इन पत्रों पर पहले भी कई बार इस बात पर चिन्ता प्रकट की गई है कि हमारा यानी हमारे देश के समालोचकों (कहें कि बौद्धिकों) का चिन्तन न तो वर्तमान व्यापक यथार्थ को सूत्रबद्ध कर पा रहा है, न रचना-जगत में प्रकट हो रहे, नए क़िस्म के, सृजित यथार्थों को अपनी शब्दावली में समेट पा रहा है। पुरातनों या अधुनातन पूर्वजों के मर्म-वाक्य प्रायः पिष्टपेषण के शिकार हो कर रह जाते हैं। पिछले दो-चार वर्षों में हिन्दी भाषा और साहित्य के निर्माता अनेक पुरोधाओं की शताब्दियाँ मनाई गई हैं; इस सिलसिले में प्रायोजित आलेखों, चर्चाओं और संवादों-परिसंवादों पर एक नज़र डालें तो दो बातें स्पष्ट दोखेंगी। एक यह कि प्रायः सभी पुरोधाओं को किसी इकहरे, सीमित, पूर्व-परिभाषित और साहित्यिक-राजनीति में 'मान्यता प्राप्त' वैचारिक दायरे में कैद करने की चेष्टा हो रही है। दूसरा यह कि उन पुरोधाओं के मौलिक या अर्जित मर्मवाक्यों के पिष्टपेषण में ही समालोचक अपने वैचारिक अन्वेषण की इतिश्री मानते प्रतीत होते हैं। मौजूदा उत्तेजक प्रश्नों, वहसों या सिद्धांत-चुनौतियों के संदर्भ में नया अर्थ खोलने की कोशिश बहुत ही कम है।
ताज़ा उदाहरण निराला का है। निराला ने छंद से मुक्ति में जातीय मुक्ति के दर्शन किए थे- इस के निहितार्थ क्या है? इस के अलावा, छंद-मुक्ति की छटपटाहट में और कितनी तरह की मुक्तियों के स्वप्न छिपे हुए होंगे? ग़ालिब निराला से बहुत पहले कह गए थे, "न सही गर मेरे अशआर में मानी न सही"। और उन से भी शताब्दियों पहले भवभूति कह गए थे कि भविष्य में कोई मेरा समानधर्मा होगा जो मुझे (शायद) समझ सकेगा। प्रचलित आरोपित अर्थ से मुक्ति की इस छटपटाहट का एक बड़ा 'अर्थ' यह भी है कि कविता या साहित्य मात्र से किसी खास तरह का अर्थ निकाल कर, उसे ही समस्त पाठकों, रसिकों, भावकों या श्रोताओं पर न थोपा जाए। किसी भी बड़ी प्रतिभा को न तो किसी एक अर्थ-वृत्त में कैद किया जा सकता है, न किया जाना चाहिए। प्रत्येक पाठक अपनी समझ, अनुभव, अध्ययन और मनोदशा के आधार पर अपने ढंग से कविता या कहानी को अपने भीतर, दिल में या दिमाग में, रूपायित करता है। श्रेष्ठ समालोचक कुछ सहायक औज़ार भर देते हैं। यों भी अगर हम अपनी कालजयी कृतियों को देखें तो पाएँगे कि हर शताब्दी में और हरेक भाष्यकार, टीकाकार, ग्रंथकार ने उन तमाम कृतियों के विविध और बहुविध अर्थ निकाले हैं। शेक्सपिअर के नाटकों की व्याख्याओं का इतिहास देखें, रामायण और महाभारत के असंख्य संस्करण और उन की पुनर्रचनाएँ तथा व्याख्याएँ देखें, कालिदास की कृतियों को देखें- असंख्य उदाहरण हैं अर्थ-बहुलता के, उस 'भूमा' के जिस के बिना 'सुख' नहीं-"यो वै भूमा तत्सुखम्, नाल्पे सुखमस्ति" - यदि हम 'भूमा' को 'बाहुल्य' के अलावा 'विविधता' जैसे अर्थ में भी ग्रहण कर सकें।
इस तरह देखें तो अर्थ-बहुलता या अनेकार्थता कोई सर्वथा नई अवधारणा नहीं है। काव्यशास्त्रों में और उन में भी खास तौर से अलंकारशास्त्रों में वर्णित इस के विविध रूप हमारे चिर-परिचित हैं। लेकिन पिछले कुछ वर्षों में, खास तौर पर पश्चिमी आलोचना-विमर्श में, शब्दार्थ-विवेचन करते हुए इस बात पर काफी जोर दिया गया है कि पाठक अपने निजी ढंग से कृतियों के शब्दों का अर्थ खोजता, बनाता और पाता है।
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