पुस्तक के विषय में
भारतीय साहित्य के कालजयी रचनाकारों में अग्रगण्य सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन 'अज्ञेय' (7. 3. 1911-4. 4. 1987) का रचना संसार हिंदी का ऐश्वर्य है । कहानी, कविता, उपन्यास, निबंध, आलोचना, यात्रा वृत्तांत, डायरी, रिपोर्ताज, संस्मरण, नाटक आदि विभिन्न क्षेत्रों में अज्ञेय का प्रदेय कम महत्वपूर्ण नहीं है । ज्ञानपीठ भारत- करती व साहित्य अकादेमी पुरस्कारों से सम्मानित अज्ञेय वस्तुत : एक युग निर्माता नेतृत्व- शक्ति-संपन्न रचनाकार रहे हैं । अज्ञेय ने निबंध-विधा का एक नए रूप में आविष्कार किया और नई-नई शैलियों में इस विधा को माँजा-चमकाया और निखारा है । उनकी यायावर वृत्ति का उनके निबंधों की कला-कवि-दृष्टि पर गहरा प्रभाव पड़ा । उन्होंने सीप-घोंघे, पत्थर और चित्र सभी के कोलाज से निबंध में नया प्रयोग किया। इन प्रयोगों ने उनके आत्माभिव्यंजक निबंधों की सर्जनात्मकता में छवि-चित्रों का लोक ही खोल दिया और एक तरह का गद्य नई वैचारिकता के साथ सामने आया । ये निबंध हमारी उन सभी समस्याओं-चिंताओं, बहसों, वैचारिक मुठभेड़ों से हमारा साक्षात्कार कराते हैं जो एक आधुनिक भारतीय लेखन के रचना-कर्म से जुड़े हैं । उन्होंने परंपरा-आधुनिकता व्यक्ति-स्वातंत्र्य, काव्य प्रयोग, काव्यानुभूति, प्रतीक, बिंब, लय-नाद, संगीत, शब्द-अर्थ, काव्य- भाषा, संप्रेषण-व्यापार से जुड़े प्रश्न और समय-समय पर उठने वाली समस्याओं पर चिंतन किया और उस चिंतन को निबंधों में पूरी व्यंजकता से प्रस्तुत किया है । स्वतंत्रता से पूर्व और बाद के सांस्कृतिक नवजागरण की अमिट छाप अज्ञेय के निबंध-साहित्य में मिलती है । 32 निबंधों का प्रस्तुत संकलन पाठकों को पुरानी चिंताओं को नए दृष्टिकोण से तौलने-परखने का अवसर देगा ।
दिल्ली विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में प्रोफेसर एवं विभागाध्यक्ष रहे, प्रस्तुत पुस्तक के संकलन प्रो. कृष्णदत्त पालीवाल ( 4 मार्च, 1943) के लगभग तीन सौ लेख तथा चार सौ पुस्तक समीक्षाएँ प्रकाशित हो चुकी हैं । राजनीति, साहित्य एवं कला समीक्षा पर लिखे उनके निबंध और समीक्षाएँ काफी चर्चित रहे हैं । वे पत्रकारिता में भी निरंतर सक्रिय रहे । अनेक पुरस्कारों से सम्मानित लेखक की कुछ महत्वपूर्ण पुस्तकें हैं-पं रामनरेश त्रिपाठी का काव्य महादेवी की रचना प्रक्रिया नया सृजन नया बोध सर्वेश्वर और उनकी कविता समय से संवाद सुमित्रानदंन पंत, हिंदी आलोचना के नए वैचारिक सरोकार अज्ञेय होने का अर्थ आदि ।
भूमिका
स्वाधीन चिंतन से जुड़े प्रश्न
