इतिहासपरक साहित्य से पाठकों का जीवनबोध विकसित होता है, पर कुछ लेखकों का ऐसा लेखन जीवनबोध को विकसित करने की बजाय उन्हें अतीतजीवी बनाता है। भारतीय भाषाओं में पाठकों को अतीतजीवी बनाने वाला साहित्य भरा पड़ा है, लेकिन सही सर्जक इतिहासपरक, यहाँ तक कि अपने मिथक केंद्रित लेखन तक से पाठकों को अतीतजीवी नहीं बनाते, बल्कि उनका जीवनबोध विकसित करते हैं। इतिहास को इतिहासकार अपनी नजर से देखता है और लेखक अपनी नज़र से, लेकिन यदि दोनों के दृष्टिकोण विवेकशील हों तो दोनों ही अपने लेखन से पाठक का जीवनबोध विकसित कर सकते हैं। इतिहास को देखने के दोनों के तरीक़े बेशक भिन्न हो सकते हैं, लेकिन परिणाम एक जैसे मिल सकते हैं। रखकर भी हम इसे देख सकते हैं।
स्वाधीनता संघर्ष और गाँधी के जीवन को केंद्र में अजेय समझी जाने वाली अंग्रेजों की सत्ता से संघर्ष करते योद्धाओं के केंद्र में थे गाँधी, महानायक, लेकिन मोतीलाल नेहरू, मदनमोहन मालवीय, लाला लाजपत राय, चितरंजन दास, जवाहर लाल, सुभाषचंद्र बोस, जिन्ना, भगतसिंह, चंद्रशेखर आजाद और रामप्रसाद बिस्मिल जैसे नायकों का महत्त्व भी कुछ कम न था। तभी लोगों ने गाँधी से पूछा था कि मोतीलाल नेहरू के लिए देश प्रेम बड़ा है या पुत्र प्रेम? लगभग खामोश जवाब में गांधी ने सिर्फ इतना कहा था कि उनका देश प्रेम भी उनके पुत्र प्रेम का ही परिणाम है। मोतीलाल नेहरू ने गाँधी को पत्र लिखकर इच्छा व्यक्त की थी कि कांग्रेस अध्यक्ष का ताज एक बार उनके जीवन काल में ही जवाहर लाल के सिर की शोभा बने और गाँधी ने सन् 1929 में उनकी यह इच्छा पूरी कर दी। जवाहर लाल के प्रति गाँधी का झुकाव अपने ताज को उनके सिर की शोभा बना देने से खुलकर सामने आ गया था। इतिहास खामोशी से महानायक के इस और ऐसे निर्णयों को दर्ज कर रहा था। बाद में इसे भारतीय भाषाओं के साहित्य ने वैविध्य के साथ अभिव्यक्त किया।
सुभाषचंद्र बोस और नेहरू, दोनों ही गाँधी को बापू कहते मानते थे, लेकिन सुभाष पर उन्हें उतना भरोसा नहीं था, जितना नेहरू पर। उन्हें लगता था कि कालांतर में सुभाष उनकी नहीं सुनेंगे। इसलिए वे प्रायः उनके विरुद्ध रहे। (नेहरू का शासन काल गवाह है कि गाँधी की किसने सुनी?) आगे चलकर आजाद हिंद फ़ौज का गठन कर अंग्रेजों के विरुद्ध सशस्त्र संघर्ष छेड़ देने के सुभाष के निर्णय के पीछे नेहरू के प्रति गाँधी के अतिरिक्त झुकाव और लगाव का ही हाथ रहा, क्योंकि सुभाषचंद्र बोस की कोई भी जीत गाँधी की व्यक्तिगत हार होती थी और हम जानते हैं कि वे एक बार हार भी गए थे, लेकिन सुभाषचंद्र बोस ने त्यागपत्र देकर उन्हें बचा लिया, अन्यथा इस देश के पहले प्रधानमंत्री सुभाषचंद्र बोस होते या फिर वल्लभभाई पटेल। देश के पहले प्रधानमंत्री का निर्णय भी गाँधी की व्यक्तिगत इच्छा का ही परिणाम था, वे अपने समय के महानायक जो थे।
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