जब पिछले अंक से भारतीय साहित्य की समकालीन प्रवृत्तियों पर चर्चा प्रारंभ हुई तो उसके मूल में यह अवधारणा थी कि भारतीय सृजन-मानस की लय को पहचाना जाए और विभिन भाषा क्षेत्रों की समस्याओं, सांस्कृतिक विशिष्टताओं और चिंताओं का आकलन किया जाए ताकि हम संपूर्ण भारत को विविधता के संगम के रूप में पहचान सकें।
गत अंक में हमने देखा कि उत्तर पूर्व की भाषाओं का जहाँ एक स्वर है, वहीं उनकी विशिष्टताएँ भी हैं। इसी तरह हम भारत की विभिन्न भाषाओं के जरिए संस्कृति का इंद्रधनुषी रूप देख पाएँगे तो संभवतः हमें एक नई प्रतीति होगी।
जैसे संस्कृति निरंतर विकसित होती है, वैसे ही भाषाएँ समयानुकूल अपनी अभिव्यंजना और शैली में नए अर्थ और प्रवृत्ति की अवतारणा करती हैं। इसे हम इतिहास में तो अकसर पहचानते रहे हैं, परंतु वर्तमान में उन्हें ताजा-ताज़ा देखना एक अलग दृष्टि और आस्वाद देता है। परंतु ऐसा आकलन हमेशा कठिन समझा जाता है। बनने और संक्रमित होने के क्रम में स्पष्ट और निर्भात विंव हमारी आँखों में नहीं उतर पाते। इसलिए अकसर इतिहासकार और विवेचक इसे छूने से बचते हैं। वर्तमान को जाँचना कितने जोखिम का काम है, इसका अनुमान हमें उच्चकोटि के इतिहासकार आचार्य रामचंद्र शुक्ल के उस असमंजस और विचलन से होता है जो वे आधुनिकतम प्रवृत्तियों का मूल्यांकन करते हुए दिखाते हैं। शुक्ल जी को प्रतिवादों का सबसे अधिक सामना इतिहास के नव्यतम सृजन-विवेचन में करना पड़ा-ख़ास कर इसलिए कि वे व्योरों, ढाँचों और परिगणना से अधिक साहित्य में लेखक और समय की चित्रवृत्ति के आकलन पर बल देते थे। खैर, अपने समय के साहित्य की पहचान हर भाषा के लिए जरूरी होती है, स्वयं यह साहित्यकार को एक दृष्टि देने में भी सहायक होती है। इसीलिए हमने भारतीय साहित्य के समकाल के विवेचन का जोखिम उठाया है और उसमें विभिन्न भाषा के सचेत लेखकों से सहयोग माँगा है। यह नहीं कहा जा सकता कि यह आयोजन किस हद तक सफल होगा और सभी विवेचना और मूल्यांकन पाठकों की अपेक्षा के अनुरूप होंगे, क्योंकि साहित्य के मूल्यांकन की जिस प्रणाली में हम दीक्षित हैं उसमें लेखकों और रचनाकारों के ब्योरे देने को ही प्रवृत्तिगत मूल्यांकन के लिए पर्याप्त माना जाता है। इससे एक साधारण इतिहास तो बन सकता है परंतु प्रवृत्तियों का इससे यथायोग्य मूल्यांकन नहीं होता। फिर भी प्रयास अपने आप में मूल्य होता है। प्रारंभिक प्रयास में यदि सभी भाषा की प्रवृत्तियों का उद्घाटन सर्जनात्मक प्रमाण के साथ न भी हो सकेगा तो कम-से-कम उसकी भूमिका तो बनेगी ही और उस दिशा में सोच का रास्ता खुलेगा।
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