पुस्तक के विषय में
मरौ हे जोगी मरौ
इस पुस्तक में गोरख पर बोलते हुए ओशो कहते हैं गोरख ने जितना आविष्कार किया मनुष्य के भीतर अंतर खोज के लिए उतना शायद किसी ने भी नहीं किया है उन्होंने इतनी विधियां दीं कि अगर विधियों के हिसाब से सोचा जाए तो गोरख सबसे बड़े आविष्कारक हैं।
गोरख के परम रूपातरणकारी सूत्रों को आज की भाषा में उजागर करने के साथसाथ इस पुस्तक में ओशो द्वारा उत्तरित प्रश्नों में से कुछ:-
विचार की ऊर्जा भाव में कैसे रूपातरित होती है
जीवन के सुखदुखों को हम कैसे समभाव से स्वीकार करें।
मैं हर चीज से असंतुष्ट हूं। क्या पाऊं जिससे कि संतोष मिलें।
शरीर के अस्वास्थ्य और परिजन की मृत्यु के अवसर का कैसे उपयोग करें।
भूमिका
'मरौ हे जोगी मरौ' पुस्तक की भूमिका लिखना उलटबांसी बजाने जैसा है । यह पुस्तक कोई साधारण पुस्तक है? यह तो उस कोटि की है जिसे कबीर कहते है, 'चार वेद का जीव । अदभुत गुरु गोरखनाथ के अपौरुषेय वचन और उस पर अपनी ऋतंभरा प्रज्ञा का सिंचन करती हुई ओशो की स्वयंप्रकाश वाणी । इसकी भूमिका लिखने की हिमाकत कौन करे?
यह ऐसे ही है जैसे हम धरती से कहें, आकाश की भूमिका लिखो । क्षणदो क्षण तो वह अवाक होकर ताकती रहेगी ऊपर के विराट वितान को । धरती क्या कर सकती है सिवाय इसके कि गलती रहे, पिघलती रहे; वह मीठा मरण मरती रहे जिसे मरकर एक दिन उसकी भी 'दीठ' खुल जाये, गोरखनाथ की भांति । भूमिका अगर भूमि का महकता हुआ विमुग्ध प्रीतिभाव है आकाश के प्रति, तो हर भूमि हर आकाश के सम्मुख अपना अनुराग अभिव्यक्त करने की हकदार है । वही उसकी भूमिका होगी । प्रीत की रीत यही है । कभीकभार आकाश भी अपनी नीलाभ अलिप्तता छोड्कर धरती पर उतर आता है । जब धर्म की ग्लानि होती है और अधर्म का अभ्युत्थान होता है, जब वसुधा की संतान अपने ही तमस के बोझ के नीचे कराहने लगती है तब आकाश ओशो बनकर आ जाता है और धरा के आंसू पीकर, उसके अंधकार को तिरोहित कर अपनी किरणों से उसके ललाट पर प्रकाश गाथा लिख देता है ।
धर्मचक्र के जंग खाये हुए पुर्जों को चलायमान करनेवाले प्रत्येक युगपुरुष को प्रत्येक युग में यह कारज करना पड़ता है : पुरानी मदिरा को नये पात्र में ढालना होता है । समय की रफ्तार के साथ यदि पात्र को नहीं बदला गया तो समय न केवल उस पात्र के साथ बल्कि उसमें रखी हुई मदिरा के साथ भी दुर्व्यवहार करता है । मदिरा कितनी ही अभिजात क्यों न हो, उपेक्षा की गर्दिश में पड़ी रहती है । और इधर मस्तों के मयखाने तरसते रह जाते है ।
गोरखनाथ के सूत्र भी अब तक मुट्ठी भर जटाधारी नाथपंथियों की गुदड़ी के लाल बनकर पड़े हुए थे । ये सूत्र मनुष्य जीवन की अंतर्यात्रा के सूत्र है । इन अनमोल रत्नों को वाममार्ग, अघोरपंथ, तंत्र विद्या' इत्यादि नकारात्मक संज्ञाओं की आड़ में अभिशप्त जीवन बिताना पड़ रहा था । आधुनिक मनुष्य से ये मोतियों के वचन कट ही गये थे । जबकि इस बीसवीं सदी में मानव को इन सूत्रों की जितनी जरूरत है, शायद पहले कभी नहीं थी । बाह्य की खोज में वह अपने आपसे इतनी दूर चला गया है कि अब घर लौटने की राह ही भूल गया है । गोरखनाथ के सूत्र उसके रहगुजर बन सकते हैं।इनमें जीवन के रूपांतरण की सारी कुंजियां छिपी है ।