हिदी-निबंध लेखन के क्षेत्र में अज्ञेय ने भारतेंदु बालकृष्ण भट्ट, प्रताप नारायण मिश्र, बालखद गुप्त, आचार्य रामचद्र शुक्ल, प्रसाद, निराला, आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी की परंपरा को नया अर्थ-सदर्भ दिया है । अज्ञेय के रचनाकार जीवन में ऐसे पडाव और मोड़ आते रहे हैं जहाँ उन्होंने निबंध-विधा का नए रूप में आविष्कार किया है कविता की तरह अज्ञेय ने निबंधविधा में भी कम प्रयोग नहीं किए हैं और नई-नई शैलियों में इस विधा को माँजा-चमकाया और निखारा है अज्ञेय जी में यह 'पडाव' 'चिता' काव्य-सग्रह के प्रकाशन के साथ ही आया उन्होंने चिंतन की छायावादी, उत्तर-छायावादी लीकों को तोड़ा और नई सजनात्मक चिताओं, प्रश्नाकुलताओं और जटिल सवेदना की समस्याओं को ' त्रिशकु' के निबंधों में स्थान दिया इस निबंध- संग्रह का हिंदी-निबंध की विकास-यात्रा में वही स्थान है जो जयशकर प्रसाद के निबंध-संग्रह ' काव्य और कला तथा अन्य निबंध का है अज्ञेय ने साहित्य-संस्कृति के प्रश्नों को साहित्य-लेखन के बँधे घेरे से निकालकर युका चिंतन दिया उन्होंने निर्भय भाव से 'रूढ़ियों' का निषेध करते हुए समाज-संस्कृति-राजनीति के सगठनों की ओर ध्यान केंद्रित किया है और स्वीकार किया है कि नइ सर्जनात्मकता पर आधुनिक जीवन का दबाव बढ गया है
अज्ञेय जहाँ-जहाँ भ्रमण के लिए गए वहाँ-वहाँ से कुछ-न-कुछ मूल्यवान चिंतन का खजाना कमा कर लाए इसलिए उनकी यायावर वृत्ति का उनके निबंधों की कला-कवि-दृष्टि पर गहरा प्रभाव पडा । उन्होंने सीप-घोंघे, पत्थर और चित्र सभी के 'कोलाज' से निबंध में नया प्रयोग किया इन प्रयोगों ने उनके आत्माभिव्यजक निबके की सर्जनात्मकता में एक छवि-चित्रों का लोक ही खोल दिया 'सच्चा' और 'चुप्पा', 'मौन' और आत्ममथन के अभ्यासी उनके रचनाकार ने हिदी-गद्य की सूरत ही बदल डाली एक तरह का गद्य नई वैचारिकता के साथ सामने आया गद्य की बेहद सर्जनात्मकता से सिद्ध किया कि ' कलाकार हूँ नहीं शिष्य साधक हूँ', का अर्थ प्रियवद अज्ञेय पर सटीक बैठता है हिंदी कविता की ही नहीं, हिंदी-गद्य की निबंध-उपन्यास-कहानी, यात्रा-संस्मरण, डायरी, पत्रकारिता-की असाध्य वीणा भी अज्ञेय के हाथों ही बजी है । अज्ञेय का ही यह कलेजा है कि हिंदी-गद्य में विशेषकर निबंध, यात्रावृत्त, डायरी में परंपरा-संस्कृति की पोटली को खोलकर उन्होंने सभी को परोस दिया । आँखों देखी कबीर शैली में जीवन के राग-दीप्त सच को नई रचना-स्थिति के साथ संबद्ध कर दिया और इस कला ने निबंध को पुनर्जीवित करने का अरमान बुलंद किया । आँखों देखी इस अज्ञेय शैली का ही हुनर है कि यात्रा-संस्मरण हो, कहानी हो, डायरी या पत्रकारिता हो निबंध-विधा में वैचारिक रसायन-प्रक्रिया से वे काया-कल्प कर देते हैं । फिर भी अगर कुछ बचा रहता है तो उसे वे