'लोक' शब्द की व्युत्पत्ति रुच/लुच धातु से है, जिसका अर्थ है-प्रकाशित होना या प्रकाशित करना अर्थात् जो सामने प्रकाशित दिख रहा है और जो प्रकाशित कर रहा है। 'लोक' देश का एक आनुभविक रूप है और अपने में व्यापक अर्थ संसार समेटे हुए है। जो भी इंद्रिय गोचर जगत है, वह लोक है। 'लोक' को व्यापक अर्थ में लें तो इसका अर्थ होगा-लोक में रहने वाले मनुष्य, अन्य प्राणी और संसार के दूसरे पदार्थ, क्योंकि ये भी प्रत्यक्ष अनुभव के विषय हैं। लोक विशेष रूप से चैतन्य प्राणियों के लिए प्रयुक्त होता है, जिन्हें हम 'लोग' नाम से अभिहित करते हैं।
पंडित विद्यानिवास मिश्र ने अपने एक निबंध 'लोक की पहचान' में लिखा है-"इस लोक में मनुष्यों का समूह ही नहीं, सृष्टि के चर-अचर सभी सम्मिलित हैं, पशु-पक्षी, वृक्ष- नदी, पर्वत सब लोक हैं और सबके साथ साझेदारी की भावना ही लोकदृष्टि है, सबको साथ लेकर चलना ही लोक संग्रह है और इन सबके बीच में जीना लोक यात्रा है।" पंडित जी पश्चिम के समाजशास्त्र की मानव-केंद्रित सामाजिकता और उसकी आधारभूत समता की बात को अपर्याप्त मानते हैं और प्रश्न करते हैं कि मनुष्य तक ही जीवन की सीमा क्यों? जबकि मनुष्य अपने आसपास के चर-अचर जीवन के साथ ओत-प्रोत है और जब इस आस-पास की क्षति होती है तो उसकी भी क्षति होती है। इस नाते उसका दायित्व बहुत बढ़ जाता है।
पंडित जी भारतीय लोक परंपरा की विशेषताओं की चर्चा करते हुए कहते हैं-पहली विशेषता तो यह है कि लोक-परंपरा पूर्व विस्मृत, पुरानी आदिम परंपरा नहीं है। यह परंपरा जीवित है, अभी तक व्याप्त है, व्यतीत नहीं हुई है, निरंतर चल रही है तथा जीवन का अंग है। इसमें जीवन का अर्थ अंतर्निहित रहता है। दूसरी विशेषता यह है कि हमारी लोक परंपरा मनुष्य और प्रकृति के बीच, व्यक्त और अव्यक्त के बीच संवाद स्थापित करती है।
जब हम लोक साहित्य की बात करते हैं तो सामान्य अर्थ में इसका अभिप्राय उस युगीन साहित्य से होता है, जिसका रचने वाला अज्ञात होता है। लोक साहित्य प्रायः अलिखित रूप में रहा है और पीढ़ी-दर-पीढ़ी मौखिक रूप से हस्तांतरित होता रहता है। लोक साहित्य में हम मानव मन की सहज अनुभूतियों की अभिव्यक्ति पाते हैं। वहाँ किसी तरह की कृत्रिमता हम नहीं पाते। हजारी प्रसाद द्विवेदी ने लोक साहित्य को परिभाषित करते हुए लिखा है-"ऐसा मान लिया जा सकता है कि जो चीजें लोकचित्त से सीधे उत्पन्न होकर सर्वसाधारण को आंदोलित, चालित और प्रभावित करती हैं, वे ही लोक साहित्य, लोकशिल्प, लोकनाट्य, लोक कथानक आदि नामों से पुकारी जाती हैं। साधारणतः मौखिक परंपरा से प्राप्त और दीर्घकाल तक स्मृति के बल पर चले आते हुए गीत और कथानक ही लोक साहित्य बन जाते हैं।"
For privacy concerns, please view our Privacy Policy
Hindu ( हिंदू धर्म ) (12489)
Tantra ( तन्त्र ) (987)
Vedas ( वेद ) (705)
Ayurveda ( आयुर्वेद ) (1888)
Chaukhamba | चौखंबा (3349)
Jyotish ( ज्योतिष ) (1442)
Yoga ( योग ) (1092)
Ramayana ( रामायण ) (1389)
Gita Press ( गीता प्रेस ) (731)
Sahitya ( साहित्य ) (23027)
History ( इतिहास ) (8218)
Philosophy ( दर्शन ) (3370)
Santvani ( सन्त वाणी ) (2532)
Vedanta ( वेदांत ) (121)
Send as free online greeting card
Email a Friend
Manage Wishlist