महात्मा गांधी के विचार: Thoughts of Mahatma Gandhi

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Item Code: NZD126
Publisher: National Book Trust, India
Author: आर.के.प्रभु और यू.आर.राव (R.K.Prabhu and U.R.Rao)
Language: Hindi
Edition: 2019
ISBN: 9788123709857
Pages: 565
Cover: Paperback
Other Details 8.5 inch X 5.5 inch
Weight 620 gm
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Book Description

प्राक्कथन

(प्रथम और द्वितीय अंग्रेजी संस्करणों का)

ऐसा कभी-कभी ही होता है कि सामान्य स्तर से ऊपर उठकर कोई असाधारण आत्मा, जिसने ईश्वर के विषय में अधिक गहराई से. चिंतन किया है, देवी हेतु का अधिक स्पष्टता के साथ प्रतिसंवेदन करती है और दैवी मार्गदर्शन के अनुरूप वीरतापूर्वक आचरण करती है । ऐसी महान आत्मा का आलोक अंधकारमय और अस्तव्यस्त संसार के लिए प्रखर संकेत-दीप का काम देता है। गांधीजी उन पैगंबरों में से हैं जिनमें हृदय का शौर्य, आत्मा का शील और निर्भीक व्यक्ति की हंसी के दर्शन होते हैं। उनका जीवन और उनके उपदेश उन मूल्यों के साक्षी हैं, जो राष्ट्रीय-अंतर्राष्टीय की सीमा से' परे सार्वभौम हें और जो युगों से इस देश की धरोहर रहे हैं-आत्मा में आस्था, उसके रहस्यों के प्रति आदर-भाव, पवित्रता में निहित सौंदर्य, जीवन के कर्तव्यों का स्वीकार, चरित्र की प्रामाणिकता।

ऐसे अनेक लोग हैं, जो गांधीजी को एक ऐसा पेशेवर राजनीतिज्ञ मानकर खारिज कर देते हैं, जो नाजुक मौकों पर अनाड़ी साबित होता रहा। एक मायने में, राजनीति एक पेशा है और राजनौतिज्ञ वह व्यक्ति है जो सार्वजनिक मामलों को कुशलतापूर्वक चलाने में दक्ष हो । एक दूसरे अर्थ में, राजनीति एक कर्तव्य है और राजनीतिज्ञ वह व्यक्ति है जो अपने देशवासियों की रक्षा करने, उन्हें ईश्वर के प्रति आस्था रखने और मानवता से प्रेम करने की प्रेरणा देना अपना जीवन-लक्ष्य मानता है और उसके प्रति पूरी तरह जागरूक रहता है । ऐसा राजनीतिज्ञ शासन के व्यावहारिक संचालन में असफल हो सकता है, लेकिन वह अपने साथियों के मन में अपने लक्ष्य के प्रति अजेय आस्था उत्पन्न करने में अवश्य सफल होता है । गांधी अत: इस द्वितीय अर्थ में ही राजनीतिज्ञ हैं । उन्हें इस बात का पक्का विश्वास है कि यदि हम आत्म-जगत में, अध्यात्म-लोक में अपने चित्त को दृढ़ रखें, तो हम निश्चय ही एक ऐसे संसार की रचना कर सकते हैं जिसमें न गरीबी होगी न बेरोजगारी और जिसमें युद्धों तथा रक्तपात के लिए भी कोई स्थान नहीं होगा । उनका कहना है 'कल की दुनिया, अहिंसा पर आधारित समाज होगी,-होनी चाहिए । यह एक दूरस्थ लक्ष्य, एक अव्यावहारिक 'यूटोपिया' मालूम हो सकता है लेकिन यह अप्राप्य कदापि नहीं है, क्योंकि इस पर आज ही और अभी से अमल किया जा सकता है । कोई भी व्यक्ति दूसरों की प्रतीक्षा किए बिना भावी संसार की जीवन-पद्धति को-अहिंसक पद्धति को-अपना सकता है । और यदि व्यक्ति ऐसा कर सकता है तो पूरे-पूरे व्यक्ति-समूह क्यों नहीं कर सकते? समूचे राष्ट्र क्यों नहीं कर सकते? लोग अक्सर शुरुआत करने से इसलिए हिचकते है कि उन्हें लगता है कि लक्ष्य को पूरी तरह प्राप्त नहीं किया जा सकेगा । हमारी यह मनोवृत्ति ही प्रगति के मार्ग की सबसे बड़ी रुकावट है-यह रुकावट ऐसी है जिसे हर आदमी, अगर वह चाहे तो, दूर कर सकता है ।"1

