पुरोवाक्
प्रस्तुत ग्रन्थ भारतीय काव्यशास्त्र का संक्षिप्त इतिहास प्रस्तुत करने की 'दिशा में लघु प्रयास है। इसमें मस्त से लेकर विश्वेश्वर पण्डित तक संस्कृत काव्यालोचन की विचार-सरणि का विश्लेषण किया गया है। प्रारम्भ में संस्कृत काव्यशास्र के नामकरण एवं उसके आरम्भिक विकारा पर विचार किया गया है, तदनन्तर भरत से लेकर अन्तिम प्रौढ़ आचार्य विश्वेश्वर पण्डित पर्यन्त प्राय: सभी प्रमुख आचार्यों के मत का पूर्ण परिचय प्रस्तुत है। संस्कृत में समीक्षाशास्र या साहित्यशाख की विशाल परम्परा रही है जो वैदिक युग से प्रारम्भ हो जाती है। यद्यपि उस युग में इसका स्वरूप इतना स्पष्ट नहीं था तथापि इसके पर्याप्त उदाहरण विभिन्न ग्रन्थों में उपलब्ध होते है। मत्त के पूर्व, संस्कृत में निश्चय ही, अनेक आचार्य या काव्यसास्त्री उत्पत्र हुए होंगे पर उनके ग्रन्थ अधुना अनुपलब्ध है। भरत के 'नामशास्र' के अध्ययन से और राजशेखर द्वारा वर्णित अष्टादश शाखों के विभिन्न प्रणेताओं के आधार पर इसकी प्राक् भारतीय विशाल परम्परा का संकेत प्राप्त होता है, पर उन ग्रन्थों की अनुपलब्धि हमारे लिए चिन्ता की बात है ।
इस ग्रन्थ में अध्यावधि उपलब्ध सामग्री के आधार पर भारतीय काव्यशास्र की रूपरेखा प्रस्तुत की गयी है ओंर प्रत्येक आचार्य के ग्रन्थ का पूर्ण परिचय देकर उनके टीकाकारों एवं हिन्दी अनुवादों का भी संकेत किया गया है। इस इतिहास में प्रत्येक आचार्य की काव्यागस्रीय चिंतना का पूर्ण एवं प्रामाणिक विवेचन प्रस्तुत कर मूल स्रोतों से उसकी पुष्टि की गयी है। ग्रन्थ को यथासंभव पूर्ण बनाने का प्रयास किया गया है किन्तु लेखक इसका दावा नहीं कर सकता । अपनी सीमा में उसने विषय का विवेचन किया है, सभी पूर्णता एवं अपूर्णता का निर्णय तो पाठकवर्ग ही करेगा । इस ग्रन्थ में आचार्यों के जीवन वृत एवं तिथि-निर्णय के सम्बन्ध में अधिक विचार न कर पूर्वनिर्धारित तथ्ग्रों को ही स्वीकार कर लिया गया है, पर इसका यह अर्थ नहीं कि लेखक की उन निष्कर्षो के प्रति पूर्ण आस्था है। संस्कृत के लेखकों के तिथि-निर्णय एवं काल-निर्घारण अभी तक उतने प्रामाणिक नहीं है और पाश्चात्य विद्वानों ने एक विशेष दृष्टि से इस विषय का विवेचन किया है। भारतीय पण्डित भी इस क्षेत्र में विशेष परिश्रम या अनुसन्धान न कर उनके ही निर्णयों को किसी-न-किसी रूप में स्वीकार कर लेते हैं । अत: इस क्षेत्र में व्यापक अध्ययन एवं अनुशीलन की आवश्यकता है। लेखक भारतीय काव्यशास्र का वृहद् इतिहास प्रस्तुत करने और तव सम्बन्धी अनेक भ्रान्तियोंके के निराकरण के लिए कार्यरत है जो समय से प्रकाशित होगा । अत: विचार आया कि भारतीय आलोचना की परम्परा का संक्षिप्त निदर्शन करते हुए एक लघु ग्रन्थ का निर्माण किया जाय जिसकी परिणति प्रस्तुत ग्रन्थ में हुई है। निर्माणाधीन ग्रन्थ में भारतीय आलोचना के प्रेरक तत्त्वों मान्यताओं एवं दार्शनिक पीठिकाओं का विस्तृत विवेचन होगा ।
