आलोचक सर्जक और संपादक प्रभाकर श्रोत्रिय ने मीडियाकर्मी कथाकार मनोहरश्याम आल जोशी के बारे में जो लिखा, एकदम सही लिखा था "वे बोर्खेज के किसी पात्र की तरह अदृश्य हो गए। पहले तो यही समझ में न आया कि यह यथार्थ है या वायवी यथार्थ। जब तक समझ में आया, वे गंगा में नहाकर यमुना में बिखर चुके थे। वे सिर से पाँव तक मनोहर थे, श्याम की तरह नटखट, चुटीले चुटकी-ले, जोशी-ले अलग से, हरदम किसी विचार से दमकते। विडंबना और छल-छद्म भरी दुनिया के बीचो-बीच अपनी तर्जनी पर सुदर्शन चक्र घुमाते। पता नहीं, उससे कभी कोई मरा भी या यों ही वह उनकी मुद्रा भर थी, लेकिन उनकी उस मुद्रा से चमका हर कोई। मनोहर श्याम - यथा नाम तथा गुण। मनोहर और श्याम। एक साथ। पिछले पचास बरस में हिंदी ने प्रतिभा का ऐसा अजूबा नहीं देखा, अर्से तक लगता रहा कि 'प्रज्ञा' की यह 'प्रतिभा' वाली पारंपरिक सूक्ति विफल है- 'प्रज्ञा नवनवोन्मेषशालिनी प्रतिभा'। यहाँ तो ऐसा है कि अगर गलती से भी कहीं से कुछ नया आ जाता है तो उसके नवोन्मेष की बात तो छोड़ दें, लोग उसका ही घोट-घोटकर कचूमर बनाते रहते हैं। नए विचार और जमाने भर की लप्प गप्प तो ठीक है, भीतर कोई चीज रचे, तब तो रचना में बसे। मनोहरश्याम जोशी ऐसे आत्ममग्न नहीं रहते थे। चीजों को पचाते और फिर हिम्मत से उसे रचते थे। जितनी तरह के कौतुक और विडंबनाएँ लिखते थे, खुद उससे कम न थे। शायद इसीलिए तमाम गिरोहबंदियों के बावजूद हिंदी साहित्य में मनोहरश्याम जोशी देर तक बने रहेंगे।" प्रभाकर श्रोत्रिय ने मनोहरश्याम जोशी के बारे में यह जो इतना विरुद लिखा, खुद उनके बारे में भी उतना ही सही है। वे भी हिंदी काव्य आलोचना और नाटक में देर तक बने रहेंगे। 'भारत में महाभारत' के लिए उन्हे बड़े से बड़ा कोई भी सम्मान मिल सकता था। वे सभी पुरस्कारों-सम्मानों के लायक थे, सुपात्र, लेकिन भरपूर मेधा और अकृत सृजन के बावजूद वे उन्हें मिल न सके ! इसे हिंदी साहित्य की विडंबना ही कहेंगे ?
एक दिन अपनी किताब 'कथा का सौंदर्यशास्त्र' की रूपरेखा बनाने के लिए साउथ दिल्ली वाले अपने घर दोपहर के भोजन पर आमंत्रित कर लिया, लेकिन मूल रूप से कविता का आलोचक होने के नाते कथा आलोचना की अपनी इस किताब के छपने को लेकर वे उत्सुक नहीं दिखे। वह तो बार-बार के हमारे आग्रह का मान रखने के लिए उस दिन उन्होंने कथा साहित्य पर लिखे अपने आलेख अलग कर एक फाइल में रख लिये, लेकिन किताब को छपने के लिए देना टालते रहे, क्योंकि वैसे दो-चार और लेख उन्होंने लिखे थे, जो कहीं छपे भी थे, पर छपे अनछपे किसी भी रूप में वे उन्हें मिल नहीं पा रहे थे।
For privacy concerns, please view our Privacy Policy
Hindu ( हिंदू धर्म ) (12489)
Tantra ( तन्त्र ) (987)
Vedas ( वेद ) (705)
Ayurveda ( आयुर्वेद ) (1888)
Chaukhamba | चौखंबा (3349)
Jyotish ( ज्योतिष ) (1442)
Yoga ( योग ) (1092)
Ramayana ( रामायण ) (1389)
Gita Press ( गीता प्रेस ) (731)
Sahitya ( साहित्य ) (23027)
History ( इतिहास ) (8218)
Philosophy ( दर्शन ) (3370)
Santvani ( सन्त वाणी ) (2532)
Vedanta ( वेदांत ) (121)
Send as free online greeting card
Email a Friend
Manage Wishlist