(भाग 1)
प्रकाशकीय
पवित्र पालि त्रिपिटक के सुत्तपिटक के पांच निकायोंमें अंगुत्तर निकाय का विशिष्ट स्थान है । शेष चार निकायों का अधिकांश भाग अनूदित हो चुकने पर भी अंगुत्तर निकाय अभी तक हिन्दी में अनूदित नहीं ही हुआ था । हम भदन्त आनन्द कौसल्यायन के चिर कृतज्ञ हैं कि उन्होंनें जातक जैसे महान अनुवाद कार्य को समाप्त कर अब अंगुत्तर निकाय के अनुवाद कार्य को हाथ में लिया है और हमें यह सूचना देते हुये हर्ष होता है कि अपेक्षाकृत कम ही समय में उन्होंने हमें इस योग्य बनाया है कि हम अंगुत्तर निकाय के प्रथम भाग का हिन्दी अनुवाद अपने प्रेमी पाठकों की भेंट कर सकें ।
हम केन्द्रीय सरकार के भी कृतज्ञ हैं जिसकी कृपा से हमें शास्त्रीय ग्रन्थों के मूल तथा अनुवाद छापने के लिये चार हजार रुपये वार्षिक का अनुदान प्राप्त है ।
यदि हमें यह सरकारी अनुदान प्राप्त न हो तो हमें इसमें बड़ा सन्देह है कि हम इस पवित्र कार्य्य को करने में समर्थ सिद्ध होंगे ।
प्रस्तावना
सूत्र पिटक, विनय पिटक तथा अभिधर्म पिटक ही बौद्धधर्म के प्रामाणिरक त्रिपिटक हैं । इनकी भाषा, इनका रचना काल, इनका सम्पादन, इनमें विद्यमान् भगवान् के उपदेश विद्वानों की ऊहापोह के विषय हैं ही ।
सूत्र पिटक दीर्घ निकाय, मज्झिम निकाय, संयुक्त निकाय, अंगुत्तर निकाय तथा खुद्दक निकाय नामक पाँच निकायों में विभक्त माना जाता है । अंगुत्तर निकाय की रचना शैली सभी दूसरे निकायों से विशिष्ट है । इसके एकक निपात में एक ही एक धर्म (विषय) का वर्णन है दुक निपात में दो दो धर्मो विषयों) का, इसी प्रकार तिक निपात मॅ तीन तीन विषयों का । यही कम पूरे ग्यारह निपातों तक चला जाता है । प्रत्येक निपात में अंकोत्तर वृद्धि होती चली गई है, इसी से अंगुत्तर निकाय नाम सार्थक है ।
दीर्घ निकाय, मज्जिम निकाय, संयुक्त निकाय, तथा खुद्दक निकाय के भी कुछ ग्रन्थों का हिन्दी रूपान्तर हो चुकने के बाद अंगुत्तर निकाय ही सूत्र पिटक का वह महत्वपूर्ण निकाय शेष रहा था, जिसका अनुवाद आज से बहुत पहले होना चाहिये था । खेद है कि वर्तमान अनुवादक को भी इससे पहले इस पुण्य कार्य को हाथ में लेने का सौभाग्य न प्राप्त हो सका ।
जिस कालामा सूक्त की बौद्ध वाङमय में ही नहीं, विश्वभर के वाङमय में इतनी धाक है जो एक प्रकार से मानव समाज के स्वतन्त्र चिन्तन तथा स्वतन्त्र आचरण का घोषणान्यत्र माना जाता है, वह कालामा सूक्त इसी अंगुत्तर निकाय के तिक निपात के अंतर्गत है । भगवान् ने उस सूक्त में कालामाओं को आश्वस्त किया है
हे कालामों आओ । तुम किसी बात को केवल इस लिये मत स्वीकार करो कि यह बात अनुश्रुत है, केवल इस लिये मत स्वीकार करो कि यह बात परम्परागत है, केवल इस लिये मत स्वीकार करो कि यह बात इसी प्रकार कही गई है, केवल इस लिये मत स्वीकार करो कि यह हमारे धर्म ग्रम्य (पिटक) के अनुकूल है, केवल इस लिये मत स्वीकार करो कि यह तर्क सम्मत है, केवल इसलिये मत स्वीकार करो कि यह न्याय (शास्त्र) सम्मत है, केवल इस लिये मत स्वीकार करो कि आकार प्रकार सुन्दर है, केवल इस लिये मत स्वीकार करो कि यह हमारे मत के अनुकूल है, केवल इस लिये मत स्वीकार करो कि कहने वाले का व्यक्तित्व आकर्षक है, केवल इस लिले मत स्वीकार करो कि कहने वाला श्रमण हमारा पूज्य है । हे कालामो । जब तुम आत्मानुभव से अपने आप ही यह जानो कि ये बातें अकुशल हैं, ये बातें सदोष हैं, ये बातें विज्ञ पुरुषों द्वारा निन्दित हैं इन बातों के अनुसार चलने से अहित होता है, दुख होता है तो हे कालामो! तुम उन बातों को छोड़ दो । (पृष्ठ 192)
