यह प्रत्यक्ष एवं प्रमाणित है कि बेविनकोप्प के श्री गुरुदेव नित्यानंदाश्रम के स्वामी विजयानंद जी ने कड़वे बेविनकोप्प (नीम के पत्ते) को 'ॐ नमो भगवते नित्यानन्दाय' नामक बीज से रोपकर पाला, आनंद से युक्त स्वादिष्ठ बनाया।
इस आनंद के स्वाद को नित्यानंद के दिव्य दर्शन से मुंबई की पत्रिका 'कर्नाटक मल्ल' में लेखनमाला के रूप में प्रकाशित किया है।
श्री नित्यानंद जी के भक्त समूह के वृंदावन के फूलों की क्वारी कितनी रमनीय है, यह देखकर आश्चर्य होता है। भक्तों के अनुभव का आनंदरूपी मकरंद इन सभी फूलों में भरा है। उस मधु को संग्रहित करना भँवरे के समान श्री विजयानंदस्वामी जी भक्तों के पास जाकर पिछले ग्रंथ में जो लिखा था, उस चरित्र को जीवंतता प्रदान किये हैं। नये स्वाद के मधु को हमें प्रदान किया है।
सत्य का अर्थ होता है भक्त का रहस्य। उसे वह अनुभव के कपाट में सुरक्षित रखकर आस्वादन करता रहता है। श्री नित्यानंद जी की लिलाएँ, पुराण प्रसिद्ध अवतार श्री कृष्ण से साम्यता रखते हैं। विष को अमृत में परिवर्तित करना पूतनी का विष पीने जैसा है। विषमिश्रित तम्बाकू को खाकर लोककंटक के विष को उतारा, यह सामान्य बात नहीं है। यह श्री नित्यानंद का शरीर 'लीला मानुष विग्रह' को निश्चित करनेवाला एक दस्तावेज है।
आध्यात्मिक ज्ञान का उपदेश हमें प्राप्त होना है तो पूर्ण शरणागति और मन में खाली जगह की आवश्यकता रहती है। अर्जुन कुरुक्षेत्र में अपने बंधुओं के व्यामोह से जर्जरित होकर विषाद से श्रीकृष्ण से प्रार्थना करता है, भगवान श्री कृष्ण अपने होंट बिना हिलाये सुनता है। सबकुछ कहकर मन खाली करके, तुम्हीं हमारी रक्षा करो कहकर शरणागत हो अर्जुन हाथ जोडकर प्रार्थना करके मौन धारण करता है, उसके बाद भगवद्गीता के शेष 17 अध्याय उभरकर आते हैं।
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