हम कौन थे, क्या हो गए, क्या होंगे अभी आओ मिल विचार करें, इन समस्याओं पर सभी 'भारत भारती' की ये पंक्तियाँ इस किताब की प्रेरणास्रोत हैं। में विज्ञान का विद्यार्थी रहा। मैंने कभी इतिहास, भूगोल, संस्कृति और धर्म की अकादमिक शिक्षा प्राप्त नहीं की। साहित्य में रुचि है इसलिए इन विषयों को साहित्य के रूप में पढ़ा। मेरे अधिकांश मित्र वे हैं, जो विज्ञान की पढ़ाई करके नौकरी में आए। मेरा उनके परिवार में उठना-बैठना है। मेरे और उनके बच्चे इंजीनियरिंग, मेडिकल, एम.बी.ए. और सी.ए. आदि की पढ़ाई कर रहे हैं। इस प्रकार मेरे मित्र और बच्चे, जिनसे मेरी बातचीत होती रहती है, वे भारत के इतिहास, संस्कृति और धर्म के विषय में उतना ही जानते हैं, जो पत्र-पत्रिकाओं में प्रायः छपता रहता है। अतः इस देश में मेरी पीढ़ी के बहुत लोग और नई पीढ़ी के युवा, इन विषयों से अनजान से हैं। किसी हद तक उन्हें गलत जानकारी है, जिसके कई कारण हैं। मेरी इच्छा हुई कि मैं अपने मित्रों, परिचितों, पाठकों और देश की युवा पौड़ी के लिए एक ऐसी किताब लिखूँ जिसमें भारत के इतिहास, संस्कृति और धर्म पर वैज्ञानिक ढंग से विचार किया गया हो। हमारे यहाँ इन विषयों को देखने की दो दृष्टियाँ हैं; एक तथाकथित मार्क्सवादी दृष्टि, जिसमें विषयों का उनकी तरह से विश्लेषण है। दूसरी है, इसके विपरीत दृष्टि, जिसमें अनावश्यक रूप से विषयों को गौरवशाली बताने की प्रथा है। एक संतुलित, विचारपूर्ण और वैज्ञानिक दृष्टि से इन विषयों को व्यक्त करने की कोशिश नहीं की गई। अपने सीमित अध्ययन-मनन के उपरांत मैने इस पुस्तक में वैज्ञानिक दृष्टि से विषयों पर विचार किया है।
पुस्तक में कई जगह आपको पुनरुक्ति दोष मिलेगा। एक पाठक की तरह पढ़ते हुए मुझे यह दोष मिला है। मैं चाहता तो इस दोष को दूर कर सकता था। टाइप होने के पश्चात् मैंने कई-कई बार पांडुलिपि को पढ़ा है। निश्चित रूप से कई जगह बातों का दुहराव है। जब मैं नए विषयों पर बात कर रहा हूँ तो उसे स्पष्ट करने के लिए मुझे पूर्व वर्णित संदर्भ दोहराने पड़े। ऐसा कई बार कई विषयों के साथ हुआ है। बिना संदर्भ दिए शायद वह विषय पूरी तरह स्पष्ट नहीं हो पाता। मुझे ऐसा लगा कि ऐसा करने से विषय- वर्णन ज्यादा प्रभावशाली बन पड़ा है। आप पड़कर ही मेरी बात से सहमत हो पाएँगे। यदि सहमत न हो पाएँ तो मैं निवेदन करना चाहूँगा कि जानबूझकर की गई मेरी इस गलती को नजरअंदाज करने की कृपा करेंगे।
मैंने अपने परिचितों में सैकड़ों लोगों से इन विषयों पर संवाद किया है। बड़े राजनेता, अफसर, पत्रकार, कलाकार और विद्यार्थी इन विषयों पर अपनी अलग-अलग राय रखते हैं। उनके अभिमतों को उन्हीं दो दृष्टियों से, जिनका जिक्र मैंने ऊपर किया, वर्गीकृत किया जा सकता है। अपने-अपने विश्वासों के प्रति लोगों के जबर्दस्त पूर्वाग्रह हैं। वैज्ञानिक दृष्टि, जिसका हम बहुत ढिंढोरा पीटते हैं, उस दृष्टि से इन विषयों पर सोचने का प्रयास क्यों नहीं किया जाता? मेरा अपना कोई पूर्वाग्रह नहीं है। मैं एक विश्लेषक हूँ। जो तथ्य मुझे जैसे दिखाई दिए, मैंने उन्हें ज्यों-का-त्यों प्रस्तुत किया है। मैं एक बहुत बड़े वर्ग को भारत के इतिहास, संस्कृति और धर्म के वैज्ञानिक पक्ष से परिचित कराना चाहता हूँ।
मेरे सामने सबसे बड़ी समस्या यह थी कि अपने विषयों की शुरुआत कहाँ से करूं? मैंने तीनों विषयों पर पाषाण युग से विचार करना प्रारंभ किया है। उस समय से लेकर वर्तमान इक्कीसवीं सदी तक, हमारा क्रमिक विकास कैसे हुआ? इतिहास के विषय में तो कई इतिहासवेत्ताओं ने विस्तार से लिखा है। संस्कृति और धर्म के क्षेत्र में विकासक्रम के अनुसार कम लिखा गया है।
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