आयुर्वेदिक भोजन संस्कृति (बनाने और खाने की कला): The Art of Cooking in Ayurveda

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Item Code: NZA220
Publisher: Radhakrishna Prakashan Pvt. Ltd.
Author: डा.विनोद वर्मा (Dr. Vinod Verma)
Language: Hindi
Edition: 2024
ISBN: 9788183612135
Pages: 199 (Throughout B/W Illustrations)
Cover: Hardcover
Other Details 8.5 inch x 5.5 inch
Weight 230 gm
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Book Description
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आयुर्वेदिक भोजन संस्कृति

[बनाने और खाने की कला]

 

आयुर्वेद आयु का विज्ञान है जो जीवन के प्रत्येक पहलू से जुड़ा है 'आयुर्वेदिक भोजन' आयुर्वेदिक जीवन शैली का अंग है और भोजन बनानेके अन्य अंगों को अपनाए बिना यह प्रयास अपूर्ण है

 

'आयुर्वेदिक भोजन क्या है? आयुर्वेदिक भोजन संस्कृति के प्रमुख तत्त्व, बुनियादी ज्ञान एवं आधारभूत बातें, रसों का व्यावहारिक स्वरूप, भोजन बनाने की मूल वस्तुओं का संकलन, भोजन के छह आयाम तथा आयुर्वेदिक भोज्य व्यंजन (नाश्ते के व्यंजन, प्रमुख भोजन, सूप, सहायक खाद्य पदार्थ आदि) पर सम्पूर्ण सामग्री के अलावा खाद्य पदार्थो, जड़ी-बूटियों और मसालों की पूर्ण जानकारी

 

आयुर्वेद विशेषज्ञ डी. विनोद वर्मा के वर्षो के शोध और परिश्रम का निष्कर्ष यह पुस्तक स्वास्थ्य की देखभाल के लिए आयुर्वेदिक भोजन बनाने और खाने की कला के विषय में सम्पूर्ण जानकारी देती है

 

जीवन परिचय

डॉ.विनोद वर्मा

 

डॉ.विनोद वर्मा का जन्म ऐसे परिवार में हुआ जहाँ हर रोज के क्रियाकलाप में 'योग' और 'आयुर्वेद' की बड़ी महत्वपूर्ण भूमिका रही । इन्होंने पिता और दादी माँ सै आयुर्वेद और योग की प्रारम्भिक शिक्षा ग्रहण की । पंजाब विश्वविद्यालय से प्रजनन जीव-विज्ञान मैं और पैरिस विश्वविद्यालय से तन्त्रिका जीव-विज्ञान में पी-एच.डी । नेशनल इंस्टिट्यूट ऑफ हेल्थ, अमेरिका मैं और फिर मैक्स प्लंक इस्टिट्यूट जर्मनी में शोध-कार्य किया ।

 

शोध के दौरान डी. वर्मा ने अनुभव किया कि नीरोग अवधान सम्बन्धी नई अवधारणा विखंडित है, इसके वावजूद हम स्वास्थ्य-सम्पोपण को त्यागकर सिर्फ रोगों के इलाज पर ही अपने समस्त साधन और प्रयास लगाते जा रहे हैं । उन्होंने प्राचीन परम्परा की ओर लौटने का निश्चय किया । अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिए उन्होंने सन् 1987 में द न्यू वे हेल्थ ऑर्गेनाइजेशन (Now) की स्थापना की । इसका एक केन्द्र दिल्ली कै निकट नोएडा में और दूसरा केन्द्र हिमालय की गोद में है, जहाँ विद्यार्थियों को प्राचीन भारतीय परम्परा पर आधारित आयुर्वेद की शिक्षा दी जाती है ।

 

डॉ.वर्मा पिछले कई वर्षेा से बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय कै आचार्य प्रियव्रत शर्मा के साथ प्राचीन गुल-शिष्य परम्परा के अनुसार आयुर्वेदिक ग्रन्थों का अध्ययन कर रही हैं । हर वर्ष कुछ महीने वै विदेश मैं बिताती हैं, जहां आयुर्वेद और योग द्वारा स्वास्थ्य तथा दीर्घायु जैसै विषयो पर उनके भाषण तथा कार्य-शिविर अत्यन्त लोकप्रिय हैं ।