इन पंक्तियों का लेखक तो इस सूक्त का विशेष ऋणी है, क्योंकि आज से पूरे 30 वर्ष पूर्व, भगवान् का जो उपदेश विशेष रूप से उसके त्रिशरणागमन का निमित्त कारण हुआ था, वह यही कालामा सूक्त ही था ।
उसके तीन वर्ष बाद लंदन में रहते समय उसे एक वयो वृद्ध अंग्रेज द्वारा लिखित एक ग्रन्थ पढ़ने को मिला । नाम था संसार का भावी धर्म । देखा, उसके मुख पृष्ठ पर भी यही कालामा सूक्त ही उद्धृत है।
जहाँ तक अंगुत्तर निकाय के मूल पालि पाठ की बात है अनुवादक ने यह अनुवाद कार्य्य मुख्य रूप से रैवरैण्ड रिचर्ड मारिस एम. ए., एल. एल. डी. द्वारा सम्पादित तथा सन 1885 में पाली टैक्सर सोसाइटी, लंदन द्वारा प्रकाशित पालि संस्करण से ही किया है । यूं बीच बीच में वह सिंहल संस्करण तथा स्वामी संस्करण को भी देख लेता ही रहा है ।
निस्सन्देह विनम्र अनुवादक की प्रवृत्ति अर्थकथाओं को मूल के प्रकाश में ही समझने की है, तो भी आचार्थ्य बुद्धघोषकृत अंगुत्तर निकाय की मनोरथ पूर्णी अट्ठकथा का भी उस पर अनल्प उपकार है ।
इस पहले भाग में अंगुत्तर निकाय के प्रथम तीन निपातों का ही समावेश हो सका है । शेष आठ निपातों के लिये अनुमानत पांच अन्य भाग अपेक्षित होंगे। किसी भी प्रस्तावना में अंगुत्तर निकाय के विस्तृत अध्ययन का समय तो कदाचित् उसका अनुवाद कार्य पूरा होने पर ही आयेगा ।
महाबोधि सभा के मन्त्री श्री देवप्रिय बलीसिंह का मैं चिर कृतज्ञ रहूंगा जिन्होंने अंगुत्तर निकाय के प्रकाशन का भार ग्रहण कर मुझे इस ओर से निश्चिन्त किया।अपने स्नेह भाजन भिक्षु धर्म रक्षित का भी मैं आभारी हूँ कि जिन्हें जब यह मालूम हुआ कि मैं ने अंगुत्तर निकाय के अनुवाद कार्य को हाथ में लिया है, तो उन्होंने अपनी अजल लेखनी को अंगुत्तर निकाय के अनुवाद कार्यकी ओर से मोड़ कर संयुक्त निकाय तथा विशुद्धि मार्ग सदृश महान ग्रन्थों के अनुवाद की ओर मोड़ दिया । वर्षो पूर्व भिक्षु धर्म रक्षित की लेखनी से जो आशायें बंधी थीं, वे सर्वांश में पूरी हो रही हैं । बधाई ।
राष्ट्रभाषा प्रेस (वर्धा) के सम्पूर्ण सहयोग के बिना भी यह स्वल्पारम्भ इतना क्षेमकर न होता, जिसके लिये मैं राष्ट्रभाषा प्रचार समिति के मन्त्री भाई मोहनलालजी भट्ट तथा प्रेस के सभी सम्बन्धित कर्मचारियों का विशेष ऋणी हूं ।
(भाग 3)
अंगुत्तर निकायके प्रथम भागफा अनुवाद 1957 ई. में प्रकाशित हो गया था । द्वितीय भागका अनुवाद पूरे छह वषर्के याद 1963 ई. में ही प्रकाशित हो सकता था । अब तीसरे भागका अनुवाद 1966 ई. में प्रकाशित हो रहा है । सापेक्ष दृष्टिसे श्से जल्दी ही मानना चाहिए ।
