प्राक्कथन
''एषु सर्वेषु भूतेषु गूढात्मा न प्रकाशते ।
दृश्यते त्वग्रया बुद्धधा सूक्ष्मया सूक्ष्मदर्शिभि : ।।'' ( १ । ३। १२)
-कठोपनिषद् इस अखिल
ब्रह्माण्ड के चराचर प्राणियों में, उस सर्वशक्तिमान् परमेश्वर की सत्ता व्यापक है-कोई वस्तु -अणु-के-अणु से लेकर सौरमण्डल के विशिष्ट- से-विशिष्ट तेजपिंड तक-ऐसी नहीं जिसमें भगवत् सत्ता न हो परन्तु महर्षि कठ ने अपने उपयुक्त वचनों में कहा है कि वह गूढ़ात्मा सब में समान रूप से प्रकाशित नहीं होता । उस सच्चिदानन्दघन की सत्ता, चेतना और आनन्द- कला अणोरणीयान् महतो महीयान्' सब में व्याप्त है-परन्तु प्रकाशित समान रूप से नहीं है । प्रस्तर में उतनी 'चेतना' नहीं है जितनी वृक्षों में और वृक्षों की अपेक्षा मनुष्य में अयिक चेतना है । चेतना की शास्त्रीय परिभाषा न कर सर्वबुद्धिगम्य यह परिभाषा सुगम होगी कि जितना 'क्रियात्मक' व्यापार- मन या इन्द्रियों का-इस चराचर जगत् में देखा जाता है-वह 'प्राण'-शक्ति पर आधारित होता है और उस प्राण-शक्ति का आधार 'चेतना' है । महर्षि चरक ने कहा है -
'सेन्द्रियं चेतनद्रव्यं निरिन्द्रियमचेतनम् ।'
अर्थात् जिन पदार्थो में इन्द्रियाँ कार्य करती हैं वे चेतन है जिनमें इन्द्रियाँ कार्य नहीं करतीं वे अचेतन हैं । इस व्यावहारिक परिभाषा के अनुसार प्रस्त- रादि निरिन्द्रिय होने से 'अचेतन' हुए । परन्तु वास्तव में गम्भीर दृष्टि से देखा जाय तो जो मनुष्य में जितनी 'क्रिया' है उतनी वृक्षों में नहीं-फिर भी वृक्ष बढ़ते हैं, उनमें कोमल अंकुर पैदा होते हैं, पुष्प खिलते हैं, फल उत्पन्न होते है, वृक्ष बड़े होते हैं, पुराने होते हैं और सूखकर मर जाते हैं ।
'अंत: संज्ञा भवन्त्येते सुख दुःख समन्विता: ।'
(मनुस्मृति) प्रतिक्षण उनमें कुछ-न-कुछ क्रिया होती रहती है । उसी प्रकार भूगर्भ-विज्ञान वेत्ता हमें बताते हैं कि ग्रह पत्थर दस हज़ार वर्ष पुराना है, यह एक लाख वाई पुराना और यह दस लाख वर्ष पुराना।
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