 

प्रकाशन: पतंजलि योगा एंड प्रैक्टिस इन आयुर्वेदा, योगा फॉर इंटिग्रल हेल्थ, योगा सुत्राज ऑफ पतंजलि ए साइंटिफिक एक्सपोजिशन, सिक्सटीन मिनट्स टु लघु बैटर नाइन टु फाइव (अंग्रेजी मैं) तथा दैनिक जीवन में आयुर्वेद, नारी कामसूत्र तथा आयुर्वेद और योग । अधिकांश पुस्तकों का जर्मन, इतालवी, डच तथा अन्य भाषा में अनुवाद । समय-समय पर आयुर्वेद-केन्द्रित व्याख्यानों का संसार-भर में रेडियो और टेलीविजन पर प्रसारण ।

उद्घोषणा

 

इस पुस्तक में दी गई जानकारी का उद्देश्य किसी चिकित्सक की सेवाओं का स्थान लेना नहीं है । यहाँ स्वास्थ्यपूर्ण भोजन और व्यंजनों का जो वर्णन किया गया है, वह भोजन पकानेवाले को सहायता और शिक्षा देने के उद्देश्य से ही किया गया है । इस पुस्तक में जो सामग्री दी गई है, उसके सम्बन्ध में किसी चिकित्सकीय दावे के लिए लेखिका या प्रकाशक किसी प्रकार से उत्तरदायी नहीं माने जाएँगे।

 

इस पुस्तक में भोजन बनाने की जो विधियाँ दी गई हैं, उनका व्यावसायिक स्तर पर; जैसे-स्वास्थ्य सुधार केन्द्रों, होटलों अथवा कैंटीनों में प्रयोग करने सै पूर्व लेखिका की पूर्व अनुमति आवश्यक है। अधिक जानकारी प्राप्त करने के लिए सीधे लेखिका या प्रकाशक से पत्राचार किया जा सकता है।

 

प्रस्तावना

 

मेरे विश्वव्यापी छात्रों तथा पाठकों की माँग पर यह पुस्तक लिखी जा रही है । इसी विषय पर आधारित मेरी पिछले तीन पुस्तकों में भी आयुर्वेदिक जीवनशैली और उनमें यत्र-तत्र अनेक व्यंजनों की चर्चा की गई है । मेरी पूर्व पुस्तकों का उद्देश्य आयुर्वेदिक सिद्धान्तों के अनुसार भोजन पकाने का ज्ञान कराना रहा है जिन्हें पाठक अपनी रुचि के अनुसार अदल-बदलकर भोजन बनाने में प्रयोग कर सकें । इनका उद्देश्य आपके शरीर की प्रकृति से सन्तुलन बनाए रखनेवाले पदार्थ तैयार करना है जो मौसम, ऋतु-विशेष अथवा स्थान-विशेष की जरूरतों के भी अनुरूप हो । अत: आयुर्वेदिक व्यंजन तैयार करने से पूर्व आयुर्वेद की आधारभूत बातों का ज्ञान होना जरूरी है । आयुर्वेद आयु का विज्ञानहै जो जीवन के प्रत्येक पहलू से जुड़ा है । यह सत्यत: धर्म-विज्ञान है जो ब्रह्मांडीय एकत्व में विश्वास रखता है और उसका मत है कि ब्रह्मांड में हुए हर परिवर्तन की बहुविध प्रतिक्रिया होती है, क्योंकि सबकुछ एक-दूसरे से जुड़ा है, सम्बद्ध है और एक-दूसरे पर? निर्भर है । आयुर्वेदिक भोजन संस्कृति के आधारभूत पहलुओं की चर्चा किए बिना आयुर्वेदिक व्यंजन तैयार करने की चर्चा करना मुझे अनुपयुक्त लगा । अत: इस पुस्तक में सबसे पहले आयुर्वेदिक भोजन संस्कृति की चर्चा की जाएगी, उसके बाद आयुर्वेदिक व्यंजनों के विषय में लिखा जाएगा ।

