सृष्टि अपने आप में सबसे खूबसूरत और समर्थ रंगमंच है और हम इस महाकाव्यात्मक सृष्टि-नाटक की चलती-फिरती पात्र-सृष्टि । काल-गति के अनुरूप साहित्य की विभिन्न विधाएँ मनुष्य की अन्तश्चेतना को व्याख्यायित-विश्लेषित करती सुख-दुखात्मक संवेदनशील क्षणों को युगानुरूप भंगिमाओं में तराशती रही हैं। फिर भी मनुष्य अस्मिता में बहुत कुछ ऐसा है, जो अनेक विधाओं के रहते हुए भी उसमें नहीं अटता। उसके लिए विशिष्ट विधा का निर्माण स्वयंमेव चक्रधारी समय ही करता है, जो मनुष्य के अंदर के कीर्तन और कंकाल नर्तन को बांध सके ।
काल की तक्षक स्थितियाँ तीव्रता से बदलती रहीं और मनुष्य के अंदर की अजान-आरती से छल करती वह उसे संघर्ष और जिजीविषा के लोक मंत्र थमाती रहीं। यह काल का अभिनय नहीं जीवन्तता थी, जिसने स्वयं को पहचानने के लिए सृष्टि को ही चलते-फिरते साक्षात् लोक-मंच में परिवर्तित कर दिया।
साहित्य की अन्य विधाओं ने भी मनुष्य को देवदारु की तरह ऊंचा उठाया लेकिन नाटक ने उसके भीतरी द्वन्द्व को खासतौर से तराशा, उसे फैलने से रोका, उसे बांधा, काल-धार पर चढ़ाया, मथा, निचोड़ा, जोड़ा, रस्सी सा बंटा और संघर्ष-जिजीविषा की आधिकारिक कथा का नायक-खलनायक बना दिया। जीवन के स्थायी भाव को सुरक्षित-संरक्षित रखने के लिए कालानुरूप अपनी भंगिमाएं निरन्तर बदलीं और आज बीज से वट बनकर भी अपनी शाखाओं-प्रशाखाओं का विस्तार कर रहा है। नाट्य-साहित्य की विशेषज्ञ, अध्येता, अनुसंधात्री डॉ. वीणा गौतम ने इसी चक्रधारी समय की बहुत बारीक कताई की है। आज हम जिस रंग-परिवेश में जी रहे हैं, उसमें हमारे जीवन-संदर्भों और मूल्यों में तेजी से उथल-पुथल हो रही है। संप्रेषण के नए माध्यमों के प्रभाव से जीवन-प्रस्तुति शैलियों में भी आत्यान्तिक परिवर्तनों का दौर चल रहा है। हमें इतिहास बोध तथा सांस्कृतिक चेतना को कोरे दर्शन या उपदेश से अलग कर नाटकीय सार्थकता एवं संस्कृतिजन्य दृष्टि से देखना होगा। इस ग्रंथ-रचना के मूल में यही दृष्टि कार्यरत है।
डॉ. वीणा गौतम की मानक आलोचन दृष्टि ने नाटकों के माध्यम से काल-फांकों को आर-पार देखा है। इनके पारदर्शी चिंतन मूल्यों में मनुष्य यातना का पूरा काल बोध जीवित है। इनके दृष्टि-मंच पर नाटक की समूची देह भीतरी गूँज के साथ रोती-हँसती है और थरथराता काल मनुष्य वजूद में अभिनय करने लगता है। इनके शब्द अभिकल्पन में साक्षात नाटक उतर आता है। इनकी नाट्यलोचना का यही मर्म है।
डॉ. वीणा गौतम
जन्म : 25 नवम्बर, 1950, ग्राम-सनोर, पटियाला (पंजाब)।
शिक्षा: एम.ए. (प्रथम श्रेणी), पी-एच.डी., डी.लिट् ।
कृति-पथ : अब तक लगभग 85 लेख तथा मौलिक और संपादित 27 ग्रंथ प्रकाशित, जिनमें प्रमुख हैं-'उपन्यासकार रामेश्वर शुक्ल 'अंचल', 'आधुनिक हिंदी नाटकों में मध्यवर्गीय चेतना,' 'त्रिकोण में उभरती आधुनिक संवेदना,' 'नवगीत इतिहास और उपलब्धि', 'गद्य वीथिका' (दो खंड), 'रंग और रेखाएं' (दो खंड), 'शंकरशेष का नाट्यकर्म एवं रंगदृष्टि', 'भारती और शंकरशेष के नाटकों की रंग चेतना', हिंदी नाटक : आज तक', 'हिंदी पत्रकारिता कल, आज और कल', 'भारतीय पत्रकारिता: कल, आज और कल', 'भारतीय साहित्य कोश' (चार खंड)', 'भारतीय लोक साहित्य कोश' (नौ खंड),' प्रसाद साहित्य कोश' (छः खंड)।
संभाव्य प्रकाशन: भारतीय बाल साहित्य कोश (चार खंड), भारतीय बाल लोक साहित्य कोश (दो खंड), भारतीय लोरी साहित्य कोश (दो खंड), हिंदी गीतकार कोश (दो खंड), गत शताब्दी के विशिष्ट नाटक और नाटककार, हिंदी एकांकी आज तक ।
सम्मान पुरस्कार : 'विद्यासागर' (डी.लिट्.) मानद उपाधि, विक्रमशिला हिंदी विद्यापीठ, भागलपुर, 2000, 'हिंदीसेवी सम्मान', हिंदी साहित्य सम्मेलन (केंद्रस्थ संगठन), 2001-2002, 'डॉ. नगेन्द्र सम्मान' (भा.सा. परिषद्), 2001-2002, अनेक सांस्कृतिक-साहित्यिक संस्थाओं द्वारा हिंदी भाषा के उन्नयन और साहित्यिक उपलब्धियों के लिए सम्मानित ।
शैक्षिक-साहित्यिक संस्थाओं से संबद्धता दिल्ली विश्वविद्यालय (हिंदी विभाग) की 'अनुसंधान परिषद्' की आजीवन सदस्य। हिंदी साहित्य सम्मेलन (केंद्रस्थ संगठन) की आजीवन सदस्य। वर्तमान में साहित्यिक-सांस्कृतिक मंत्री। भारत के 35 से अधिक विश्वविद्यालयों के पी-एच.डी., डी.लिट्. की परीक्षक/पर्यवेक्षक। 50 से अधिक राष्ट्रीय शोध संगोष्ठियों में विभिन्न रूपों से भागीदारी।
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