एक आम आलोचना यह है कि गांधीजी की दृष्टि उनके गृहीत ज्ञान से कहीं ऊंची उड़ान भरती है, कि वे इस सुगम किंतु भ्रांत धारणा को लेकर आगे बढ़ते हैं कि संसार सत्पुरुषों से भरा पड़ा है । यह वस्तुत: गांधी के विचारों का मिथ्याकथन है । वे अच्छी तरह समझते हैं कि जिंदगी ज्यादा-से-ज्यादा दूसरे दर्जे की जिंदगी होती है और हमें बराबर आदर्श तथा संभाव्य के बीच समझौता करते हुए चलना पड़ता है । स्वर्ग में कोई समझौता नहीं है, न कोई व्यावहारिक सीमाएं हैं लेकिन पृथ्वी पर तो हम प्रकृति के कूर नियमों से बंधे हैं । हमें मानवीय विकारों को स्वीकार करते हुए ही व्यवस्थित विश्व की रचना करनी है । बड़े प्रयास और कठिनाई से ही आदर्शों की सिद्धि हो पाती है । यह महसूस करते हुए भी कि सभ्य समाज का आदर्श अहिंसा ही है, गांधीजी हिंसा की अनुमति देते हैं । ''यदि व्यक्ति में साहस का अभाव हो तो में चाहूंगा कि वह खतरा सामने देखकर कायरों की तरह भाग खड़े होने के बजाए मारने और मरने की कला सीखे ।''2 ''दुनिया पूरी तरह तर्क के सहारे नहीं चलती । जीवन जीने की प्रक्रिया में ही कुछ--कुछ हिंसा होती ही है और हमें न्यूनतम हिंसा का रास्ता चुनना पड़ता है ।''3 समाजों की प्रगति के तीन चरण स्पष्टत: परिलक्षित हैं-पहलें चरण में जंगल का नियम चलता है जिसमें हिंसा और स्वार्थ का बोलबाला होता है; दूसरे चरण में विधि का नियम और अदालतों, पुलिस तथा कारागृहों सहित निष्पक्ष न्याय की व्यवस्था होती है; और तीसरा चरण वह है जिसमें अहिंसा और निस्वार्थ भाव का प्राधान्य होता है तथा प्रेम और विधि एक ही होते हैं । यह अंतिम चरण ही सभ्य मानवता का लक्ष्य है और गांधी जैसे लोगों का जीवन तथा कार्य हमें उसी के निकटतर ले जाते हैं ।

गांधी के विचारों और उनकी चिंतन-प्रक्रिया को लेकर आज बड़ी भ्रांतियां फैली हुई हैं । मुझे आशा है कि यह पुस्तक, जिसमें गांधी की आस्था और आचरण के केंद्रीय सिद्धांतों के विषय में उनके अपने ही लेखन से संगत उद्धरणों का संकलन किया गया है, आधुनिक व्यक्ति के मन में गांधी की स्थिति को सुस्पष्ट करने में सहायक सिद्ध होगी।

भूमिका

(संधोधित अंग्रेजी संस्करण की)

किसी महापुरुष का, उसके जीवन-काल में, मूल्यांकन करना अथवा इतिहास में उसके स्थान का निर्धारण करना, आसान काम नहीं है । गांधीजी ने एक बार कहा था ''सोलन को किसी व्यक्ति के जीवनकाल में, उसके सुख 'के विषय में निर्णय देने में कठिनाई अनुभव हुई थी; ऐसी सूरत में, मनुष्य की महानता के विषय में निर्णय देना तो और भी कितना कठिन काम हो सकता है?''1 एक अन्य अवसर पर, अपने बारे में बात करते हुए उन्होंने कहा था ''मेरी आखें मुंद जाने और इस काया के भस्मीभूत हो जाने के बाद, मेरे काम पर निर्णय देंने के लिए काफी समय शेप रह जाएगा ।''2 अब उनकी शहादत को उन्नीस बरस हो चुके हैं ।