किसी-न-किसी विधा में बदलकर ' रिसाइकलिंग करके उसे नया प्रयोग रूप दे देते हैं। अपने को बदलने के लिए हर समय खुला रखने के कारण अज्ञेय में 'अपूर्वता' की शक्ति बढ़ जाती है । सर्जनात्मकता की आधुनिक समस्याओं को बौद्धिक स्तर पर झेलने के कारण उनके निबंधों में हल्की भावुकता, छिछली भावमयता का उच्छलन या उफान नहीं है। अनुभव-चिंतन की चुनौती से दुहा गया वागर्थ है-जिसमें पानी मिलाया ही नहीं है। भारत और पश्चिम से अज्ञेय का साक्षात्कार प्रश्नाकुल अनुभव होने के कारण उनकी भारतीयता का नया संस्कार करता है- आप चाहे तो इस निबंध चिंतन को भारतीय आधुनिकता कह सकते हैं। देशी-विदेशी अनुभव जैसे रूढ़ि और मौलिकता ' जैसे भावानुवादपरक निबंध में नए चिंतन को आत्मसात करने की प्रक्रिया में जिस मौन आत्म-मंथन की शुरुआत हुई उसमें सांस्कृतिक अस्मिता के प्रश्नों ने पहली बार हिंदी-निबंध की विकास-यात्रा में इतनी एकाग्रता और समग्रता से रूपाकार ग्रहण किया है ।
अज्ञेय के निबंध निर्मल वर्मा के निबंधों की तरह यह साक्ष्य जुटाते हैं कि आत्म- मंथन की यह मौन सर्जनात्मक प्रक्रिया उनमें तब तक श्रीगणेश नहीं बनती जब तक कि वे 'अन्य' के संपर्क में नहीं आते हैं। एक औपनिवेशिक नागरिक होने के नाते अज्ञेय ने अन्य शीलवान शिक्षित भारतीयों की तरह निबंधों में नई दृष्टि की ' सभ्यता समीक्षा में सृष्टि कर डाली । लेकिन उनके विरोधियों ने सब कुछ को नकल माना और उन्हें पश्चिमी ढंग का मक्कार बुद्धिजीवी, बर्बर व्यक्तिवादी घोषित किया । फलत: अज्ञेय के निबंधों की मौलिकता और सर्जनात्मकता पर विचार ही नहीं हुआ । दौ सौ वर्षों की गुलामी ने जिस गुलाम मानसिकता का पोषण किया था वह एक असहज स्थिति थी और उससे बाहर निकलकर सोच पाना, यूरोप की ' अन्यता ' से मुक्त हो पाना तो वामपंथियों तक के लिए संभव न था-वे खुद मार्क्स-लेनिन के मानसिक गुलाम थे । लेकिन तमाम जोखिम उठाकर अज्ञेय ने मार्क्स-लेनिन की वैचारिक गुलामी को अस्वीकार किया। इसलिए अज्ञेय के निबंधों में भारतीय-परंपरा का नचिकेता- भाव निरंतर विद्यमान रहा है । उन्होंने साहित्य और साहित्यालोचन पर शंकाकुल होकरसंदेह उठाए हैं-उनकी बारीक-बौद्धिक छानबीन की : है और पांडित्य को कभी भी कहीं भी, बोझ नहीं बनने दिया है । इस प्रश्नाकुल प्रेरणा शक्ति के कारण ही वे आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी की निबंध परंपरा को आगे बढ़ा सके हैं और हिंदी-निबंध का एक नया साँचा और ढाँचा निर्मित करने में समर्थ हुए हैं ।
