हमारी यह कृति वीर विनायक दामोदर सावरकर पर लगाए गए अभियोगों का निष्पक्ष लेखा-जोखा है। वह सावरकर, जिन्हें राष्ट्र आज भी स्वातंत्र्य वीर सावरकर के नाम से जानता है और जिनके चरणों में कृतज्ञ राष्ट्र अपने श्रद्धा सुमन अर्पित करता है। 20वीं सदी के प्रथम दशक में इंग्लैंड तथा हॉलैंड में सावरकर ने दृढ़तापूर्वक उन अभियोगों का सामना किया था, जो उन पर इसलिए थोपे गए थे, क्योंकि उन्होंने ब्रिटिश साम्राज्यवाद के जुए को उखाड़ फेंकने के लिए भारतजन का आह्वान कर स्वातंत्र्य समर का शंखनाद किया था। मात्र इतना ही नहीं, सन् 1948 में महात्मा गांधी की हत्या का जुर्म भी उन पर मढ़ते हुए सत्तासीन कांग्रेसियों ने उन्हें व्यर्थ ही फँसाने की झोंक में उन पर गांधी-हत्या षड्यंत्र केस में मुकदमा ठोंक दिया था। प्रस्तुत कृति में इन्हीं मिथ्यारोपों का खुलासा किया गया है।
सावरकर बाल्यावस्था में ही अपने देश, अपनी मातृभूमि भारत के प्रति आत्यंतिक भाव से समर्पित एवं संवेदनशील हो उठे थे। इस बात पर यकीन कर पाना कठिन हो जाता है कि सोलह वर्ष से भी कम आयु के किशोर सावरकर भारत-माता की दुर्दशा एवं शोषण देखकर उसी तरह कुपित, पीड़ित एवं दुःखी हो उठते थे, जिस प्रकार एक माँ अपने बच्चों को निपीड़ित देखकर बुरी तरह वेदना- विगलित हो उठती है। उनके लिए उनका देश सच्चे मायनों में 'मातृभू' था, जिसे उन्होंने उसी शिद्दत के साथ जिया था, जिस भक्ति भावना से कोई भी बालक या भक्त अपनी माता के चरणों में पूर्ण भक्तिभाव-भावित होकर स्वयं को समर्पित कर देता है। हम राष्ट्र के प्रति इस समर्पित मातृभक्ति भावना को इसलिए मुख्य रूप से रेखांकित करना चाहते हैं, क्योंकि आजकल मातृभूमि के प्रति ऐसा समर्पण भाव कम ही देखने को मिलता है। वस्तुतः सच्चाई यह है कि आजकल की सांस्कृतिक परिवर्तनशील वैचारिकता एवं भावप्रवणता में 'मातृभूमि', 'राष्ट्रवाद' राष्ट्रप्रेम' तथा 'देशभक्ति / राष्ट्रभक्ति' को अब भारत का जन-सामान्य, खासकर भारत का सत्तात्मक समुदाय ज्यादा भाव नहीं देता तथा इन शब्दों से उसे कोई हरारत भी नहीं होती। इन शब्दों में निहित गहन सांस्कृतिक व राष्ट्रप्रेम-बोध से उसका दिल नहीं पसीजता। न उसकी भुजाएँ फड़कती हैं, न उसकी छाती चौड़ी होती है। हाँ, जब भी सरहदों पर कभी-कभार हमारे दो-चार सैनिक सुरक्षाकर्मी दुश्मनों की गोलियों का शिकार हो मारे जाते हैं, बस तभी देश में संसद् में, मीडिया में थोड़ी-बहुत सुगबुगाहट देखने को मिलती है, वह भी थोड़ा-बहुत क्रोध/आक्रोश या उफान, अन्यथा अधिकांश जनता भी बस, थोड़ा-बहुत चहककर रह जाती है। नेताओं का खून जैसे पानी हो गया है, जिसमें 'मातृभू'' पितृभू', 'राष्ट्रप्रेम' तथा 'देशभक्ति' को लेकर कोई ज्वार आता ही नहीं, पर आजादी से पहले के भारत में ऐसा नहीं था। तब सावरकर, सुभाष, भगत सिंह, आजाद, अशफाक, बिस्मिल, सुखदेव, राजगुरु, मदनलाल धींगड़ा, अनंत कन्हरे, कन्हाईलाल दत्त सरीखे हजारों युवा क्रांतिकारी थे, जो तलवारों की नंगी धार पर दौड़ते हुए हाथ में मशाल लेकर आकाश में भारतमाता का चित्र काढ़ देना जानते थे।
For privacy concerns, please view our Privacy Policy
Hindu ( हिंदू धर्म ) (12482)
Tantra ( तन्त्र ) (986)
Vedas ( वेद ) (705)
Ayurveda ( आयुर्वेद ) (1884)
Chaukhamba | चौखंबा (3346)
Jyotish ( ज्योतिष ) (1441)
Yoga ( योग ) (1091)
Ramayana ( रामायण ) (1391)
Gita Press ( गीता प्रेस ) (731)
Sahitya ( साहित्य ) (23013)
History ( इतिहास ) (8214)
Philosophy ( दर्शन ) (3343)
Santvani ( सन्त वाणी ) (2534)
Vedanta ( वेदांत ) (121)
Send as free online greeting card
Email a Friend
Manage Wishlist