भारतीय साहित्य अपनी दार्शनिक गरिमा के कारण शाश्वत सौन्दर्य का वाहक बना है। यहाँ सौन्दर्यशास्त्र का विवेचन स्वतन्त्र रूप से न होकर शैवागमों एवं काव्यशास्र के अन्तर्गत किया गया है। भारतीय काव्यशास्र ही भारतीय सौन्दर्य-चिंतन का महनीय रूप प्रस्तुत करता है जो अत्यन्त प्रौढ़ एवं व्यावहारिक है। भारतीय सौन्दर्यशास्र के तीन पक्ष प्रधान है वाग्वैचित्र्य, भावैभव एवं कल्पना और तीनों की पूर्ण परिणति क्रमश: अलंकार, रस एवं ध्वनि में होती है। वस्तुत: ये ही तीन सिद्धान्त ही भारतीय काव्यालोचन के तीन विचार-स्तम्भ है जिनमें सार्वभौम एवं सार्वकालिक काव्य-सिद्धान्त बनने की पूर्ण क्षमता है ।
यहाँ पर इन बिषयों का वर्णन न कर तत्तत् विंषयों से सम्बद्ध विभिन्न विचारकों के मत का आकलन किया गया है। अलंकारों का ऐतिहासिक एवं सैदान्तिक विश्लेषण लेखक की प्रकाश्यमान रचना 'अलंकारानुशीलन' एवं उसके सोप प्रबन्ध अलंकारों का ऐतिहासिक विकास : भरत से पद्माकर तक में, है। रस की दार्शनिक, मनोवैज्ञानिक भूमियों एवं उसके सामाजिक तथा सौन्दर्य-शास्रीय पक्षों का उद्दघाटन करते हुए भरत से लेकर आधुनिक युग तक रस-मीमांसा को ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में देखने का प्रयास लेखक कर रहा हे जो 'रस-मीमांसा' के रूप में प्रकट होगा। अतः लेखक इस ग्रन्थ में संस्कृत काव्यालोचन की विचारधारा का संक्षिप्त विवेचन प्रस्तुत कर भविष्य के कार्यों के प्रति सचेष्ट है। आशा है, हस ग्रन्थ के प्रणयन से सस्कृत आलोचकों के विचार हिन्दी पाठकों को स्पष्ट एवं प्रामाणिक रूप में प्राप्त हो सकेंगे ।
इस ग्रन्थ के लेखन में अनेक लेखकों एवं विद्वानों के ग्रन्थों एवं विचारों का प्रभाव है जिनके प्रति लेखक नतमस्तक है। उनकी नामावली अत्यन्त विस्तृत है अत: मौन प्रणति निवेदन करने कं अतिरिक्त कोई अन्य उपाय नहीं है। हिन्दी एवं अंगरेजी में प्रणीत भारतीय समीक्षा-विषयक सभी ग्रन्थों, मूल पुस्तकों की भूमिकाओं एवं उनके हिन्दी भाष्यों से प्रभूत सहायता प्राप्त हुई है अतः मैं उनका कृतज्ञ हूँ। सहायक ग्रन्थ-सूची में उन सभी स्रोतों का नामोल्लेख है। यह ग्रन्थ हमारे दो स्वर्गस्थ गुरुवरों को समर्पित है जिनके चरणों में बैठ कर लेखक ने काव्थशास्त्र एवं काव्य-विषयक अन्ये तथ्यों का अध्ययन किया था । प्रकाशक महोदय की उदारता के कारण ही यह पुस्तक हिन्दी (संसार के समक्ष उपस्थित हुई है अत: उनका आभारी हूँ । अन्त में उन सभी गुरुओं के प्रति प्रणति निवेदन करता हूँ जिनके चरणों में बैठ कर मैंने भारतीय काव्यशास्र का अध्ययन किया है। वे हैं-आचार्य डॉ० विश्वनाथ प्रसार मिश्र, आचार्य देवेन्द्रनाथ शर्मा (अध्यक्ष हिन्दी विमान, पटना विश्वविद्यालय), थी बनारसीलाल जी 'काशी' एवं आचार्य नित्यानन्द पाठक। चौखम्बा संस्कृत सीरीज तथा चौखम्बा विद्याभवन, वाराणसी के अघिकारी वर्गों ने बड़े ही उत्साह के साथ इस ग्रन्थ का प्रकाशन लिया है अतः लेखक उनका विशेष आभारी है ।