 

आयुर्वेदिक भोजन आयुर्वेदिक जीवनशैली का अंग है और भोजन बनाने के अन्य अंगों को अपनाए बिना यह प्रयास अपूर्ण रहेगा और उसका लाभ आशिक ही होगा । इस पुस्तक-लेखन का उद्देश्य आयुर्वेदिक भोजन संस्कृति से परिचित कराना है और आयुर्वेदिक भौजन बनाने के अन्य पहलुओं का ज्ञान पाने कै लिए पाठक को प्रोत्साहित करना है । वास्तव में, जब आप यह जान लेंगे कि आयुर्वेद अखाद्य वस्तुएँ खाकर रोगग्रस्त होने अथवा अपने प्रिय खाद्य एवं पेय पदार्थ पीने से रोकने में विश्वास नहीं करता । तब आप पाएँगे कि इस चिकित्सा प्रणाली पर विश्वास बढ़ाने और इसके अनेकानेक आयामों कौ समझने और अपनाने में किया जा सकता है ।

 

आयुर्वेदिक भोजन-प्रणाली का अर्थ विभिन्न बीजों, जड़ी-बूटियों तथा मसालों के संयोग से ऐसा आहार तैयार करना है जिससे आपके शरीर में समरसता बढ़े और स्वास्थ्य सबल हो । यह भोजन ऐसा हो जिससे शरीर का 'ओजस' बढ़े । इसमें आप क्या पदार्थ खाते हैं, कैसे खाते हैं तथा कितना खाते हैं, इन बातों की भी जानकारी महत्त्वपूर्ण होती है । अच्छा खाना वही होता है जौ स्थान, मौसम, ऋतु, विशिष्ट स्थितियों (जैसे अधिक थकान, रुग्णावस्था, तनाव इत्यादि) और व्यक्ति की निजी प्रकृति के अनुकूल हो । इसके लिए जरूरी है कि जीं भोजन तैयार किया जाए, वह सृष्टि के निर्माणकारी पंच तत्त्वों(आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी) तथा इन तत्त्वों के सन्तुलन के अनुरूप हो । आयुर्वेदिक भोजन पकाने का कार्य सही रूप से करने के लिए इन सभी आधारभूत बातों को जान-समझ लेना भी अत्यन्त आवश्यक होता है |

 

जब हम आयुर्वेटिक पाक कला की बात करते हैं तो इसका अर्थ समस्त भारर्ताय भोज्य पदार्थ आयुर्वेदिक नहीं होते और प्रत्येक आयुर्वेदिक भोजन भारतीय ही हो, यह भी आवश्यक नहीं है । भोजन बनाने के आयुर्वेदिक सिद्धान्तों का पालन भारतीय घरों में वहुत बड़ी संख्या में होता भी है किन्तु समस्त भारतीय भोजन आयुर्वेदिक सिद्धान्तों के अनुसार नहीं पकाया जाता । आयुर्वेदिक पाक-कला की अधिकांश आधुनिक पुस्तकें विशेषत: पश्चिमी देशों में, पाक शास्त्र का ज्ञान ठीक ढंग से नहीं देतीं । उदाहरण के लिए, अधिकांश भारतीय घरों में रोटी, गेहूँ के आटे से तवे पर बनाई जाती है । इसमें न तो नमक डाला जाता है और न चिकनाई । चपाती बन जाने पर उस पर थोड़ा-सा घी चुपडु दिया जाता है । ये चपातियाँ सब्जियाँ या सामिष सब्जी से खाई जाती हैं जौ नमकीन होती हैं । किन्तु मुझे यह देखकर आश्चर्य हुआ कि अधिकांश आयुर्वेदिक व्यंजन पुस्तकों में माड़ हुए आटे में थोड़ा-सा नमक मिलाने का आग्रह किया गया है, जो पश्चिमी भोजन की तर्ज पर है । इनके अलावा, आयुर्वेदिक पाक-कला के नाम पर खूब तली हुई, घी-तेलवाली चीजें सभी कुछ लिखा हुआ है । आयुर्वेद के प्राचीन ग्रन्यों में इस प्रकार की भोज्य वस्तुएँ बनाना प्रतिबन्धित है और यदि बनाना भी हो तो इनमें ऐसे मसाले मिलाने की सलाह दी गई है, जो पाचन-शक्ति बढ़ाते हैं किन्तु इन मसालों का वर्णन आजकल की पाक-कला की पुस्तकों में नहीं किया जाता है ।