सूत्र पिटकमें जो पांच निकाय हैं, यद्यपि अंगुस्तर निकाय स्वयं उनमेसे एक निकाय है, लेकिन कभी कभी ऐसा भी लगता है कि अन्य निकायोंमें जो देशना है उसीको अंकोत्तर वृद्धि क्रमसे व्यवस्थित कर उसे एक पृथक निकायका नाम दे दिया नया है ।
ठीक ठीक ऐसा भी नहीं कहा जा सकता, क्योंकि कालाम सूत्र जैसे अनेक सूत्र ऐसे भी हैं, जो अंगुत्तर निकाय की अपनी निधि मालूम देते हैं ।
अभी तो नागरी अक्षरोंमें मूल त्रिपिटकका अध्ययन अध्यापन आरम्भ ही हुआ है । इस प्रकारकी विश्लेषणात्मक जिज्ञासाओंकी शान्तिके लिए हमें उस समयकी प्रतीक्षा करनी होगी, जब इस देशमें त्रिपिटकके भी विवेचनात्मक अध्य यनकी परम्परा दृढ़ होगी ।
तृतीय भाग का अनुवाद तो बहुत पहले हो चुका था । ठीक बात तो यह है कि चतुर्थ भाग का अनुवाद भी कबसे पूरा हो चुका है, लेकिन जव प्रेस वर्धामें हो, प्रकाशक कलकत्तामें हो और स्वयं अनुवादक सिंहल द्वीपमें हो तो किसी भी ग्रन्थके मुद्रण प्रकाशनमें अधिक समय लगना स्वाभाविक है ।
राष्ट्रभाषा प्रेस शेष दो भागोंकी तरह इसे भी अनेक आकस्मिक बाधाओंके बावजूद छाप सका, इसके लिए मै प्रेसके मैनेजर श्री. देशपाण्डेय जी का कृतज्ञ हूँ ।
सम्भवत यह अभी भी प्रकाशित न हो पाता, यदि राष्ट्रभाषा प्रचार समितिके श्री राधेश्याम सिंह गौतम, एम. ए. ने इधर इसके प्रूफ देखनेकी जिम्मेदारी अपने सिर न ले ली होती । मैं तो उनका ऋणी हूँ ही, पाठकोंके भी वह धन्यवादके पात्र हैं ।
मेरे प्रमादसे इस भागमें एक एक निपातके सूत्रोंको उनके संख्या क्रमसे पृथक पृथक नहीं दिया जा सका । जब आरम्भमें एकाध फार्म छप गया, तब एक रूपताके लिए सारी पुस्तकको उसी तरह छपवाना अनिवार्य हो गया ।
अनुक्रमणिका की भी कमी एक बड़ी कमी है । वह और अधिक विलम्बका कारण हो सकती है । सम्भव हुआ तो अन्तिम चतुर्थ भागके साथ शेष तीनों भागोंकी भी अनुक्रमणिका देनेका प्रयास किया जायगा ।
महाबोधि सभाके मन्त्री, श्री. देवप्रिय वलीसिंहका मैं विशेष कृतज्ञ हूं, क्योंकि सारे अंगुत्तर निकायको हिन्दी रूपमें प्रकाशित करानेका सारा श्रेय उन्हींको है ।
(भाग 4)
दो शब्द
1958 में अंगुत्तर निकायके प्रथम भागकी प्रस्तावनामें अंगुत्तर निकायका परिचय इन शब्दोंमें दिया गया था
सूत्र पिटक, विनय पिटक तथा आभिधर्म पिटक ही व बौद्धर्मके प्रामाणिक त्रिपिटक है । इनमें विद्यमान भगवानके उपदेश विद्वानोंकी ऊहापोहके विषय है हीं । सूत्र पिटकदीर्घ निकाय, मज्झिम निकाय, संयुक्त निकाय, अंगुत्तर निकाय तथा खुद्दक निकाय नामक पाँच निकायोमे विभक्त माना जाता है । अंगुत्तर निकायकी रचना शैली सभी दूसरे निकायोंमें विशिष्ट है । इसके एकक निपानमें एक ही एक धर्म (विषय) का वर्णन है, दुक निपात में दो दो धर्मों (विषयों) का, इसी प्रकार तिक निपात में तीन तनि विषयोंका । यही क्रम पूरे ग्यारह निपातों तक चला जाता है । प्रत्येक निपातमें अंकोत्तर वृद्धि होती चलती है, इसीसे अंगुत्तर निकाय नाम सार्थक है ।
इस पहले भागमें अंगुत्तर निकायके प्रथम तीन निपातोंका ही समावेश हो सका है । शेष आठ निपातोंके लिए अनुमानत पाँच अन्य भाग अपेक्षित होगे। पाँच वर्ष बाद अंगुत्तर निकायके भाग्य की प्रस्तावना लिखते समय लिखा गया