उनकी मृत्यु पर सारी दुनिया ने ऐसा शोक मनाया जैसा मानव इतिहास में किसी अन्य मृत्यु पर नहीं मनाया गया था । जिस तरह उनकी मृत्यु हुई, उससे यह दुख और भी बढ़ गया था । जैसा कि किसी प्रेक्षक ने कहा था, उनकी हत्या की याद शताब्दियों तक ताजा रहेगी । सं. रा. अमरीका की 'हर्स्ट प्रेस' का मानना था कि लिंकन की ऐसी ही शहादत के बाद से मानव इतिहास में किसी अन्य मृत्यु का दुनिया पर इतना भावात्मक प्रभाव नहीं पड़ा । गांधीजी के बारे में भी यह कहना उचित ही होगा कि ''वे अब युगपुरुषों की कोटि में आ गए हैं ।'' उस अंधकारमय रात्रि को जवाहरलाल नेहरू द्वारा कहे गए अविस्मरणीय शब्द बरवस कानों में गज जाते हैं ''हमारे जीवन से एक ज्योति लुप्त हो गई है ।'' इसी भावना को रेखांकित करते हुए 'न्यूयार्क टाइम्स ने 31 जनवरी, 1948 को यह और जोड़ा था कि अब जो कुछ कहने के लिए बचा है, वह इतिहास के सूर हाथों लिखा जाएगा । प्रश्न यह है कि इतिहास गांधीजी के बारे में क्या फैसला देगा? यदि समसामयिक अभिमतों को महत्वपूर्ण मानें तो गांधीजी की गिनती मानव इतिहास के महानतम पुरुषों में की जाएगी । जहां ई. एम. फोर्स्टर की धारणा थी कि गांधी को संभवत: हमारी शताब्दी का महानतम व्यक्ति माना जाएगा, आर्नोल्ड टायनबी को दृढ़ विश्वास था कि ऐसा अवश्य होगा । डा. जे. एच. होम्स ने यह कहकर. कि ''गांधीजी गौतम बुद्ध के बाद महानतम भारतीय थे और ईसा मसीह के बाद महानतम व्यक्ति थे'' गांधीजी का और भी ठोस मूल्यांकन कर दिया था । लेकिन अपने देशवासियों के ह्दयों में तो वे संभवत: महात्मा के रूप में अंकित रहेंगे या फिर वे उन्हें और भी प्यार से बापू-'राष्ट्रपिता'-कहकर याद रखेंगे जिन्होंने एक रक्तहीन क्रांति के जरिए उन्हें विदेशी दासता से मुक्त कराया था ।

गांधीजी के वे कौन-से गुण हें जो महानता के अवयव हं ओं वे केवल एक महान व्यक्ति ही नहीं थे; वे महापुरुष और सत्पुरुष, दोनों थे-यह योग, जैसा कि एक आलोचक का कहना है, अत्यंत दुर्लभ है और लोग प्राय: इसका महत्व नहीं समझ पाते । इस संदर्भ में जार्ज बर्नाड शा के सारगर्भित शब्द याद आ जाते हैं ''बहुत अच्छा होना भी वड़ा खतरनाक है ।''

