आ से होता है आरंभ और आरंभ में हर सर्जक आत्म व्यथा ही लिखता है-माता-पिता, प्रेमी-प्रेमिका या व्यवस्था से से जुड़े छोटे-बड़े किसी व्यक्ति विशेष को संबोधित करते हुए, जिसे पढ़कर वे प्रभावित प्रेरित या नाराज होकर कुछ करने के लिए सन्नद्ध हो जाते हैं। कभी-कभी वही व्यथा आत्मकथा के रूप में छपकर पाठकों के सामने आती है तो परिवार, समाज और देश-विदेश के तमाम लोगों के दिल-दिमाग में कुछ-कुछ होता है। इसी में लेखक की सिद्धि छिपी होती है। लेखक और पाठक के बीच होने वाले इस अंतप्रवाह को हो शायद सृजन कहते हैं। अगड़े लोग उम्र और उन्नति के शिखर पर पहुँचकर आत्मकथा लिखने के बारे में सोचते हैं, लेकिन दलित और पिछड़े तो अपने लेखन का आरंभ आत्मकथा लिखकर ही कर पाते हैं, क्योंकि गाँधी, नेहरू, पटेल या बच्चन हो पाने की कल्पना वे नहीं कर सकते। अम्बेडकर जैसे लोग भी उनके लिए अवतार जैसे होते हैं। वे तुलसीराम या श्यौराज सिंह 'बेचैन' हो पाने तक की कल्पना नहीं कर पाते। ओमप्रकाश वाल्मीकि और मोहनदास नैमिशराय ने आत्मकथाएँ लिखकर हिंदी में दलित आत्मकथा लेखन का शानदार आगाज कर दिया था, लेकिन तुलसीराम और श्यौराज सिंह 'बेचैन' की आत्मकथाओं के बाद बाक़ी पर सवालिया निशान लटक गए। ओमप्रकाश वाल्मीकि को महाराष्ट्र में रहकर मराठी दलित लेखन से सीखने का अवसर मिल गया तो वे आत्मकथा लेखन में प्रवृत्त हो गए, लेकिन उन दिनों स्थिति महाराष्ट्र में भी अच्छी नहीं थी।
सन् 1974-75 के आसपास मुंबई में होने वाले मराठी साहित्य सम्मेलनों में दलित लेखकों को मंच पर चढ़ने तक नहीं दिया जाता था। तब मराठी में दलित साहित्य सम्मेलन शुरू हुए और कमलेश्वर ने मराठी दलित साहित्य पर 'सारिका' के अनेक विशेषांक निकाले। कमलेश्वर मानते थे कि अनुभव दो तरह के होते हैं- पहला, आँखों देखा और दूसरा, मन से महसूस किया हुआ। मराठी कथाकार दया पवार के पास दोनों तरह के अनुभव थे। इसीलिए उनकी आत्मकथा 'अछूत' इतनी प्रभावशाली हो सकी। बाबूराव बागुल, अर्जुन डांगले, सतीश कालसेकर, केशव मेश्राम, अरुण कांबले और नामदेव ढसाल जैसे मराठी के दलित लेखकों को कमलेश्वर ने पहली बार 'सारिका' में सम्मान के साथ हिंदी में प्रकाशित किया था। मराठी के दलित लेखकों के प्रभाव के चलते हिंदी में भी दलित साहित्य उभरा।
दलितों की तरह हमारे देश की स्त्रियाँ और पिछड़े भी तमाम सारे प्राप्यों से वंचित रहे हैं। सदियों की वंचना-प्रवंचना के बाद देश को आजादी मिलने के बाद वाजिब अधिकार और प्राप्य उन्हें भी मिलने शुरू हुए। दलित, स्त्रियाँ और पिछड़े अब मूक नायक नहीं, मुखर नायक हो चले हैं। वे भी अब सर्वत्र भागीदारी के तलबगार हैं।
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