विषय-सूची |
||
काव्यशास्त्र का नामकरण |
3 |
|
काव्यशास्त्र का प्रारम्भ |
5 |
|
1 |
भरत |
8 |
2 |
आचार्य भामह |
20 |
3 |
आचार्य दण्डी |
29 |
4 |
उद्भट |
37 |
5 |
वामन |
40 |
6 |
रुद्रट |
47 |
7 |
रुद्रभट्ट |
59 |
8 |
आनन्दवर्द्धन |
61 |
9 |
राजशेखर |
71 |
10 |
मुकुल भट्ट |
81 |
11 |
भरत रससूत्र के व्याख्याता |
81 |
12 |
भट्टलोल्लट का उत्पत्तिवाद |
82 |
13 |
श्रीशंकुक का अनुमितिवाद |
83 |
14 |
भट्टनायक |
84 |
15 |
भट्टतौत |
86 |
16 |
अभिनवगुप्त |
87 |
17 |
धनंजय |
91 |
18 |
आचार्य कुंतक |
95 |
19 |
महिमभट्ट |
99 |
20 |
क्षेमेंन्द्र |
102 |
21 |
महाराज भोज |
105 |
22 |
आचार्य मम्मट |
108 |
23 |
अग्निपुराण |
112 |
24 |
सागरनन्दी |
115 |
25 |
राजानक रुय्यक |
116 |
26 |
शोभाकर मित्र |
118 |
27 |
हेमचन्द्र |
118 |
28 |
रामचन्द्र गुणचन्द्र |
119 |
29 |
वाग्भट |
120 |
30 |
वाग्भट द्वितीय |
120 |
31 |
जयदेव |
120 |
32 |
विद्याधर |
122 |
33 |
विद्यानाथ |
122 |
34 |
महापात्र विश्वनाथ |
123 |
35 |
केशव मिश्र |
128 |
36 |
शारदातनय |
129 |
37 |
शिङ्गभूपाल |
130 |
38 |
भानुदत्त |
131 |
39 |
रूपगोस्वामी |
134 |
40 |
अप्पय दीक्षित |
136 |
41 |
पण्डितराज जगग्राथ |
138 |
42 |
विश्वेश्वर पण्डित |
141 |
सहायक ग्रन्थों की सूची |
143 |
पुरोवाक्
प्रस्तुत ग्रन्थ भारतीय काव्यशास्त्र का संक्षिप्त इतिहास प्रस्तुत करने की 'दिशा में लघु प्रयास है। इसमें मस्त से लेकर विश्वेश्वर पण्डित तक संस्कृत काव्यालोचन की विचार-सरणि का विश्लेषण किया गया है। प्रारम्भ में संस्कृत काव्यशास्र के नामकरण एवं उसके आरम्भिक विकारा पर विचार किया गया है, तदनन्तर भरत से लेकर अन्तिम प्रौढ़ आचार्य विश्वेश्वर पण्डित पर्यन्त प्राय: सभी प्रमुख आचार्यों के मत का पूर्ण परिचय प्रस्तुत है। संस्कृत में समीक्षाशास्र या साहित्यशाख की विशाल परम्परा रही है जो वैदिक युग से प्रारम्भ हो जाती है। यद्यपि उस युग में इसका स्वरूप इतना स्पष्ट नहीं था तथापि इसके पर्याप्त उदाहरण विभिन्न ग्रन्थों में उपलब्ध होते है। मत्त के पूर्व, संस्कृत में निश्चय ही, अनेक आचार्य या काव्यसास्त्री उत्पत्र हुए होंगे पर उनके ग्रन्थ अधुना अनुपलब्ध है। भरत के 'नामशास्र' के अध्ययन से और राजशेखर द्वारा वर्णित अष्टादश शाखों के विभिन्न प्रणेताओं के आधार पर इसकी प्राक् भारतीय विशाल परम्परा का संकेत प्राप्त होता है, पर उन ग्रन्थों की अनुपलब्धि हमारे लिए चिन्ता की बात है ।