इतिहास इस बात को भी दर्ज करेगा कि इस छोटे-से दिखने वाले आदमी का अपने देशवासियों के ऊपर इतना जबर्दस्त प्रभाव था, कि उसकी मिसाल नहीं मिलती । यह आश्चर्य की ही बात है कि इस प्रभाव के पीछे कोई लौकिक शक्ति या अस्त्र-शस्त्रों का बल नहीं था । गांधी की इस गढ़ पहेली की कुंजी, यदि उसे पहेली मानें तो, लार्ड हैलीफैक्स के मतानुसार है-उनका श्रेष्ठ चरित्र और स्वयं को मिसाल के रूप में ररवने वाला उनका श्रेष्ठ आचरण । लार्ड हैलिफैक्स नमक सत्याग्रह के दिनों में वायसराय थे और उनके काफी नजदीक आये थे, जिससे कि वे उन्हें समझ सके थे । चरित्र और आचरण की इस शक्ति के द्वारा ही गांधीजी ने अपनी पीढ़ी के विचारों पर ऐसा गहरा असर डाला, न कि नीति-वचनों या उपदेशों-निर्देशों द्वारा । प्रो. एल. डब्ल्यू ग्रेंस्टेड की यह धारणा सचमुच सही है कि गांधीजी की महानता उनकी उपलब्धियों में नहीं अपितु उनके चरित्र में निहित थी । फिलिप नोएल-बेकर इसमें दो बातें और जोड़ना चाहते थे-प्रयोजन की शुद्धता (पवित्रता) और अपने ध्येय के प्रति निस्वार्थ समर्पण-भाव ।

लेकिन गांधीजी के अभूतपूर्व उत्कर्ष के पीछे केवल ये ही कारण नहीं थे । समसामयिक साक्ष्य को ही उद्धृत करें तो रेजिनाल्ड सोरेनसन का मानना था कि गांधीजी का मात्र भारत ही नहीं बल्कि हमारे पूरे आधुनिक युग पर जो अकूत प्रभाव था उसका कारण यह था कि वे आत्मा की शक्ति के साक्षी थे और उन्होंने उसका अपने राजनीतिक कार्यकलाप में इस्तेमाल करने का प्रयास किया था । गांधीजी की असाधारणता इसमें है' कि उन्होंने मानव आत्मा के प्रति अपनी आस्था पर और सांसारिक विषयों में आध्यात्मिक मूल्यों और तकनीकों को लागू करने पर पल दिया । डा. फ्रांसिस नीलसन इसी चीज की ओर इशारा करते हुए गांधीजी के विषय में कहते हैं : ''गांधीजी कर्म में डायोजीनिस, विनम्रता में सेंट फ्रांसिस और बुद्धिमानी में सुकरात थे; इन्हीं गुणों के बल पर गांधीजी नै दुनिया के सामने उजागर कर दिया कि अपने लक्ष्य की पूर्ति केर लिए ताकत का सहारा लेने वाले राजनेताओं के तरीके कितने क्षुद्र हैं । इस प्रतियोगिता में, राज्य की शक्तियों के भौतिक विरोध की तुलना में, आध्यामिक सत्यनिष्ठा विजयी होती है । ' ''

गांधीजी ने राज्य की संगठित शक्ति के मुकाबले पर अहिंसा और सत्य की पवित्र शक्ति को ला खड़ा किया था । और, उनकी जीत हुई थी । लेकिन उन्होंने अहिंसा और सत्य के जिस सिद्धांत का प्रचार और व्यवहार किया था, वह कोई नया दर्शन नहीं था । उन्होंने सचमुच यह स्वीकार कियां था, बल्कि दावा किया था, कि यह सिद्धांत 'उतना ही पुराना है जितने कि पर्वत' । उन्होंने तो इस दर्शन को केवल पुनर्जीवित किया था और उसका एक नये स्तर पर प्रयोग किया था । अपने इस विश्वास के अनुरूप कि सत्य एक जीता-जागता सिद्धांत है और वह संवर्धनशील है, अत: अपने सच्चे पुजारी के समक्ष नये-नये रूपों में उजागर होता है, उन्होंने अहिंसा के सिद्धांत के नये आयामों और नयी शक्तियों को खोजने में सफल होने का दावा किया था । यह ठीक है कि वह सिद्धांत सत्य के सिक्के का ही दूसरा पहलू था लेकिन इसी कारण, वह उससे अभिन्न था । गांधीजी ने सारी दुनिया में फैले अपने सहयोगियों के- मन में इस बात कौ बिठाना अपना जीवन-ध्येय मान लिया था कि व्यक्ति, समुदाय अथवा राष्ट्र के रूप में उन्हें तब तक चैन नहीं मिल सकता :जब तक वे अहिंसा और सत्य के मार्ग पर चलने का निश्चय नहीं कर लेते ।