 

मैंने यह पुस्तक आयुर्वेदिक विधि से भोजन तैयार करने की दृष्टि से लिखी है जिसमें बताया गया है कि किसी खास व्यंजन में कोई मसाला क्यों प्रयोग किया जाता है और इसका वैज्ञानिक कारण क्या है । इस प्रकार आप आयुर्वेदिक व्यंजन बनाना ही नहीं सीखेंगे वरन् यह भी जानेंगे कि उस मसाले को अन्य व्यंजन बनाते समय उपयुक्त समय पर कैसे मिलाएँ जिससे व्यंजन सन्तुलन तथा आयुर्वेदिक सिद्धान्तों के अनुसार स्वास्थ्यवर्धक बन सके ।

 

इस पुस्तक में अनेक ऐसे व्यंजनों का भी वर्णन किया गया है, जो आधुनिक जीवन कला के अनुरूप है, जिन्हें मैंने अपनी सूझ-बूझ के आधार पर तैयार किया है ताकि साधनों और समय की सीमाओं में रहकर भी उन्हें बनाया जा सके और उनका आनन्द लिया जा सके। मैंने अपने वयस्क जीवन का प्रमुख भाग यूरोप में बिताया है और सारे विश्व का भ्रमण किया है । इसी से व्यंजनों के मेरे चयन में देश-विदेश की छाप है किन्तु उनमें आयुर्वेदिक सिद्धान्तों के अनुसार परिवर्तन कर दिया गया है। इन सभी व्यंजनों की पाक-कला के लिए मुझे न तो आयुर्वेद और न पाक-कला विषयक अनुसन्धान करना पड़ा है । मैं तो बड़े परिवार में पली-बढ़ी हूँ अत: आयुर्वेदिक भौजन संस्कृति की बुनियादी बातें सहज रूप से भौजन बनाते-खाते समय सीखी हैं । इस ज्ञान कै साथ-साथ यह भी सीखा है कि कब किसके साथ क्या-कैसे खाया जाए। विदेशी प्रवास में जब मेरी विवशता विभिन्न प्रकार के व्यंजन बनाने की पड़ी तो मैं भारत में अर्जित इस ज्ञान के आधार पर ही उन्हें बताती थी । विदेशों में रहने कै दौरान मैंने अपनी सुविधा के लिए विभिन्न व्यंजन आयुर्वेदिक मसालों आदि के प्रयोग से ही बनाने के परीक्षण भी किए । यदि कोई व्यक्ति सन्तुलन और सुख-सुविधा की आयुर्वेदिक भोजन संस्कृति को अपनाता चलता है तो स्वाभाविक रूप से अनायास ही उसका आभास उसके व्यक्तित्व से प्रकट होता है क्योंकि भोजन का प्रभाव उसके स्वास्थ्य एवं व्यक्तित्व सै झलक जाता है । इस पुस्तक के लिए मुझे सबसे अधिक प्रयास तौ हर व्यंजन में प्रयुक्त सामान तथा मसालों की नाप-तौल में करना पड़ा क्योंकि घर में तो कुछ भी नाप-तौल कर नहीं वरन् अन्दाजे से ही चलता था जो प्राय: एकदम जरूरत के अनुसार सही बैठता था । अगर आप इस तरह का अभ्यास करेंगे तो आप भी आसानी से यह तरीका अपना सकेंगे ।

 

