श्री गोरक्षनाथ का नाम लेते ही आँखों के सामने एक ऐसे विराट व्यक्तित्व का स्वरुप उपस्थित हो जाता है जिन्होंने न केवल अपने ज्ञान अपितु अपने जीवन चरित्र के द्वारा तत्कालीन भारतीय जान-मानस को आंदोलन कर उन्हीं सन्मार्ग पर चलने की प्रेरणा दी!
अमृतवाक्यम् नामक लघु ग्रन्थ में संस्कृत भाषा में श्री गोरक्षनाथ द्वारा दिए गए अमर उपदेशों का संग्रह है ! नाथ साहित्य का अध्ययन एवं अनुसन्धान करने वाले पूर्व एवं वर्तमान के सभी विद्वान अभी तक इस अनमोल ग्रन्थ रत्न के नाम से भी अपरिचित रहे हैं !
प्रस्तुत ग्रन्थ के उपदेशों का सार यही है मानव - मन्त्र जिस परमसुख की खोज में दुनियां में इधर-उधर भटकता फिर रहा है वह सुख उसे इन सांसारिक वस्तुओं के उपभोग से प्राप्त नही होने वाला है! वास्तविक सुख उसके भीतर ही विद्मान है! आवश्यकता इस बात की है की वह अपने अंतस्तल में विद्यमान उस परमानंद की प्राप्ति की ओर बढ़ना शरू करे! सांसारिक दुखों से निर्वित्ती का एकमात्र उपाए है संसार की वास्तविकता का ज्ञान एवं उसके माया-जाल से मुक्ति! इसके लिए आत्मतत्त्व एवं परमात्मतत्त्व का अनुभव होना आवश्यक है!
श्री गोरक्षनाथ ने इन उपदेशों के माध्यम से सर्व सामान्य जन तक वह सन्देश देने का प्रयत्न किया है की मनुष्य संसार की अनित्यता एवं वास्तविकता को समझे एवं योग की साधना के द्वारा जन्म-मरण के चक्र से मुक्ति पाकर अपने परमानन्द स्वरुप को प्राप्त कर सके ! वह स्थिति ऐसी है जहाँ न हर्ष है न शोक है, सुख है न दुःख है ,न मिलन है न वियोग है, न भूख है न प्यास है, न स्वप्न है न जागरण है! एकछत्र परमानन्द का साम्राज्य है !
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