यह महसूस कर ओशो ने इन रत्नों को धरती की अंधियारी कोख से निकाला और इन्हें झाडुपोंछकर, तराशकर पुन: एक बार मनुष्य जीवन के केंद्र में लाकर खड़ा कर दिया । ओशो के प्रवचन गोरख वाणी की टीका नहीं है, वे एक नवीन सृजन है । वे कहते हैं, "गोरख खदान से निकला हुआ अनगढ हीरा हैं । मैं उन पर धार रख रहा हूं । जो भी सार्थक है, गोरख ने कह दिया है । आज हम एक बुनियाद के पत्थर की बात शुरू करते है । इस पर पूरा भवन खड़ा है भारत के संत साहित्य का ।"
कोई सत्य जब तक मनुष्य के हृदय में आकर नहीं धड़कता तब तक जीवंत नहीं कहलायेगा । उसके और मनुष्य के बीच कोई रिश्ता नहीं बन सकता । और मनुष्य के लिए और सत्य के लिए भी, यह आवश्यक है कि यह रिश्ता बने ताकि मनुष्य की खोयी हुई गरिमा उसे वापिस मिल जाये । इसलिए ओशो ने अपने प्रवचनों में इन प्राचीन सूत्रों को समसामयिक बनाने के कुछ खूबसूरत रास्ते अपनाये हैं । उनमें एक तो रास्ता यह कि उन्हें सीधे ही समकालीन कवियों के साथ जोड़ दिया । जैसे गोरख कहते हैं :
बसती न सुन्यं सुन्यं न बसती अगम अगोचर ऐसा ।
गगन सिषर महि बालक बोले ताका नांव धरहुगे कैसा । ।
ओशो इसकी व्याख्या करते हुए कहते हैं, "जब कोई अगम्य मे उतरने का साहस जुटा लेता है तब उसके सहस्रार से, उस शून्य से छोटे बच्चे की किलकारी सी पैदा होती है । नईनई, ताजीताजी, कुंआरी आवाज सुनाई पड़ती है । "
यहा तक तो बात सीधीसरल है । लेकिन इसके बाद ओशो अपना खास 'ओशो स्पर्श' देकर गोरख के अगम के अनुभव को एक समकालीन कवि के सुगम शब्दो के साथ जोड़ देते हैं
मेरे कान बजी वंशी धुन
घर आया मनचाहा पाहुन
छिटक गई हो जैसे जूही
मनप्राणों में महक महक कर
और अचानक जैसे जादू की की घूम जाती है । गोरखनाथ के वचन सारी दुरूहता खोकर हर व्यक्ति के प्राणों में जूही के फूल बनकर छिटक जाते हैं । समाधि का अनुभव इतना ही सहज मालूम होता है जैसे ऊंची मुंडेर से अपने आंगन में स्त्र आया एक श्वेत कबूतर हो । सहस्रार में गुंजायमान 'योगिनां दुर्लभ:' नाद हमारे आपके कानो में वंशी धुन सा बज उठता है । और धरती, आसमान को अपने बाजुओं में लेकर उड़ने का ख्वाब देखने लगती है । यह वासंती करिश्मा है ओशो का ।
सदियो से गोरखनाथ का अनुगमन कर रहे नाथ जोगियों ने कभी स्वप्न मे भी न सोचा होगा कि 'जप तप जोगी संजम सार' की शिक्षा देनेवाली गोरख वाणी महबूब के नाम जैसी, छलकते जाम जैसी, मुहब्बत सी नशीली चांदनी हो सकती है । कहां नाथपंथ के साधुओं का कठोर योग साधन और कहां मधुशाला का मदहोश रागरंग? लेकिन ओशो जैसे संपूर्ण योगी के लिए दो विपरीत ध्रुवो मे संगीत खोजना ऐसे ही सरल है जैसे निष्णात वीणा वादक दो कसे हुए तारों पर सुरीला राग बजाये । वे सहजता से कह देते हैं, "गोरख के सूत्र तुम्हारे जीवन को मधुशाला बना दे सकते हैं । गोरख के सूत्र तुम्हें परवाना बना दे सकते हैं । और ऐसा परवाना कि शम्मा न मिले तो तुम खुद शम्मा बन जाओ ।"
