जब तोल्स्तोय ने अपना उपन्यास युद्ध और शांति लिखा तो रूस में मिली-जुली प्रतिक्रियाएँ जहुई, लेकिन आज वह रूस ही नहीं, विश्व क्लासिक्स में शुमार है, जो देश पर हुए आक्रमण का प्रत्याख्यान है और उसमें रूस के जीवंत चित्र और चरित्र तो बहुतायत में हैं ही, वह तत्कालीन रूस की सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक स्थितियों का दस्तावेज भी है। ऐसे ही बीसवीं सदी में अंग्रेजों से लड़कर हासिल भारत की आजादी के यादगार चित्र और चरित्र यशपाल के उपन्यास झूठा सच और कामतानाथ के काल कथा में देखे जा सकते हैं। बाद में भी भारत ने कई युद्ध लड़े और जीते, लेकिन भारत-चीन सीमा पर हुई ताजा झड़प में हमारे सैनिकों की शहादत ने देश को झकझोर कर रख दिया है, पर भारत ने अपना विवेक नहीं खोया है। चीन के शासकों के मन का ऊँट किस करवट बैठेगा, कोई नहीं जानता। पहले ही वहाँ से उछले कोरोना ने भारत समेत पूरी दुनिया को महामारी की चपेट में ले रखा है। ऐसे में अगर भारत-चीन युद्ध छिड़ा तो उसे महासमर बनने में देर नहीं लगेगी। बहरहाल, युद्ध और शांति, झूठा सच और काल कथा जैसे उपन्यास पढ़कर कह सकते हैं कि साहित्य के लिए इतिहास में भी संभावनाएँ होती हैं। विशाखदत्त के अपूर्ण नाटक देवी चन्द्रगुप्तम् पर शोध कर गुलेरी ने सिद्ध किया था कि चंद्रगुप्त द्वितीय से पूर्व उसका भाई रामगुप्त कुछ समय के लिए सिंहासन पर बैठा, जिसने खारवेल आक्रमण के समय ध्रुव देवी को दुश्मन को सौंप देने का प्रस्ताव मान लिया था, लेकिन चंद्रगुप्त ने देवी का छद्म रूप धारण कर दुश्मन को मार दिया। इसी के आधार पर जयशंकर प्रसाद ने ध्रुवस्वामिनी नाटक लिखा।
इसी तरह भारत समेत दुनिया की तमाम प्रसिद्ध कृतियाँ इतिहास केंद्रित हैं, लेकिन वे सिर्फ़ इतिहास केंद्रित होने की वजह से महत्त्वपूर्ण नहीं हैं, वे महत्त्वपूर्ण हैं मनुष्य के जीवन और मूल्यों के बीच उठनेवाले द्वंद्व की वजह से, उस द्वंद्व और दुविधा को झेलनेवाले पात्रों और उनसे पाठक, दर्शक अथवा श्रोता के होनेवाले नित नए तादात्म्य से उन्हें रस सिक्त कर सकने की अपनी विलक्षण क्षमता के कारण। उनके सहज ग्राह्य और तादात्म्यीकरण के पीछे एक कारण उनका इतिहास केंद्रित होना हो तो सकता है, लेकिन लोक से जुड़े बिना इतिहास केंद्रित साहित्य सृजन का दर्जा नहीं पा सकता। इतिहास अगर अतीत की शव साधना भर हो तो ऐसे इतिहास में जाने का हमारा कोई इरादा नहीं, क्योंकि साहित्य का इतिहास में जाना स्मृतिशेष लोगों के बीच से गुजरना भर नहीं होता। बेशक एक समय बहुत शक्तिशाली मानी जानेवाली रचनाएँ कालांतर में उनकी याद भर रह जाती हैं और ऐसी कुछ रचनाओं को साहित्य के आचार्य बहुत समय तक कंधे पर उठाये रखते हैं, लेकिन कुछ रचनाएँ दीर्घजीवी होती हैं, कालजयी। सदियों पुरानी ऐसी रचनाओं के बीच से गुजरना अतीत की शव साधना नहीं, समकालीनता में अतीत की प्रतिष्ठा-पुनर्प्रतिष्ठा का श्रमसाध्य उपक्रम होता है। दुर्भाग्य से हमारे यहाँ ठीक से यह जरूरी काम हो नहीं सका।
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