अज्ञेय ने चिंतन की प्रकृत-भावभूमि पर विचरण करने के कारण साहित्य-कला-संस्कृति, साहित्यालोचन से जुड़े निबंधों में अपना कुँवारा सतर्क मौन नहीं खोया अपितु हमेशा कहा कि शब्द और सत्य का संघर्ष जारी है और इस संघर्ष में अरमान यह है कि वे शब्द और अर्थ से नया रचनात्मक रिश्ता कायम करें । इस नए रिश्ते में हाय-हाय, झाँय-झाँय नहीं है, आत्मनिर्वासन नहीं है, अकेलापन है, जिसकी सामाजिकता में विष्णु पग धर रहे हैं । यह वामन' का तप-बल है जिसमें सजग बौद्धिक आत्मबोध मौजूद रहा है । आज भी अज्ञेय के निबंधों की वामन-चरण कला का प्रताप सजग पाठक को चकित करता है । मैथिलीशरण गुप्त के शिष्य अज्ञेय साहित्यिक परंपराओं में मौजूद रीतिवाद को विद्रोही तेवर से ध्वस्त करते हैं ।
कहना होगा कि यह एक ऐसी चिंतन-प्रधान निबंध यात्रा है जो विदेशी भूमि से होती हुई हमें अपने भारतीय आत्म-बोध तक लाती है । इस लंबी अंतर्यात्रा में कोलंबस साहस है जो त्रिशंकु के निबंधों में दहाड़ता मिलता है ।
अज्ञेय जब कभी ' परिस्थिति और साहित्यकार ' जैसे निबंध लिखते हैं तो स्पष्ट कहते हैं कि परिस्थितिवश हमारा रुझान यांत्रिकता की ओर है । हमारी सारी प्रगति, हमारे अस्तित्व का रुझान यांत्रिकता की ओर हो रहा है । यह यांत्रिकता हमारे जीवन को लीक पर डाल रही है और जीवन सस्ता, छिछला, घटिया और संस्कृति बेजान हो रही है । साथ ही ' आज के अधिकांश हिंदी साहित्य में अतृप्ति-लालसा, दिवास्वप्न, यौन प्रतीकों, इच्छित विश्वासों का साम्राज्य है । इस स्थिति में मौजूद अज्ञेय ऐसा जीनियस है कि वह शृंखलाओं को तोड़कर अनाहत निकल जाता है । वह निरा व्यक्ति नहीं है सामूहिक प्राणी है और समष्टि का अंग बनकर बोलता-विचार करता है । त्रिशंकु ' हिंदी साहित्य एक आधुनिक परिदृश्य आलवाल जोग लिखी और धार और किनारे जैसा कोई निबंध-मंथन करता है और विचार को एक पाठ या टेक्स्ट में बदलकर उसका बासीपन छोट देता है । वह यह भी मानता है कि नीतियाँ सापेक्ष्य हैं, रूढ़ियाँ निरंतर बदलती रहती हैं अत: नैतिक कसौटियाँ सापेक्ष हैं, प्रगति भी सापेक्ष्य हैं । फलत: आज जो प्रगति है कल वह प्रतिगति हो सकती है । और यदि ऐसा है जो प्रगतिवादी आलोचक की कसौटियाँ साहित्यिक कसौटियाँ नहीं हैं; क्योंकि साहित्य आत्यंतिक होने का दावा करता है । कला पर ऐच्छिक नियंत्रण लगाने से, उसे किसी निर्दिष्ट दिशा में चलाने के प्रयत्न से, विज्ञान मिल सकता है, अर्थशास्त्र, राजनीति, समाजशास्त्र आदि मिल सकता है, साहित्य नहीं मिल सकता ।