'ज़िन्दगी का सफर' का प्रथम भाग में संघर्षमय जीवन के प्रथम तीस वर्ष का वृत्तान्त है। पाठकों ने इसे बहुत पसन्द किया और समालोचकों ने इसकी भूरि-भूरि प्रशंसा की। कुछ ने इसे कश्मीर समस्या की पृष्ठभूमि कहा और कुछ ने इसके विकास का अति सजीव चित्रण माना। इसकी रोचक शैली की सभी ने सराहना की है। यह संस्करण बहुत जल्दी समाप्त हो गयाः परन्तु, क्योंकि में अपनी आत्मकथा का द्वितीय भाग शीघ्र नहीं लिख पाया, इस कारण प्रथम भाग के द्वितीय संस्करण के पुनर्मुद्रण में विलम्ब होता गया। अब 'हिन्दी साहित्य सदन' के सौजन्य से प्रथम भाग का द्वितीय संस्करण और द्वितीय भाग एक-साथ प्रकाशित हो रहे हैं। मुझे आशा है कि पाठकों को दोनों भाग एक-साथ पढ़ने से देश-विभाजन के अभिशाप और इसके जम्मू-कश्मीर राज्य पर प्रभाव का ज्ञान होगा। साथ ही, कश्मीर की रक्षा और इसे खण्डित भारत में मिलाने में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की और मेरी भूमिका तथा शेख अब्दुल्ला के कुत्सित इरादों और पं० नेहरू की भूलों के सन्दर्भ में स्वतंत्र भारत के संक्रमण-काल की राजनीति और इतिहास को समझने में भी सहायता मिलेगी।
बौद्धिक प्रवृत्ति के राजनैतिक व्यक्तियों के लिए जेल का काल कुछ अवकाश और चिन्तन-मनन का समय होता है। उस काल में लिखने की ओर ध्यान जाता है।
१९५३ में कश्मीर-आन्दोलन के समय मुझे 'निवारक नज़रबन्दी कानून' के अन्तर्गत बन्दी बनाया गया था। तब विख्यात साहित्यकार और मनीषी वैद्य गुरुदत्त भी मेरे साथ थे। उनकी प्रेरणा से मैंने जेल में कश्मीर पर पाकिस्तानी आक्रमण के सम्बन्ध में आत्म-अनुभूति के आधार पर अपना पहला उपन्यास 'जीत या हार' लिखा था। आपातकाल की घोषणा के बाद जुलाई १९७५ में मुझे मीसा बन्दी बना लिया गया। इस बार का बन्दी-काल १८ महीने लम्बा था। अनेक अन्य गण्यमान्य राजनैतिक बन्धु मेरे साथ थे। बाहर की दुनिया से कुछ समय के लिए तो हम बिल्कुल कट गए थे। पढ़ने की सामपी भी बहुत कम थी। इसलिए मैंने अधिक समय लिखने में लगाया। मेरी जेल में लिखी अंग्रेजी और हिन्दी की कई कृतियाँ प्रकाशित हो चुकी हैं। अभी तक अप्रकाशित कृतियों में यह आत्मकथा का पहला खंड है। इसे लिखना तो जेल में शुरू किया था परन्तु वहाँ पूरी नहीं की जा सकी। जनवरी १९७७ में जेल से बाहर आने के बाद राजनैतिक गतिविधियों और पारिवारिक जिम्मेदारियों के कारण इसे अंतिम रूप देने में समय लगा।
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