इस ग्रन्थ में अध्यावधि उपलब्ध सामग्री के आधार पर भारतीय काव्यशास्र की रूपरेखा प्रस्तुत की गयी है ओंर प्रत्येक आचार्य के ग्रन्थ का पूर्ण परिचय देकर उनके टीकाकारों एवं हिन्दी अनुवादों का भी संकेत किया गया है। इस इतिहास में प्रत्येक आचार्य की काव्यागस्रीय चिंतना का पूर्ण एवं प्रामाणिक विवेचन प्रस्तुत कर मूल स्रोतों से उसकी पुष्टि की गयी है। ग्रन्थ को यथासंभव पूर्ण बनाने का प्रयास किया गया है किन्तु लेखक इसका दावा नहीं कर सकता । अपनी सीमा में उसने विषय का विवेचन किया है, सभी पूर्णता एवं अपूर्णता का निर्णय तो पाठकवर्ग ही करेगा । इस ग्रन्थ में आचार्यों के जीवन वृत एवं तिथि-निर्णय के सम्बन्ध में अधिक विचार न कर पूर्वनिर्धारित तथ्ग्रों को ही स्वीकार कर लिया गया है, पर इसका यह अर्थ नहीं कि लेखक की उन निष्कर्षो के प्रति पूर्ण आस्था है। संस्कृत के लेखकों के तिथि-निर्णय एवं काल-निर्घारण अभी तक उतने प्रामाणिक नहीं है और पाश्चात्य विद्वानों ने एक विशेष दृष्टि से इस विषय का विवेचन किया है। भारतीय पण्डित भी इस क्षेत्र में विशेष परिश्रम या अनुसन्धान न कर उनके ही निर्णयों को किसी-न-किसी रूप में स्वीकार कर लेते हैं । अत: इस क्षेत्र में व्यापक अध्ययन एवं अनुशीलन की आवश्यकता है। लेखक भारतीय काव्यशास्र का वृहद् इतिहास प्रस्तुत करने और तव सम्बन्धी अनेक भ्रान्तियोंके के निराकरण के लिए कार्यरत है जो समय से प्रकाशित होगा । अत: विचार आया कि भारतीय आलोचना की परम्परा का संक्षिप्त निदर्शन करते हुए एक लघु ग्रन्थ का निर्माण किया जाय जिसकी परिणति प्रस्तुत ग्रन्थ में हुई है। निर्माणाधीन ग्रन्थ में भारतीय आलोचना के प्रेरक तत्त्वों मान्यताओं एवं दार्शनिक पीठिकाओं का विस्तृत विवेचन होगा ।
भारतीय साहित्य अपनी दार्शनिक गरिमा के कारण शाश्वत सौन्दर्य का वाहक बना है। यहाँ सौन्दर्यशास्त्र का विवेचन स्वतन्त्र रूप से न होकर शैवागमों एवं काव्यशास्र के अन्तर्गत किया गया है। भारतीय काव्यशास्र ही भारतीय सौन्दर्य-चिंतन का महनीय रूप प्रस्तुत करता है जो अत्यन्त प्रौढ़ एवं व्यावहारिक है। भारतीय सौन्दर्यशास्र के तीन पक्ष प्रधान है वाग्वैचित्र्य, भावैभव एवं कल्पना और तीनों की पूर्ण परिणति क्रमश: अलंकार, रस एवं ध्वनि में होती है। वस्तुत: ये ही तीन सिद्धान्त ही भारतीय काव्यालोचन के तीन विचार-स्तम्भ है जिनमें सार्वभौम एवं सार्वकालिक काव्य-सिद्धान्त बनने की पूर्ण क्षमता है ।
यहाँ पर इन बिषयों का वर्णन न कर तत्तत् विंषयों से सम्बद्ध विभिन्न विचारकों के मत का आकलन किया गया है। अलंकारों का ऐतिहासिक एवं सैदान्तिक विश्लेषण लेखक की प्रकाश्यमान रचना 'अलंकारानुशीलन' एवं उसके सोप प्रबन्ध अलंकारों का ऐतिहासिक विकास : भरत से पद्माकर तक में, है। रस की दार्शनिक, मनोवैज्ञानिक भूमियों एवं उसके सामाजिक तथा सौन्दर्य-शास्रीय पक्षों का उद्दघाटन करते हुए भरत से लेकर आधुनिक युग तक रस-मीमांसा को ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में देखने का प्रयास लेखक कर रहा हे जो 'रस-मीमांसा' के रूप में प्रकट होगा। अतः लेखक इस ग्रन्थ में संस्कृत काव्यालोचन की विचारधारा का संक्षिप्त विवेचन प्रस्तुत कर भविष्य के कार्यों के प्रति सचेष्ट है। आशा है, हस ग्रन्थ के प्रणयन से सस्कृत आलोचकों के विचार हिन्दी पाठकों को स्पष्ट एवं प्रामाणिक रूप में प्राप्त हो सकेंगे ।