दरअसल, विरले ही निबंधकार, चिंतक-आलोचक, कवि-कथाकार होते हैं जो अज्ञेय की तरह रवींद्रनाथ टैगोर की तरह, टॉल्सटॉय की तरह आधी शताब्दी तक अपने समय के समग्र साहित्य-जगत को निरंतर प्रेरित-प्रभावित करते रह सकें। बल्कि उस पर ऐसी अमिट, प्रेरणार्थक छाप छोड़ सकें जो सर्जना परंपरा आधुनिकता, प्रयोग- प्रगति का दुर्निवार हिस्सा हो जाए । अज्ञेय के ये निबंध उनकी सुदीर्घ चुनौती भरे अंतर्यात्रा के ऐतिहासिक दस्तावेज तो हैं ही, वे साहित्य-चिंतन के प्रतिमान भी हैं । ये निबंध हमारी उन सभी समस्याओं-चिंताओं. बहसों, वैचारिक मुठभेड़ों से हमारा साक्षात्कार कराते हैं जो एक आधुनिक भारतीय लेखन के रचना-कर्म से जुड़े हैं । इन लेखों ने अपने प्रकाशन काल में न जाने कितनी तरह की साहित्यिक बहसों, वाद- विवादों को प्रेरित एवं प्रभावित किया है कि आज भी उन्हें पढना-गुनना, उनके भीतर से गुजरना एवं सार्थक वैचारिक उत्तेजना को जीना है । सच बात तो यह है कि इनकी अर्थवान बहुवचनात्मकता केवल अज्ञेय के सृजन और चिंतन को समझने तक ही सीमित नहीं है बल्कि वे अपनी परंपरा के मूल सर्जनात्मक विकास की समझ के लिए भी अपेक्षित हैं । ऐसी स्थिति के कारण इन निबंधों का भारतीय चिंतन-परंपरा में ही नहीं, तीसरी दुनिया के साहित्यालोचन और साहित्य-चिंतन में एक दुर्निवार स्थान है क्योंकि ये निबंध आज भी भारतीय रचनाकार की चुनौतियों, चिंताओं. खतरों और झंझटों को नए कोणों से स्पष्ट करते हैं । और जिनका सामना हर हाल में संक्रमणशील समाज की सर्जनात्मक प्रतिभा को करना है । निरंतर उत्तर- आधुनिकवाद, वृद्ध पूँजीवाद, उदारवाद, बाजार व्यवस्था, भूमंडलीकरण का हमला इस देश की सभ्यता-संस्कृति पर हो रहा है विचार के अँधेरे समय में अज्ञेय का निबंध-चिंतन ही हमें नई दिशा और दृष्टि दे सकता हें ।
परंपरा-आधुनिकता, व्यक्ति-स्वातंत्र, काव्य-प्रयोग, काव्यानुभूति, प्रतीक बिंब, लय-नाद, संगीत, शब्द- अर्थ, काव्य- भाषा, संप्रेषण-व्यापार से जुडे प्रश्नों पर अज्ञेय ने न जाने कितने निबंधों में ' कितनी नावों में कितनी बार ' बैठकर तन्मय चित्त से विचार किया है । विस्तार के कारण उन सभी की चर्चा यहाँ पर कर पाना संभव नहीं है लेकिन उनके विचारों की गूँज-अनुगूँज, प्रतिध्वनि इन निबंधों की आत्मा में मिलेगी । अज्ञेय ने समय-समय पर उठने वाली समस्याओं पर चिंतन किया और उस चिंतन को निबंधों में पूरी व्यक्तित्व व्यंजकता से प्रस्तुत किया है । निबंध मैं खुलापन उसकी विधागत विशेषता है और इस विधा की स्वतंत्रता का अज्ञेय ने पूरा उपयोग किया है । समाज, संस्कृति और धर्म से संबंधित निबंधों की यहाँ एक कोटि है तो दूसरी कोटि साहित्यिक आलोचनात्मक निबंधों की है । कुछ ऐसे भी निबंध हैं जो अवनींद्र दास ठाकुर जैसे चित्रकारों-कलाकारों पर केंद्रित हैं-कुछ निबंध साहित्य की समस्याओं पर केंद्रित हैं और रचनाकारों की सृजन-प्रक्रिया पर भी विचार करते हैं । वे निबंध और लेख जोनिबंधों के कठघरे में फिट नहीं होते उन पर यात्रा-वृत्त, संस्मरण. डायरी, आत्मकथात्मक अंश आदि पर अलग से विचार किया गया है ।
