पुस्तक के बारे में
आनंदराम ढेकियाल फूकन (1829-1859) असमिया जन-जीवन के उस संघर्षपूर्ण दौर में हुए, जब ईस्ट इंडिया कम्पनी द्वारा असम पर अधिकार के एक दशक बाद उनकी मातृभाषा को सरकारी विद्यालयों और राज्य की अदालतों से किनारे कर उसका स्थान बाङ्ला को दे दिया गया था । स्थानीय भद्र समाज और जनता में से किसी ने भी इसके विरोध में आवाज़ नहीं उठायी । आनंदराम ने असमिया, बाङ्ला और अंग्रेज़ी के अपने अच्छे ज्ञान के कारण इसके भयावह और अपरिहार्य परिणामों को सबके सामने रखा । इनमें से कुछ अमरीकी बैप्टिस्टों ने, जो असम में धर्म प्रचार कर रहे थे, स्थिति की भयंकरता को महसूस किया । वे असमियों के लिए एक आदोलन चलाने के लिए संगठित हुए लेकिन उनके लक्ष्य की पूर्ति 1873 में 29 वर्षीय फूकन की मृत्यु के चौदह वर्षो के बाद ही हो सकी । इतने विलम्ब से प्राप्त इस सफलता के पीछे भी आनंदराम ही थे जिन्होंने अपनी बहुश्रुत एवं प्रबुद्ध रचनाओं के माध्यम से असमिया भाषा की पुनःप्रतिष्ठा के लिए आवश्यक तर्क एवं तथ्य उपस्थापित किए और इस प्रकार एक स्थानीय भाषा में सुंदर आधुनिक साहित्य के विकास का मार्ग प्रशस्त किया ।
इस लघु विनिबंध में प्रो. महेश्वर नियोग ने फूकन के संक्षिप्त किन्तु सार्थक जीवन और असमिया के लिए उन्नीसवीं शताब्दी के दौरान उनके अपराजेय संघर्ष की कथा कही है ।
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