बाणभट्ट की आत्मकथा
आचार्य हजारी प्रसाद दिवेद्धी की विपुल रचना- सामर्थ्थ का रहस्य उनके विशद शास्त्रीय ज्ञान में नहीं, बल्कि उस पारदर्शी जीवन- दृष्टि में निहित है, जो युग का नहीं, युग-युग का सत्य देखती है। उनकी प्रतिभा ने इतिहास का उपयोग तीसरी आँख किया है।अतीतकालीन चेतना-प्रवाह को वर्तमान जीवधारा से जोड़ पाने में वह के रूप में आश्चर्यजनक रूप से सफल हुई है।
बाणभट्ट की आत्मकथा अपनी समस्त औपन्यासिक संरचना और भंगिमा में कथा-कृति होते हुए भी महाकाव्यत्व की गरिमा से पूर्ण है। इसमें दिवेद्धी जी ने प्राचीन कवि बाण के बिखरे जीवन-सूत्रों को बड़ी कलात्मकता से गूँथकर एक ऐसी कथाभूमि निर्मित की है जो जीवन-सत्यों से रसमय साक्षात्कार कराती है। इसमें वह वाणी मुखरित है जो समागान के समान पवित्र और अर्थपूर्ण है- सत्य के लिए किसी से न डरना, गुरु से भी नहीं, मंत्र से भी नहीं; लोक से भी नहीं, वेद से भी नहीं।
बाणभट्ट की आत्मकथा का कथानायक कोरा भावुक कवि नहीं वरन् कर्मनिरत और संघर्षशील जीवन-योद्धा है । उसके लिए शरीर केवल भार नहीं, मिट्टी का ढेला नहीं, बल्कि उसके बड़ा है। और उसके मन में आर्यावर्त के उद्धार का निमित बनने की तीव्र बेचैनी है।अपने को नि:शेष भाव से दे देने में जीवन की सार्थकता देखनेवाली निउनिमा और सब कुछ भूज जाने की साधना मे लीन महादेवी भटि्टनी के प्रति उसका प्रेम जब उच्चता का वरण कर लेता है तो यही गूँज अंत में रह जाती है वैराग्य क्या इतनी बड़ी चीज है कि प्रेम देवता को उसकी नयनाग्नि में भस्म कराके ही कवि गौरव का अनुभव करे |
हजारीप्रसाद द्विवेदी
बचपन का नाम : बैजनाथ द्विवेदी ।
जन्म : श्रावण शुक्ल एकादशी सम्बत् 1964 (1907 ई.) । जना-स्थान : आरत दुबे का छपरा ओझवलिया, बलिया (उत्तर प्रदेश) । शिक्षा : संस्कृत महाविद्यालय, काशी में । 1929 ई. में संस्कृत साहित्य में शास्त्री और 1930 में ज्योतिष विषय लेकर शास्त्राचार्य की उपाधि । 8 नवम्बर, 1930 को हिन्दी शिक्षक के रूप में शान्तिनिकेतन में कार्यारम्भ वहीं 1930 से1950 तक अध्यापन; सन् 1950 में काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में हिन्दी प्राध्यापक और हिन्दी विभागाध्यक्ष; सन् 1960-67 में पंजाब विश्वविद्यालय, चंडीगढ़ में हिन्दी प्राध्यापक औरविभागाध्यक्ष; 1967 के बाद पुन: काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में; कुछ दिनों तक रैक्टर पद पर भी ।
हिन्दी भवन, विश्वभारती के संचालक 1945-50; विश्व-भारती विश्वविद्यालय कीएक्ज़ीक्यूटिव काउन्सिल के सदस्य 1950-53; काशी नागरी प्रचारिणी सभा के अध्यक्ष 1952-53 साहित्य अकादेमी, दिल्ली की साधारण सभा और प्रबन्ध-समिति के सदस्य; राजभाषा आयोग के राष्ट्रपति-मनोनीत सदस्य 1955 ई.; जीवन के अन्तिम दिनों में उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान के उपाध्यक्ष रहे । नागरी प्रचारिणी सभा, काशी के हस्तलेखों की खोज ( 1952) तथा साहित्य अकादेमी से प्रकाशित नेशनल बिक्तियोग्राफी (1954) के निरीक्षक। सम्मान : लखनऊ विश्वविद्यालय से सम्मानार्थ डॉक्टर ऑफ लिट्रेचर उपाधि ( 1949), पद्मभूषण (1 957), पश्चिम बंग साहित्य अकादेमी का टैगोर पुरस्कार तथा केन्द्रीय साहित्य अकादेमी पुरस्कार ( 1973) ।
देहावसान : 19 मई, 1979|
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