अंगुत्तर निकायके पहले भागमें तीन निपातोंका ही समावेश हो सका था । इम दूसरे भागके अन्तर्गत चतुक्क निपात तथा पंञ्चक निपात है । शेष छह निपात अनुमानत तीन भागों में समाप्त हो जाएँगे। इस प्रका आशा है किसी न किसीदिन अंगुत्तर निाकये केपाँचों भाग हिन्दी पाठकों के हाथों तक पहुँच सकेंगे।
तीन वर्ष बाद अंगुत्तर निकायके हीं तृतीय भागकी प्रस्तावना में लिखा गया अगुत्तर निकाय के प्रथम भाग का अनुवाद 1957 ई. में प्रकाशित हो गया था। द्वितीय भाग का अनुवार पूरे छह वर्षके बाद 1963 में ही प्रकाशित हो सका था। अब तीसरे भाग का अनुवाद 1966 ई. में प्रकाशित हो रहा है। सापेक्ष दृष्टि इसे जल्दी ही मानना चाहिए।
तीसरे भागों पाँचवां, छठा सातवाँ तथा आठवाँ निपात समाविष्ट थे। शेष केवल तीन निपात रह गए थे। उन तीनों का समावेश इस चौथे भाग और अन्तिम भाग में हो जानेसे आरम्भ में अंगुत्तर निकायका अनुवाद जो पाँच भागों में पूरा करने की कल्पना थी, वह चार भागोंमें ही पूरी हो गई।
यूं हिसाव जोड्नेपर कुल जमा चार भागोंके अनुवाद और उनके मुद्रण और प्रकाशनमें दस वर्ष लग जाना समयका कुछ उतना सदुपयोग हुआ नहीं माना जाएगा । अनुवादने तो उतना समय नहीं ही लिया । प्रत्येक भागके अनुवाद कार्यने तो तीन महीनेसे चार महीने तककाही समय लिया होगा । किन्तु प्रकाशक कलकत्तामें, मुद्रक वर्धामें और अनुवादक आज यहाँ कल वहाँ! सापेक्ष दृष्टिसे कुछ स्थिर होकर रहा भी तो सुदूर श्रीलंकामें । विलम्बसे ही सही, यह सन्तोष का विषय है कि अंगुत्तर निकायका अन्तिम खण्ड भी पाठकोके हाथमें पहुँच रहा है ।
राष्ट्रभाषा मुद्रणालय तो धन्यवादका पात्र है ही । विशेष धन्यवादके पात्र हैं मित्रवर श्री. राधेश्याम गौतम, एम. ए. । उन्होंने जिस मनोयोगसे अंगुत्तर निकायके प्रूफ आदि देखनेका कार्य किया, यंदि वह न करते तो मुझे इसमें कुछ भी सन्देह नहीं कि आज भी अगुत्तर निकायका कुछ अंश अप्रकाशित ही रहता ।
अगुत्तर निकायका अन्तिम खण्ड पाठकोंके हाथमें सौंपते मुझे यह सोचकर हार्दिक दुख हो रहा हैं कि महाबोधि सोसाइटीके जिन महामन्त्री श्री देवप्रिय वलीसिंहने इस प्रकाशन योजनाको अपनाया था, वह इसे सम्पूर्ण देखनेके लिए अब इस संसारमें नहीं रहे ।
अगुत्तर निकाय चौथा भाग
सूची
नौवाँ निपात
1
सम्बोधित वर्ग
2
सीहनाद वर्ग
18
3
सत्वावास वर्ग
35
4
महावर्ग
46
5
पंचाल वर्ग
77
6
खेम वर्ग
81
7
स्मृति उपस्थान वर्ग
82
8
सम्यक् प्रयत्न वर्ग
85
9
ऋद्धिपाद वर्ग
86
दसवाँ निपात
आनिसंस वर्ग
89
नाथ वर्ग
98
113
उपालि वर्ग
141
आकोश वर्ग
147
सचित वर्ग
159
यमक वर्ग
176
आकंख वर्ग
191
थेर वर्ग
206
10
226
11
श्रमण संज्ञा वर्ग
253
12
प्रत्योरोहणि वर्ग
263
13
परिशुद्ध वर्ग
275
14
साधु वर्ग
278
15
आर्य वर्ग
280
16
पुद्गल वर्ग
282
17
जाणुश्रोणी वर्ग
283
304
19
आर्य मार्ग वर्ग
307
20
अपर पुद्गल वर्ग
309
21
करजकाय वर्ग
310
22
श्रामण्य वर्ग
328
23
रागपेय्याल
332
ग्यारहवाँ निपात
निश्चय वर्ग
334
अनुस्मृति वर्ग
348
373
375
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