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समकालीन भारतीय साहित्य- साहित्य अकादेमी की द्वैमासिक पत्रिका वर्ष 35 अंक 178 (मार्च-अप्रैल 2015): Contemporary Indian Literature- Bimonthly Magazine of Sahitya Akademi Year 35 Issue 178 (March-April 2015)

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Item Code: HBA365
Author: Edited By Ranjit Saha
Publisher: SAHITYA AKADEMI
Language: Hindi
Edition: 2015
Pages: 216
Cover: PAPERBACK
Other Details 9x6 inch
Weight 356 gm
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Book Description
संपादकीय

ओ काव्यात्मन् फणिधर : मुक्तिबोध का स्वगत

अनेक विशिष्ट एवं चर्चित कविताओं की तरह मुक्तिबोध लिखित 'ओ काव्यात्मन् फणिधर' कविता उनके रचना संसार एवं सरोकार को समझने में हमारी बहुत सहायता करती है। अठारह छोटे-बड़े टुकड़ों में बँटी-बिखरी इसकी अभिव्यक्तियाँ परस्पर बड़ी सघनता से गुँथी हुई हैं। यह कविता भी बहुआयामी और बहुस्तरीय भित्तिचित्र की तरह निर्मित है।

यह कविता- 'वे आते होंगे लोग...' जिनके हाथों में सौंपने ही होंगे। ये मौन अपेक्षित रत्न... पंक्तियों से आरंभ होती है, जिनमें कवि उन रत्नप्रापकों या प्रहरियों को यह बता देना चाहता है कि यह मात्र तब तक, केवल तब तक (तुम्हारे पास है, जब तक) तुम छिपा चलो द्युतिमान उन्हें। तम-गुहा-तले !

कविता के पहले प्रकरण की अंतिम दो पंक्तियाँ हैं-

तुम छिपा चलो जो कुछ तुम हो

यह काल तुम्हारा नहीं।

इन पंक्तियों के निहितार्थ जहाँ बहुत गंभीर हैं वहाँ अवसादपूर्ण भी। आज के संदर्भ में अत्यंत प्रासंगिक भी क्योंकि ये पंक्तियाँ आगे के प्रकरणों में निरंतर नया रूपाकार ग्रहण कर नवीन अर्थ वहन करती चली जाती हैं। कवि उस 'फणिधर' को जो 'रत्नधर' भी है, कभी आश्वस्त करता है और कभी सतर्क। साथ ही, संदेश भी देता चलता है। इन लघु प्रकरणों में वह अपनी नागात्मक पंक्तियों को बार-बार संबोधित करता और झिंझोड़ता हुआ आदेश भी देता है। कहीं, मणिगण को धारण कर, उन्हें वल्मीक गुहा में ले जाओ... एकत्र करो... कहता है तो कभी निर्देश देता है-वन तुलसी के तल से निकलो... पाओ नट को !!

इस कविता का नायक अपनी कविता को ही एक सर्प के रूप में कल्पित करता है और फिर उसे आदेश देता है कि वह उन क्रांतिकारी विचार-रत्नों को एकत्रित करे, जिनके प्रकाश मे ब्रह्म के असली (स्व) रूप को पहचाना जा सकता है। मुक्तिबोध, दरअसल यहाँ 'ब्रह्म' की उस तथाकथित वैश्विक विडंबना को ही चिह्नित कर रहे होते हैं, जो व्यक्ति के मन से उसके संसार को अलगा कर, उसे स्वार्थांध और आत्मकेंद्रित बना देता है।

इस कविता के दूसरे, तीसरे, चौथे और पाँचवें प्रकरणों में कुछ लघु बिम्बों और परिस्थितियों के बारे में कवि का मंतव्य देखा जा सकता है। इनमें वह श्याम-संवेदन-कोब्रा अचानक कमरों, कोठों और खपरैलों पर चढ़ता और तेज़ी से आगे बढ़ता दिखाया गया है। इसी तरह छठे, सातवें और आठवें प्रकरण जो अपेक्षाकृत छोटे ही हैं, इनमें भी कवि ने उन अरण्य स्थितियों का सांकेतिक उल्लेख किया है, जिन्हें केवल कवि की सतर्क और सतेज दृष्टि ही देख पाती है। तमाम दुःस्थितियों के तमांतराल से गुज़रती हुई सर्परेख कवि को उसकी कविताओं की गत्यात्मकता का आभास कराती है।

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