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श्रीमन्मध्वाचार्यजीका चरित्र एवं तत्त्वज्ञान- Shriman Madhvacharya Ji Ka Charitra Evam Tatvagnan

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(Written on the Basis of the Epic Sumadhvavijaya of Great Poet Shrinarayan Panditacharya)
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Item Code: HBD616
Author: Krishnacharya Pacchhapur
Publisher: VISHVA MADHWA MAHA PARISHAT
Language: Hindi
Edition: 2005
Pages: 484
Cover: HARDCOVER
Other Details 9x6 inch
Weight 750 gm
Fully insured
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100% Made in India
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23 years in business
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Book Description

प्रकाशक

भारतीय वैदिकतत्त्वज्ञान का प्रचार, सामाजिक उन्नति, आर्थिक संकटका परिहार तथा शैक्षणिक अभ्युदय इन उद्देशों से उत्तरादिमठाधीश जगदुरू श्री श्री सत्यात्मतीर्थ श्रीपादजी ने "विश्वमध्व महापरिषत्" नामकी एक बृहत् संस्थाकी संस्थापना की है। उस संस्थाके अनेक उद्देशोंमें तत्त्वज्ञान का प्रचार एक प्रमुख उद्देश है। इसके अनुसार माध्व वैष्णव संप्रदायमें अपना एक अत्यन्त श्रेष्ठ तथा विशिष्ट स्थान रखनेवाले, महाकवि श्री नारायण पंडिताचार्यजी के द्वारा रचित "सुमध्वविजय" महाकाव्य पर आधारित, वेदान्ताचार्य, हिन्दी साहित्य रत्न, पू. पंडित कृष्णाचार्य वासुदेवाचार्य पाच्छापूर (मुलुंड, मुंबई) द्वारा अब हिन्दी भाषामें लिखित "श्रीमन्मध्वाचार्यजीका चरित्र एवं तत्त्वज्ञान" नामक ग्रंथ श्री सत्यात्मतीर्थ स्वामिजी की आज्ञाके अनुसार हम "विश्व मध्व परिषत्" की ओरसे प्रकाशित कर रहे हैं।

इस ग्रंथ प्रकाशन के लिए अनुग्रह प्रदान करनेवाले श्रीसत्यात्मतीर्थ स्वामिजी को अनन्त प्रणाम। हिन्दी भाषामें अनुवाद कर देनेवाले पंडित कृष्णाचार्य पाच्छापूरजी को नमस्कार। ग्रंथके मुद्रण संशोधनकार्यमें सहायता करनेवाले पं. अश्वत्थामाचार्य माहुली, श्रीमान् राघवेंद्राचार्य पाच्छापूर, श्रीमान रा. अ. दिवाणजी तथा सुंदर टाईपसेटिंग के लिए श्रीमान् पंडित दीक्षित इन सबको विश्व मध्व महापरिषत् संस्था हार्दिक कृतज्ञताएँ समर्पण करती है।

प्राक्कथन

"स्नान करो, नाम लो" अन्य समस्त काव्यों की अपेक्षा सुमध्वविजय का विशिष्ट वैशिष्ट्य -

"सुमध्वविजयमहाकाव्य" का माध्व वैष्णव संप्रदाय में अपना एक अत्यंत श्रेष्ठ तथाविशिष्ट स्थान है। महाकाव्य के नामसे प्रसिद्ध होनेपर भी वह एक आध्यात्मिक ग्रंथ का स्थान पा चुका है। लौकिक संस्कृत भाषामें होने पर भी अपौरुषेय वेदमंत्रों का पावित्र्य पा सका है। "रघुवंश", "कुमारसंभव", "मेघदूत" आदि प्रसिद्ध काव्यों के समान जब चाहे तब, जहाँ चाहे वहाँ बैठकर, अथवा गद्दीपर या कुर्सीपर आराम से बैठकर पान चबाते हुए पढने योग्य नहीं है। स्नान करके, शुद्धवस्त्र धारण करके विशिष्ट आसनपर बैठकर भक्तिपूर्वक पाठ, पारायण प्रवचन आदि करने योग्य है यह महाकाव्य। इस महाकाव्य के बारेमें माध्ववैष्णवों के मनमें अत्यंत आदर तथा श्रद्धा है। अशुद्ध अवस्थामें इस महाकाव्य के नाम का उच्चारण करना भी अपराध समझा जाता है। इसके बारेमें परंपरासे एक लघु घटना को दृष्टांत के रूपमें पेश किया जाता है। एक बार एक सज्जन ने संस्कृत पाठशाला में पढनेवाले राह चलते एक वैष्णव ब्रह्मचारी से पूछा "आजकल तुम क्या पढ रहे हो ?" वहीं बाजूमें पानी से भरा छोटा सा कुँआ था। प्रश्न को सुनते ही वह छात्र छलाँग मारकर कुँओं में कूद पडा। बेचारा सज्जन घबरा गया। उसको पता नहीं चला कि छात्रने ऐसा क्यों किया ? वह देखते रह गया। थोडी देर के बाद वह छात्र कुँओं से बाहर आकर बोला "जी ! मैं आजकल सुमध्वविजय महाकाव्य पढ रहा हूँ।"

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