एक आलोचक के अनुसार, राजनीति में इस मार्ग का अर्थ था-और है-एक आमूल क्रांति अर्थात समूचे व्यक्तिगत अथवा राजनीतिक जीवन में एक बदलाव, जिसके बिना कोई समाधान संभव नहीं । लेकिन, गांधीजी व्यक्तिगत और सार्वजनिक जीवन अर्थात मनुष्य के अंतरंग और बहिरंग जीवन के बीच किसी भेदक दीवार के अस्तित्व को स्वीकार नहीं करते थे । इस अर्थ में वे विश्व के अधिकांश राजनीतिज्ञों और राजनेताओं से बिलकुल अलग थे । और, इसी में उनकी शक्ति का रहस्य छिपा था।

गांधीजी ने स्वयं कहा था कि उनके पास जो भी शक्ति अथवा प्रभाव है वह धर्म से उद्भूत है । स्टेफोर्ड क्रिप्स के मन में शायद यही बात थी जब उन्होंने कहा था कि हमारे जमाने में सारी दुनिया के अंदर गांधीजी से बड़ा आध्यात्मिक नेता पैदा नहीं हुआ । गांधीजी के व्यक्तित्व के इसी पक्ष को सार रूप में प्रस्तुत करते हुए 'मानचेस्टर गार्जियन' ने 31 जनवरी 1948 को लिखा था : ''सबसे बढ़कर, वे ऐसे व्यक्ति थे जिन्होंने धर्म के अर्थ और उसके मूल्य के विषय में हमारी धारणा को पुनरुज्जीवित किया और उसे स्फूर्ति प्रदान की । यद्यपि वे एक ऐसी सर्वसमावेशी प्रज्ञा अथवा भावात्मक संपत्ति के धनी नहीं थे कि किसी नये दर्शन या नये धर्म को जन्म दे पाते लेकिन उनकी नैतिक प्रवृत्ति की शक्ति और शुद्धता स्पष्ट रूप से उनकी गहरी धार्मिक भावनाओं से उत्पन्न हुई थीं....''

आज दुनिया निश्चित रूप से विनाश के कगार पर खड़ी है जिससे उसकी रक्षा करना काफी कठिन दिखाई दे रहा है । इसके कारण हैं : सतत वैचारिक संघर्ष, विकट जातीय द्वेष जिनके परिणामस्वरूप ऐसे युद्ध छिड़ सकते हैं जिनकी मिसाल इतिहास में नहीं मिलेगी, और परमाणु अस्त्रों की संख्या में अंधाधुंध वृद्धि का बराबर बना हुआ खतरा जिससे अकल्पनीय विनाश की नौबत आ सकती है । ऐसी सूरत में, मानव जाति को अपनी अस्तित्व-रक्षा के लिए दो में से एक बल को चुनना है-नैतिक बल अथवा भौतिक बल । भौतिक बल मानव जाति को आत्मसंहार की ओर ले जा रहा है । गांधीजी हमें दूसरी दिशा में जाने का संकेत करते हैं क्योंकि वे नैतिक बल की प्रतिमूर्ति हैं । आप कह सकते हैं कि यह कोई नयी दिशा नहीं है । पर यह वह दिशा अवश्य है जिसे दुनिया या तो भूल गई हे या जिस पर चलने का साहस नहीं कर पाती । लेकिन अब इस दिशा की उपेक्षा करने से उसका अपना अस्तित्व ही खतरे में पड़ जाएगा ।