मैखाने बंद नहीं होते, मैखाने बंद नहीं होंगे।
खुद शमएयकीं बन जायेंगे हंसहंस कर जल जाने के लिए इस पुस्तक में, पुरानी शराब को नये पैमाने में ढालने की प्रक्रिया का एक और पहलू है जो शायद सतही निगाह से देखने पर खयाल में नहीं आये । सूत्रों के मौक्तिकों के साथ खोजियो के सीधेसादे, दैनंदिन जीवन से संबंधित प्रश्नों को गूंथ दिया गया है । वर्तमान मानव संस्कृति पूरी की पूरी प्रतिबिंबित हो रही है इस प्रश्नोत्तर चर्चा में । इन पृष्ठों में गोरखनाथ के साथ फ्रायड भी है और मार्क्स भी, रवींद्रनाथ भी हें और आइंस्टीन भी । कहीं पर मोरारजी देसाई का संदर्भ है तो कहीं बंबई से प्रकाशित साप्ताहिक करंट का उल्लेख है ।
कुल मिलाकर गोरखनाथ से लेकर ओशो तक मानव संस्कृति में बहुतबहुत आयामों में जो भी खिला है, उस सबका एक सहस्रदल कमल बना दिया है ओशो ने । ओशो की करांगुलि पकड़कर गोरख वाणी इक्कीसवीं सदी की देहलीज पर आकर खड़ी हो गई है । अब इसे कलि काल से आतंकित होने की जरूरत नहीं है ।
संत साहित्य का साहित्यिक मूल्यांकन करना कहा तक उचित होगा यह सवाल सर्वथा पृथक है । क्योंकि संत साहित्य संतों की कल्पना शक्ति की बौद्धिक उड़ान नहीं है, वरन उनके अकथनीय अनुभवों को शब्दों में ढालने का असंभव प्रयास है । जब उनकी खामोशी कुछ कह न सकी तो मजबूरन उन्हें शब्दों का सहारा लेना पड़ा है । फिर भी संत काव्य की उतुंगता से नाता जोडकर समस्त कवि कुल अपने गोत्र पर नाज कर सकता है । कवि इतना तो भरोसा कर ही सकते है कि कभी किसी अपार्थिव क्षण में हमारे शब्दों को भी पंख लग सकते हैं और हम उस सांचे सबद को अनुभव कर सकते हैं जिसे गोरख ने कहा है : सबद भया उजियाला ।
यह शायरी शायरी नहीं है
रज़ज़ की आवाज,
बादलों की गरज है
तूफान की सदा है!
ओशो ने ठीक ही कहा है, "गोरख जैसे व्यक्ति जब बोलते हैं तो यह रणभेरी की आवाज है । यह एक अंतर युद्ध के लिए पुकार है । जो खड्ग की धार पर चलने को राजी हो वे ही सिद्धों से दोस्ती कर सक्ते हैं ।"
अनुक्रम
1
हसिबा खेलिबा धरिबा ध्यानं
2
अज्ञात की पुकार
27
3
सहजै रहिबा
57
4
अदेखि देखिबा
85
5
मन मैं रहिणा
115
6
साधना : समझ का प्रतिफल
141
7
एकांत में रमो
169
8
आओ चांदनी को बिछाएं, ओढ़ें
199
9
सुधिबुधि का विचार
229
10
ध्यान का सुगमतम उपाय : संगीत
259
11
खोल मन के नयन देखो
289
12
इहि पस्सिको
317
13
मारिलै रे मन द्रोही
345
14
एक नया आकाश चाहिए
371
15
सिधां माखण खाया
399
16
नयन मधुकर आज मेरे
427
17
सबद भया उजियाला
457
18
उमड़ कर आ गए बादल
485
19
उनमनि रहिबा
515
20
सरल, तुम अनजान आए
543
ओशो एक परिचय
573
ओशो इंटरनेशनल मेडिटेशन रिजॉर्ट
574
ओशो का हिंदी साहित्य
576
अधिक जानकारी के लिए
581
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