आयुर्वेदिक पाक क्रिया में हमें सभी बुनियादी वस्तुओं की आवश्यकता होती है । इसलिए प्रस्तुत पुस्तक के पहले अध्याय में इन्हीं बातों की चर्चा की गई है । प्रस्तुत पुस्तक को मैंने आयुर्वेदिक भोजन संस्कृति के विविध पक्षों से ही सम्बन्धित रखा है । मुझे विश्वास है कि आप लोग इस व्यंजन पाक-कला का वैसे ही आनन्द उठा पाएँगे जैसे संसार के विभिन्न देशों में अनेक वर्षो से मेरे आयुर्वेदिक विद्यार्थी अभी तक उठाते आए हैं ।

 

बुनियादी तौर पर आयुर्वेद के अनुसार शाकाहारी भोजन ही अच्छे स्वास्थ्य का पक्षधर नहीं है । आयुर्वेदिक भोजन संस्कृति के अनुसार भोज्य पदार्थ चाहे शाकाहारी हो या मांसाहारी, वह ब्रह्मांडीय सिद्धान्तों के अनुसार सन्तुलित होना चाहिए । इस दृष्टि से नैतिकतानुसार तटस्थ वृत्ति अपनाई जाती है । आयुर्वेद में, पशु वसा और प्रोटीन प्राप्त करने की दृप्टि से दूध का सर्वाधिक महत्त्व है । व्यक्तिश: मैं न तो मांसाहार करती हूँ और न अंडे खाती हूँ क्योंकि जिस परिवार में मैं जन्मी, पली-बढ़ी हूँ उसमें शाकाहारी भोजन परम्परानुसार सदियों से किया जाता है । मैं मांस-भक्षण को बर्बरतापूर्ण समझती हूँ । योग-पद्धति में मान्य अहिंसा की परम्परा से भी मैं प्रभावित हूँ । संसार के कुछ भागों में मांस खाना परमावश्यक हो सकता है किन्तु परिवहन साधनों के अत्यधिक विकास से यह आवश्यकता अब समाप्त होती जा रही है । अन्य दो कारणों से भी मैं मांसाहार की विरोधी हूँ । जैविकीय दृष्टि से मानव भी पशु के समीप ही है; अत: पशु का मांस खाना न तो मन को प्रिय होता है 'और न सुधा शान्त करनेवाला होता है । भॉति-भाँति के रंगों की वनस्पतियों मैं मुझे प्राणशक्ति छलछलाती दिखती है । मांस पशु को मारकर प्राप्त किया जाता है; अत: वह मृत खाद्य है । इस कथन को एक प्रमुख वैद्य आचार्य वृहस्पति देव त्रिगुणा का मन्तव्य कहकर समाप्त करना चाहूँगी । उनका कहना था कि जब पशुओं को मारने के लिए बूचड़खाने ले (जाया जाता है तो पशु कौ ज्ञात होता है कि मेरा अन्त आनेवाला है । अतएव उनके मांस में भय, कष्ट, क्रोध और हताशा के नकारात्मक भाव भरे होते हैं। इस मांस कौ खाने पर मांसाहारी व्यक्ति में भी वे भाव आते हैं । इसके विपरीत दूध इससे सर्वथा भिन्न होता है क्योंकि पशु प्रेम-भाव से उमग कर ही दूध देता है ।

 

अनुक्रम

सादर समर्पण

V

उद्घोषणा

VII

आभार

IX

प्रस्तावना

XI

पहला भाग : आयुर्वेदिक भोजन संस्कृति

अध्याय-1 : आयुर्वेदिक भोजन संस्कृति का परिचय

19-48

आयुर्वेदिक भोजन क्या है?; व्यक्ति की प्रकृति; शरीर की (त्रिदोषों की) तीन ऊर्जाएँ; छह आयामी मानव सन्तुलन; वैयक्ति प्रकृति; सात प्रकार की प्रकृतियाँ; प्रकृति का महत्त्व; भोज्य पदार्थ; षड्ररस और पंचमहामृत आयुर्वेद में छह रसों का वर्णन; विभिन्न रसों के उदाहरण; रस-प्रभावों के अपवाद;वात, कफ, पित्त और षड्रसों में सन्तुलन;आयुर्वेदिक भोजन संस्कृति की विशेषताएँ; आयुर्वेदिक भोजन संस्कृति के सिद्धान्त की समझ;आप कौन हैं?; आपकी प्रकृति और भोजन में सम्बन्ध; आप कब और क्या खाएँ; शरीर-प्रकृति और समय के साथ आपके भोजन का सम्बन्ध; कहाँ क्या खाएँ; शरीर-प्रकृति, समय और स्थान का हमारे भोजन से सम्बन्ध; विशेष परिस्थितियों में क्या-कुछ खाएँ; कैसे और कितना खाएँ; आयुर्वेदिक भोजन संस्कृति के प्रमुख सिद्धान्त; आयुर्वेद पाक-कला समझनेकी सरल विधि; रसों काव्यावहारिक पक्ष; ब्रह्मांड के रसों को समझें; शराब और तम्बाकू भोजनअमृत अथवा विष; विकृति हो जाने पर आपके भोजन में क्या हो