इस पुस्तक में गांधीजी अपने ही शब्दों में अपना पक्ष प्रस्तुत करते हैं; यहां उनके और पाठकों के बीच में कोई व्याख्याकार नहीं है, चूंकि उसकी आवश्यकता ही नहीं है । पश्चिम के लोगों को कभी-कभी गांधीजी को समझने में कठिनाई होती है । उदाहरण के लिए, होरेस एजेक्जेडर की टिप्पणी देखें जिसमें उन्होंने बताया है कि गांधीजी के गहन पराभौतिक तर्कों को पकड़ने में एंग्लो-सैक्सन बुद्धि कहीं-कहीं बहुत चकरा जाती है । इस पुस्तक में नैतिक, सामाजिक, राजनीतिक और आध्यात्मिक विषयों पर गांधीजी के विचारों को समझने के लिए आधारभूत सामग्री उपलब्ध की गई है । हां, मनोविज्ञान के प्रबुद्ध विद्यार्थी को संभवत: गांधीजी की प्रेरणा और आचरण के मूल स्रोतों का गहराई से अध्ययन करना होगा । उसके लिए वर्तमान पुस्तक एक स्रोत-संदर्भ का ही काम दे सकती है ।

वर्तमान संशोधित एवं परिवर्धित संस्करण पिछले संस्करणों से बीस वर्ष से भी अधिक समय के बाद प्रकाशित हो रहा है । इसमें वह सामग्री समाविष्ट है जो पिछले संस्करणों में शामिल नहीं हो सकती थी : अपने निर्णायक अंतिम वर्षों 1946-48 में गांधीजी के विचार और दर्शन, जब वे जाति, पंथ, दल, यहां तक कि देश से भी ऊपर उठकर मानव आत्मा की लोकोत्तर ऊंचाइयों को छू गए थे । तब वे सचमुच संपूर्ण मानवता के हो गए थे । इन वर्षों में, जिनकी परिणति उनकी शहादत में हुई, वे मानव धर्म का ही प्रचार और व्यवहार करने लगे थे, क्योंकि केवल वही मानवता के अस्तित्व की रक्षा करने में समर्थ है । इसी कारण उन अंतिम वर्षों में उनके द्वारा व्यक्त विचार और अभिमत हमारे और भावी पीढ़ियों के लिए पवित्र हैं और विदाई-भाषण की-सी परिपक्वता और निश्चयात्मकता सै सम्पन्न हैं । उनके समग्र बोध-जगत को समझने के लिए ये अपरिहार्य हैं । वर्तमान पुस्तक में इस सामग्री का समावेश करने के लिए हमें कई नये अध्याय जोड़ने पड़े हैं और गत संस्करणों के कुछ अध्यायों का कलेवर बढ़ाना पडा है ।

इसके अतिरिक्त पिछले संस्करणों में एक दोष यह था कि उनमे विशुद्ध रूप से भारतीय समस्याओं पर गांधीजी के विचार प्राय: समाविष्ट नहीं हो पाए थे । इसका एक कारण स्थानाभाव और दूसरा, विदेशी पाठकों की आवश्यकता को ध्यान में रखना था । गांधीजी के व्यक्तित्व और उनकी दृष्टि को पूरी तरह समझने के लिए इस दोष को टूर करना आवश्यक था । उनकी धारणा थी कि भारत के पास विश्व को देने के लिए एक संदेश है और वे चाहते थे कि भारत, एक साथ, उनके दर्शन का टृष्टांत और व्याख्याता बन जाए । उनके सपने के इस भारत के दर्शन पाठक एक प्राय: नये अनुभाग 'स्वतंत्रता और लोकतंत्र' में कर सकेंगे । पुस्तक के अभिप्राय और प्रयोजन की बेहतर पूर्ति के लिए सामग्री का उल्लेखनीय पुनस्संगठन और पुनर्विन्यास भी किया गया है ।