इस ग्रन्थ के लेखन में अनेक लेखकों एवं विद्वानों के ग्रन्थों एवं विचारों का प्रभाव है जिनके प्रति लेखक नतमस्तक है। उनकी नामावली अत्यन्त विस्तृत है अत: मौन प्रणति निवेदन करने कं अतिरिक्त कोई अन्य उपाय नहीं है। हिन्दी एवं अंगरेजी में प्रणीत भारतीय समीक्षा-विषयक सभी ग्रन्थों, मूल पुस्तकों की भूमिकाओं एवं उनके हिन्दी भाष्यों से प्रभूत सहायता प्राप्त हुई है अतः मैं उनका कृतज्ञ हूँ। सहायक ग्रन्थ-सूची में उन सभी स्रोतों का नामोल्लेख है। यह ग्रन्थ हमारे दो स्वर्गस्थ गुरुवरों को समर्पित है जिनके चरणों में बैठ कर लेखक ने काव्थशास्त्र एवं काव्य-विषयक अन्ये तथ्यों का अध्ययन किया था । प्रकाशक महोदय की उदारता के कारण ही यह पुस्तक हिन्दी (संसार के समक्ष उपस्थित हुई है अत: उनका आभारी हूँ । अन्त में उन सभी गुरुओं के प्रति प्रणति निवेदन करता हूँ जिनके चरणों में बैठ कर मैंने भारतीय काव्यशास्र का अध्ययन किया है। वे हैं-आचार्य डॉ० विश्वनाथ प्रसार मिश्र, आचार्य देवेन्द्रनाथ शर्मा (अध्यक्ष हिन्दी विमान, पटना विश्वविद्यालय), थी बनारसीलाल जी 'काशी' एवं आचार्य नित्यानन्द पाठक। चौखम्बा संस्कृत सीरीज तथा चौखम्बा विद्याभवन, वाराणसी के अघिकारी वर्गों ने बड़े ही उत्साह के साथ इस ग्रन्थ का प्रकाशन लिया है अतः लेखक उनका विशेष आभारी है ।
विषय-सूची |
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काव्यशास्त्र का नामकरण |
3 |
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काव्यशास्त्र का प्रारम्भ |
5 |
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1 |
भरत |
8 |
2 |
आचार्य भामह |
20 |
3 |
आचार्य दण्डी |
29 |
4 |
उद्भट |
37 |
5 |
वामन |
40 |
6 |
रुद्रट |
47 |
7 |
रुद्रभट्ट |
59 |
8 |
आनन्दवर्द्धन |
61 |
9 |
राजशेखर |
71 |
10 |
मुकुल भट्ट |
81 |
11 |
भरत रससूत्र के व्याख्याता |
81 |
12 |
भट्टलोल्लट का उत्पत्तिवाद |
82 |
13 |
श्रीशंकुक का अनुमितिवाद |
83 |
14 |
भट्टनायक |
84 |
15 |
भट्टतौत |
86 |
16 |
अभिनवगुप्त |
87 |
17 |
धनंजय |
91 |
18 |
आचार्य कुंतक |
95 |
19 |
महिमभट्ट |
99 |
20 |
क्षेमेंन्द्र |
102 |
21 |
महाराज भोज |
105 |
22 |
आचार्य मम्मट |
108 |
23 |
अग्निपुराण |
112 |
24 |
सागरनन्दी |
115 |
25 |
राजानक रुय्यक |
116 |
26 |
शोभाकर मित्र |
118 |
27 |
हेमचन्द्र |
118 |
28 |
रामचन्द्र गुणचन्द्र |
119 |
29 |
वाग्भट |
120 |
30 |
वाग्भट द्वितीय |
120 |
31 |
जयदेव |
120 |
32 |
विद्याधर |
122 |
33 |
विद्यानाथ |
122 |
34 |
महापात्र विश्वनाथ |
123 |
35 |
केशव मिश्र |
128 |
36 |
शारदातनय |
129 |
37 |
शिङ्गभूपाल |
130 |
38 |
भानुदत्त |
131 |
39 |
रूपगोस्वामी |
134 |
40 |
अप्पय दीक्षित |
136 |
41 |
पण्डितराज जगग्राथ |
138 |
42 |
विश्वेश्वर पण्डित |
141 |
सहायक ग्रन्थों की सूची |
143 |