हो सकती है किसी सिद्धान्त में नहीं । लेखक आचार्य के तात्पर्य को सुगम बनाने में सफल है कि नहीं यह तो पाठक ही बता सकेंगे ।
इस छोटे से ग्रंथ में वेदान्त सम्बन्धी सभी विषयों का समावेश संभव नहीं था फिर भी उपयोगिता को ध्यान में रखकर परिशिष्ट में मायावाद का खण्डन और इसका उत्तर दे दिया गया है ।
भाष्य के अनुवाद तथा व्याख्या में हिन्दी में उपलब्ध अनुवादों से सहायता मिली है । उन सभी लेखकों के प्रति आभार प्रदर्शन मेरा कर्त्तव्य है । परन्तु अद्वैत वेदांत को मुझे सुगम बनाने का एक मात्र श्रेय मेरे गुरू प्रो. टी. आर. वी. मूर्ति को है । उन्ही जैसे सामर्थ्यवान व्यक्ति के लिए मेरे जैसे साधारण व्यक्ति को अद्वैत समझाना संभव था । ग्रहण करने में सफलता की कमी केवल मेरी सामर्थ्यहीनता के कारण है । उनको धन्यवाद देने मात्र से मैं उऋण नहीं हो सकता । पुस्तक को मूर्तरूप देने में जो सहायता मेरे सहयोगी श्री बाबू लाल मिश्र जी से मिली है उसके लिए मैं उनको हार्दिक धन्यवाद देता हूँ । बिना उनके परिश्रम के मेरे जैसे आलसी व्यक्ति को यह काम पूरा करना कदापि सभव नहीं था । प्रूफ संशोधन में श्री कमलाकर मिश्र तथा श्री केदारनाथ मिश्र से सहायता मिली है । वे दोनों धन्यवाद के पात्र हैं । अन्त में मैं उत्तर प्रदेश हिन्दी सस्थान को भी धन्यवाद देना अपना कर्तत्व समझता हूँ ।
विषय सूची
1
2
3
प्राक्कथन
4
व्याख्या
5
भाष्य तथा अनुवाद
37
6
परिशिष्ट
75
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