इस पुस्तक की तैयारी में जिन-जिन पुस्तकों और पत्र-पत्रिकाओं से सामग्री संकलित की गई है, उन सभी के प्रकाशकों के प्रति संकलनकर्ता अपना हार्दिक आभार प्रकट करते हैं । इस नये संस्करण के लिए आचार्य विनोबा भाव ने बड़ा ही महत्वपूर्ण प्राक्कथन लिखा है जिसके लिए हम उनके अत्यत कृतज्ञ है । एक व्यक्तिगत बात और कहनी है । पाठक देखेंगे कि इस भूमिका के नीचे केवल एक ही संकलनकर्ता के हस्ताक्षर है । कारण यह है कि मेरे दूसरे साथी अब इस दुनिया में नहीं हैं । गांधीजी के उपदेशों के आजीवन अध्येता और प्रामाणिक व्याख्याता तथा मुझ समेत अनेक लोगों के मित्र एवं मार्गदर्शक श्री आर. के. प्रभु को 4 जनवरी को निधन हो गया । यह दुखद घटना नये संस्करण की भूमिका लिखे जाने तथा पुस्तक के प्रकाशन से पूर्व ही घट गई । इसलिए यहां जो कुछ लिखा गया है, उसकी जिम्मेदारी अब केवल मेरी है; इसी प्रकार जो कहा जाना चाहिए था, पर कहने से रह गया है, उसके लिए मैं ही दोषी हूं । किंतु मेरी जिम्मेदारी तथा दोष कुछ सीमा तक इसलिए कम माना जा सकता है कि प्रभु अपने अंतिम दिन तक मुझे बराबर पत्र लिखकर अपने पांडित्यपूर्ण विचारों से लाभान्वित करते रहे ।

मुझे तीस वर्ष तक प्रभु की मित्रता का सौभाग्य प्राप्त रहा और इस दौरान काफी समय मैंने उनके साथ सक्रिय सहयोगी के रूप में काम किया । इसलिए मैं उनकी जितनी भी प्रशंसा करूं, मेरी दृष्टि में कम ही होगी; और इसी कारण मैं उनके बारे में जो भी कहूं पाठक उसे पूर्णतया निष्पक्ष नहीं मानेंगे ।

प्रभु एक 'विशाल' गांधी परियोजना के उद्भावक थे जिसके तहत गांधीजी कै विचारो और दर्शन पर इस समेत कई खंडों की रचना की जानी थी । हम अपने संयुक्त प्रयासों से, इनमें से केवल तीन ही खंड तैयार कर सके । सौभाग्यवश, प्रभु ने स्वयं ही कर्ट छोटे-बड़े ग्रंथ तैयार कर दिए जो सभी नवजीवन द्वारा प्रकाशित हुए हैं । गांधी वाड्मय का कोई गंभीर अध्येता ही प्रभु के योगदान का मूल्यांकन कर सकेगा । मुझे तो उनसे मिली प्रेरणा, नेतृत्व और साहचर्य के लिए उनके ऋण को स्वीकार करके ही संतोष मान लेना होगा ।

पर, मैं यहां गांधी-संकलनों के क्षेत्र मे प्रभु के स्थान के विषय में दो बडी विशिष्ट एवं अनभ्यर्थित टिप्पणियों का उल्लेख करना चाहूंगा । पहली टिप्पणी स्वयं गांधीजी की है जो उन्होंने प्राकृतिक चिकित्सा केंद्र, पूना में 27 जून, 1944 को हम दोनों के साथ एक अविस्मरणीय साक्षात्कार के दौरान दी थी । उन्होंने कहा था : ''प्रभु, तुम मेरे लेखन को भावना से ओतप्रोत हो ।''दूसरी टिप्पणी गांधीजी के प्रसिद्ध दार्शनिक-व्याख्याता डा. सर्वपल्ली राधाकृष्णन की है जो उन्होने प्रभुके निधन पर भेजे गए अपने व्यक्तिगत शोक-संदेश में दी थी: ''गांधीजी पर किए गए उनके काम का प्रकाशन हम सभी के लिए उनके जीवन के मुख्य ध्येय की अच्छी यादगार साबित होगा ।''

 

विषय सूची

 

प्राक्थन

तेरह

 

भूमिका

सत्रह

 

पाठकों से

सत्ताईस

1

अपने बारे में

1-36

2

सत्य

39-51

3

अभय

55

4

आस्था

58-99

5

अहिंसा

104-151

6

सत्याग्रह

154-174

7

अपरिग्रह

177-186

8

श्रम

188-211

9

सर्वोदय

213-243

10

न्यासिता

246-255

11

ब्रह्मचार्य

261-291

12

स्वत्रता और लोकतंत्र

299-382

13

स्वदेशी

388-394

14

भाईचारा

401-443

15

प्रासंगिक विचार

484-527

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