अध्याय-2 आपके भोजन का प्राण तत्व

49-55

भोजन के छह आयाम; भोजन की उत्कृष्टता

अध्याय-3 बुनियादी आयुर्वेदिक पाक-पदार्थ

56-82

जड़ी-बूटियाँ और मसाले; नमक; काली मिर्च; पीपल; दालचीनी; लवंग या लौंग; छोटी और बड़ी इलायची; छोटी इलायची; बड़ी इलायची; जीरा; सौंफ; धनिया; कलौंजी; मेथी; सरसों; अजवाइन; सोया; हल्दी; सोंठ-अदरक; लहसुन; चन्सूर या हलीम; जायफल और जावित्री; केसर; तुलसी; पुदीना; हींग; मिर्च; मसालों की सफाई और उनको सँभालकर रखना; अनाज तथा आटा; घी और विविध प्रकार के तेल; अन्य वस्तुएँ; सामान -कुटने पीसने की मशीन; मसालों का मिश्रण; दुग्ध पदार्थो से बने भोज्य पदार्थ; बीजों का अंकुरण और बूटियों का उत्पादन

दूसरा भाग : आयुर्वेदिक भोज्य पदार्थ (पाक-विधि)

अध्याय4 : व्यंजन कैसे बनाएँ?

83- 186

नाश्ते की सामग्री एवं पाक-विधि; फल संरक्षण विधियाँ; सूप; कुछ गुनगुनी प्रारम्भिक चीजें; पास्ता; चावल; कुछ अन्य खाद्यान्न; विविध सब्जियाँ; साँस से बननेवाली व्यंजन; तले बैंगनोंवाली सब्जियाँ; पालक; लौकी; करेला; भिंडी; आलुओं के व्यंजन; भुनी हुई सब्जियाँ; पनीर; सलाद; रोटियाँ; चपाती; पराँठा; डोसा; सलाद और दही के साथ चपाती; गर्म सब्जियों और दही की सॉस के साथ चपाती; बीन्स और दालें; चने के व्यंजन राजमा; सोयाबीन और साबुत दालें; खिचड़ी; सहयोगी व्यंजन; रायता; चटनियाँ; अचार; भोजनोपरान्त मिष्ठी; चाय; फल-सब्जियों का ताजा रस; पेय पदार्थ;

परिशिष्ट

(i) देश-काल के अनुरूप भोजन,

(ii) शान्तिचित्तता और सौन्दर्यबोध,

(iii) साफ-सुथरा प्राणशक्ति पूर्ण भोजन हो,

(iv) सहयोगी भोजन

(v) भोजन से पेट को राहत,

(vi) भोजन और आपकी मुखकान्ति,

(vii) आयुर्वेदिक पोषक आहार और

(viii) क्या आयुर्वेदिक शाकाहारी है -सर्वथा निरापद है?

तालिका

तालिका- 1: षड्ररसों तथा त्रिदोष ऊर्जाओं का सम्बन्ध

तालिका-2: दिन के समय, आयु और जलवायु का शरीर की प्रकृति से सम्बन्ध

तालिका-3: खाद्य पदार्थ

तालिका-4: मुश्किल से पचनेवाले और परस्पर विरोधी खाद्य पदार्थ

तालिका-5: विभिन्न श्रेणियों के खाद्यों का वर्गीकरण

 

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