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धन्वन्तरि सार निधिः Dhanvantari Saar Nidhi (An Old and Rare Book)

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Item Code: HBD598
Publisher: CENTRAL COUNCIL FOR RESEARCH IN AYURVEDIC SCIENCES
Language: Sanskrit Only
Edition: 1999
Pages: 96
Cover: PAPERBACK
Other Details 9.5x7.5 inch
Weight 170 gm
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Book Description
प्रस्तावना

धन्वन्तरि सारनिधि ग्रंथ की पाण्डुलिपि तंजौर के महाराजा सफौंजी सरस्वती महल पुस्तकालय से प्राप्त हुई थी और इस कार्य को आयुर्वेद वांग्मय अनुसंधान एकक तंजौर द्वारा मूल रूप में संस्कृत भाषा में कागज पाण्डुलिपि से लिया गया है। इसकी पाण्डु‌लिपि संख्या बो ५४३८ तथा डो ११०६९ है। इस ग्रंथ की रचना तंजौर के महाराजा तुलज द्वारा की गयी है। यथा- धन्वन्तरसारनिधि ग्रंथं "तुलजक्षमापतिः" कुरुते ॥ महाराजा तुलज संगीत, आयुर्वेद और मंत्र शास्त्र में अपनी अभिरूचि रखते थे। यद्यपि यह ग्रंथ अपूर्ण प्रतीत होता है तथापि इसमें बहुत से रोगों के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण औषध योग दिये गये हैं जो कि जनमानस के स्वास्थ्य के लिए अत्यधिक उपयोगी है।

एक बार जब महाराजा का पुत्र अस्वस्थ था उस समय उन्होंने अपनी ही औषध व्यवस्था से पुत्र की चिकित्सा की। तत्पश्चात् अनुभवी सिद्ध चिकित्सक होने के नाते उन्होंने बहुत से लोगों की चिकित्सा की। उन्होंने यह पुस्तक ज्वर चिकित्सा पर लिखी जिसमें रोग, लक्षण निदान और चिकित्सा विधि बताई गई है। यह ग्रंथ गद्य और पद्य दोनों रूप में है तथा कुल १० अध्यायों में विभक्त है। किन्तु अध्यायों के विभाजन से विषय की एकरूपता लाने में कठिनाई प्रतीत हो रही थी। उदाहरणार्थ अनेक स्थलों पर उसी प्रसंग का विषय वस्तु अगले अध्याय में जा रहा था। पूर्व के अध्याय में परिजात ज्वर चिकित्सा है या पित्त ज्वर का अगले में जा रहा था। विषम ज्वर का एक ही संदर्भ चल रहा है पर अध्याय बदल गया। पाठकों को इस असुविधा से बचाने हेतु अध्यायों का विभाजन हटा दिया है। अब केवल विषयानुरूप शीर्षक या उपशीर्षकों से विवरण देखा जा सकता है।

सर्वप्रथम मंगलाचरण के रूप में कुछ पद्य उद्धृत है जिसमें श्रीगणेश जी की अराधना की गई है जो कि तंजौर राज्य में विशेष रूप से प्रचलित है और इसमें दीर्घायु की कामना की गई है। इस पुस्तक से यह भी अभिव्यक्त होता है कि यह कई एक ग्रंथों का संग्रह मात्र है।

इस ग्रंथ में रोगोत्पत्ति का विशद् वर्णन मिलता है। ज्वर रोग का उद्भव रुद्र देवता के प्रकोप से उत्पत्र ऐतिहासिक रूप में बताया गया है। शीत ज्वर को विष्णु देवता के प्रकोप से उत्पत्र बताया गया है। इस प्रकार के कई स्थानों पर ऐतिहासिक/पौराणिक पक्ष को उजागर किया है।

प्रस्तुत मन्य में निदान के स्वरूप को भी दर्शाया गया है जिसमें विप्रकृष्ट एवं सत्रिकृष्ट दो प्रकार के निदानों की चर्चा की है तथा रोग निदान के अन्य पक्षों को आयुर्वेद के मूल ग्रंथों से उद्धत किया है, जैसे दर्शन, स्पर्शन, प्रश्नैः परीक्षेतार्थ रोगिणम् इति रोग परीक्षा प्रकार उक्तः और आठ प्रकार की परीक्षा का भी वर्णन किया है।

चिकित्सा सिद्धान्त के वर्णन प्रसंग में ज्वर रोग में लंघन आदि का विधान तथा मण्ड पेया आदि की प्रयोग विधि और औषध का वर्णन दिया है। वातज्वर एवं पित्तज्वर की चिकित्सा में कषाय एवं गण्डूष लेने का विधान बताया है और साथ ही कतिपय ज्वरनाशक औषध योगों का वर्णन किया है। पित ज्वर की चिकित्सा, श्लेष्मज्वर का निदान और चिकित्सा, सत्रिपातज्वर और उसके विभाग तथा साध्य असाध्यता तथा इसकी चिकित्सा का विशद् वर्णन किया है।

सन्निपात ज्वरों की चिकित्सा तांद्रिकगद चिकित्सा का वर्णन है जिसमें क्वाथ, लेप, धूप, नस्य द्वारा चिकित्सा बताई गई है। साथ ही कर्ण ग्रंथि, रक्तष्ठीवन एवं प्रलाप चिकित्सा का विशेष वर्णन है। इसके अतिरिक्त विषमज्वर के भेदों को दर्शाया है। ज्वर के प्रकारों का तथा दोष और धातु में प्रवेश होने का वर्णन किया गया है, तथा विषज्वर के विभिन्न भेदों की चिकित्सा का वर्णन किया भी गया है।

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