अज्ञेय ने ललित-निबंध या व्यक्तिव्यंजक निबंध कुट्टिचातन ' नाम से लिखे हैं और ' सबल-कुछ राग इसी तरह के ललित-निबंधों का उनका संग्रह है । वैसे भी निबंध बड़ा व्यापक नाम है और लघु निबंध से लेकर शोध-निबंध तक अपने पैर फैलाए हुए है । इसलिए संस्मरण-डायरी-यात्रावृत्त से लेकर व्यक्तिव्यंजक निबंध सब इसी कोटि में समाहित हो जाते हैं । निबंध एक ऐसा माध्यम है जिसमें किसी भी क्षेत्र के चिंतन को मुखर भाव से प्रस्तुत किया जा सकता है । इसलिए यह मानना आज गलत सिद्ध हो गया है कि निबंध अलोकप्रिय या कठिन विधा है । और उपन्यास- कविता उसकी तुलना में ज्यादा लोकप्रिय विधाएँ हैं । गद्य को कवियों का निकष माननेवाले आज भी घोषित तौर पर कहते है कि कवि-कर्म की कसौटी तो निबंध है। कवि को काव्यानुभूति और लय का सहारा रहता है लेकिन निबंधकार को ऐसा कोई सहारा नहीं रहता है। निबंध विचार-प्रधान हो या व्यक्तिव्यंजक ललित निबंध हो-उसमें विचार की क्रमबद्धता, रचना की रम्यता रहती है । तो वह ललित या 'रम्य रचना का दर्जा पा जाता है। हालाकि विद्यानिवास मिश्र जैसे ललित निबंधकार दबे स्वर में कहते रहे हैं कि संस्कृति वाड्मय में ललित शब्द का प्रयोग मनुष्य द्वारा सजाने-सँवारने का भाव रखता है। इसलिए लालित्य निबंध में विशेष प्रयोजन से ही सटीक बैठता है। लालित्य का प्रयोजन निबंध में अलंकरण या कृत्रिम शोभा बढ़ाना नहीं है अपितु भावक या पाठक के चित्त की विशद्ता या विस्तार ही है।
अनुक्रम
सात
1
भाषा, कला और औपनिवेशिक मानस
2
कला का स्वभाव और उद्देश्य
14
3
रूढ़ि और मौलिकता
21
4
नई कविता
33
5
आलोचना है आलोचक हैं आलोक चाहिए
52
6
वर्ग वृत्त
63
7
प्रासंगिकता की कसौटी
68
8
सांस्कृतिक समग्रता भाषिक वैविध्य
75
9
रचनात्मक भाषा और संप्रेषण की समस्याएँ
82
10
सर्जनात्मक अनवधान
98
11
यथार्थ और भाषा का क्रम
103
12
समग्र परिवेश की राजनीति
110
13
द्विग्विहीन
114
मानव, अस्मिता, भूख
116
15
जो मारे नहीं गए वे भी चुप हैं
120
16
पुनस्तत्रैव वैताल :
123
17
सौदर्य-बोध और शिवत्व-बोध
127
18
एक आम आदमी : एक युवा लेखक
135
19
संवत्सर
140
20
काल-मृगया
144
सभ्यता का संकट
147
22
यथार्थ : पकड़ और जकड़
162
23
मिथक
165
24
अंत: प्रकियाएँ
176
25
जीवन का रस
179
26
कवि-कर्म : परिधि, माध्यम, मर्यादा
183
27
पानी का स्वर
196
28
काल का डमरू-नाद
200
29
रूसी साहित्य और तुर्गनेव
212
30
स्मृति और काल
220
31
स्मृति और देश
233
32
घाटी की झाँकी
246
वसंत का एक स्पर्श
252
34
वासुदेव प्याला
258
35
कहाँ पहुँचे
263
परिशिष्ट-1
269
परिशिष्ट-2
273
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