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समकालीन भारतीय साहित्य- साहित्य अकादेमी की द्विमासिक पत्रिका वर्ष 32 अंक 157 (सितंबर-अक्टूबर 2011): Contemporary Indian Literature- Bimonthly Magazine of Sahitya Akademi Year 32 Issue 157 (September-October 2011)

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Item Code: HBA300
Author: Edited By Prabhakar Shotriya
Publisher: SAHITYA AKADEMI
Language: Hindi
Edition: 2011
Pages: 220
Cover: PAPERBACK
Other Details 9x6 inch
Weight 360 gm
Book Description
संपादकीय

भाषा के प्रश्न

आज सभी भारतीय भाषाएँ तेजी से बोली बनती जा रही हैं, लिपियाँ लगातार अपदस्य हो रही हैं। दुर्भाग्यवश यदि भाषाओं की अस्मिता का इस तेजी से क्षरण होता रहा तो सभी भारतीय भाषाएँ शीघ्र इतिहास की वस्तु हो जाएँगी। इसलिए भाषाओं को बचाने की चिंता हमारी साझा चिंता है।

भाषा संबंधी पुस्तकों और लेखों में हालाँकि यह बात पचासों बार कही गई है, परंतु इस वक़्त, इस इतिहास पर, संक्षेप में नजर दौड़ाना जरूरी है।

अंग्रेजों की नजर शुरू से भारत को राजनीतिक उपनिवेश बनाने के साथ मानसिक उपनिवेश बनाने पर रही है; भाषा और संस्कृति से बेहतर इसका माध्यम नहीं हो सकता। भारतीय मनीषा और संस्कृति के अपने कारणों से उनको यह अभिलाषा पूरी नहीं हुई और उन्हें भारत छोड़‌ना पड़ा, पर मन से गुलाम बनाए रखने की उनकी लालसा बनी रही, जिसे वे येन-केन-प्रकारेण पूरा करने में जुटे रहे। यह तभी संभव था जब भारत की राष्ट्रीयता कमजोर हो, भारत में ऐसे वर्ग बने रहें और बढ़ते रहें जो जाने-अनजाने या विवशता से मानसिक रूप से उनके अधीन हों।

स्वाधीन भारत की संविधान सभा ने लगभग सर्वसम्मति से देश को परस्पर जोड़ने के लिए राजभाषा के रूप में हिंदी को स्वीकार किया, परंतु अंकों के मामले में संविधान सभा बँट गई। सिर्फ एक वोट से रोमन अंक स्वीकार किए गए। (एक बहस में पिछले दिनों पता चला कि अनेक लोगों के बीच यह भ्रम फैला है कि हिंदी एक बोट से राजभाषा बनाई गई। खैर) पंद्रह वर्ष तक अंग्रेजी को राज-काज की कामचलाऊ भाषा बनाया गया। इन वर्षों में दक्षिण भारत में हिंदी विरोध राज कारण से सुलगता रहा, जिसका विस्फोट 1965 में हुआ। परिणामस्वरूप संविधान में ऐसा संशोधन किया गया जिसने हिंदी के राजभाषा बनने पर पूर्ण विराम लगा दिया।

प्रांतीय भाषाओं को भी राजभाषाओं का दर्जा दिया गया और इसके सम्मूर्तन के लिए भाषावार प्रांतों की रचना की गई। शिक्षा यद्यपि प्रांतों का विषय थी (और है) परंतु भाषाओं के सामंजस्य के लिए शिक्षा में त्रिभाषा सूत्र पर सहमति बनी। इसके अंतर्गत हर प्रदेश में, स्कूली शिक्षा के स्तर पर, पहली मातृभाषा, दूसरी राजभाषा या राष्ट्रभाषा और तीसरी विदेशी भाषा को पाठ्यक्रम में शामिल करना था। शिक्षा का माध्यम मातृभाषा स्वीकार की गई।

यह सब न्यायसंगत था। देश भर में इस नीति का पालन हुआ, परंतु हिंदी प्रांतों ने एक भयानक गलती की। उन्होंने दूसरी भाषा की जगह किसी प्रांतीय भाषा को न रखकर संस्कृत को रखा। यह त्रिभाषा सूत्र को भावना के खिलाफ था। इतना ही नहीं, अन्यायपूर्ण और अतार्किक था। यह बात मैं संस्कृत के महत्त्व को जानते हुए भी कह रहा हूँ। हिंदीभाषी प्रांत अपनी जनसंख्या के अनुपात में यदि प्रांतीय भाषाएँ पाठ्यक्रम में शामिल करते तो भारत की सभी भाषाएँ हिंदी प्रांतों में पढ़ाई जा सकती थीं। उदाहरण के लिए अकेले उत्तर प्रदेश में ही दक्षिण की तीन भाषाएँ, भिन्न-भिन्न इलाक़ों में पढ़ाई जा सकती थीं। हिंदो प्रांत परस्पर विमर्श से भारतीय भाषाएँ बाँट सकते थे। खेद है कि तब गाँधी जैसा कोई नेता न था जो राह सुझाता। भाषाओं की व्याप्ति के उस लाभ की कल्पना कीजिए-शिक्षकों का परस्पर आदान-प्रदान होता, आत्मीयता की संस्कृति सघन होती और आगे चलकर हिंदी विरोध की स्थिति नहीं बनती। उन्हें यह शिकायत क्यों होती कि 'आप हमारी भाषा नहीं पढ़ते तो हम आपकी भाषा क्यों पढ़ें?' हिंदी प्रांत भारत की सभी भाषाएँ पढ़ाते तो निश्चय ही शेष भारत में हिंदी पढ़ाई जाती। इससे राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर देश मजबूत होता। इससे और भी अनेक प्रकार के लाभ होते। भाषाओं के इस झगड़े का लाभ अंग्रेजी चुपचाप उठाती रही।

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