मनुष्य को भौतिक इच्छाओं की पूर्ति से जो खुशी मिलती है, वह दीर्घजीवी नहीं होती। चालाकी और धूर्तता से चीजों के संग्रहण में लगे रहने वाले लोग सिर्फ अपना भविष्य सुरक्षित करने में जुटे रहते हैं। उनके पास समय ही नहीं होता कि मस्तिष्क के पश्च भाग में छिपे संस्कारों के खजाने पर दृष्टिपात कर सकें। इस अनदेखी के चलते वह खजाना लगातार कबाड़ में तब्दील होता रहता है। सुख और संतोष भी आयी गयी चीज होते हैं। हमें लगता है कि इच्छारहित होकर भी इनका स्थायित्व हासिल किया जा सकता है, लेकिन मनुष्य इस उम्मीद में मुब्तिला रहता है कि देर-सवेर वह सांसारिक पूँजी में स्थायित्व के एहसास को हासिल कर ही लेगा। इस तरह का भ्रम भीतर ही भीतर बढ़ता रहता है, इस बात से अनभिज्ञ कि स्थायित्व दरअसल है क्या? धीरे-धीरे मनुष्य की वह आकांक्षा दुःस्वप्न में बदल जाती है। बाह्य के बिना आंतरिकता में फिर भी कुछ न कुछ हासिल हो सकता है, लेकिन आंतरिकता की अनुपस्थिति में बाह्य के साथ यात्रा के दौरान मनुष्य के खोखला और एकायामी रह जाने का खतरा बना रहता है, क्योंकि यात्रा क्रिया-कलापों के भँवरजाल से होकर ही तो गुजरती है। अर्थहीन चीजों से चिपके रहना, लालच का अंतहीन पोषण, सत्ता की अंतहीन भूख और वासना मनुष्य को पतन की ओर ले जाने वाले कारक हैं, क्योंकि अनेकानेक प्रलोभनों के वशीभूत होकर वह खुद को किसी न किसी यंत्रणादायक स्थिति में धकेल देता है। उसके भीतर किसी ऐसे तत्त्व के लिए कोई जगह ही नहीं बचती, जो उसे डूबने से बचा सके। अंग्रेजी लेखक पंकज मिश्रा की कृति 'ऐन एंड टु सफरिंग' ऐसे ही सवालों के बीच से गुजरते हुए अब से लेकर बुद्ध के काल तक एक साथ संतरण करती है।
बुद्ध का जीवन और उनका दर्शन आधुनिक युग के यथार्थ से जुड़ते हुए गरीबी, राजनीतिक परिदृश्य, आतंकवाद और नैतिक पतन जैसी भीषण समस्याओं से जूझते मनुष्य के लिए कितना अर्थपूर्ण और प्रासंगिक है, ऐसे सवाल उठाती राजनीति, इतिहास, दर्शन, यात्रा और आत्मकथा के ताने-बाने से बुनी पंकज की यह कृति पठनीयता के सारे गुणों से लैस होकर बाह्य और आंतरिक दुनिया की यात्रा में सामंजस्य बिठाने की विलक्षण कोशिश करती है। 'ऐन एंड टु सफरिंग' के नायक विनोद को पाश्चात्य जीवन मूल्यों और तौर-तरीकों के प्रति अजीब तरह की ललक और लगाव है, जिसकी संपूर्ति उसे भारतीय जीवन पद्धति में संभव नहीं लगती, लेकिन धरती के किसी ऊँचे से ऊँचे स्थान पर सीढ़ी लगाकर भी आप आसमान को तो नहीं छू सकते ! हालाँकि जिस कालखंड में विनोद रह रहा है, उस समय और व्यवस्था से उसकी वितृष्णा किसी हद तक जायज है, लेकिन एक व्यवस्था के संपूर्ण नकार और दूसरी व्यवस्था के संपूर्ण स्वीकार से सब कुछ तो हासिल नहीं हो सकता न!
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