'भरत का संगीत सिद्धान्त', ग्रंथ का प्रथम प्रकाशन १६५६ में, प्रकाशन शाखा, सूचना विभाग, उत्तर प्रदेश द्वारा किया गया था। प्राचीन भारतीय संगीत शास्त्र को आधुनिक भाषावली में सुस्पष्ट कराने वाली यह पहली पुस्तक थी । इसका विद्वत समाज एवं छात्र वर्ग पर व्यापक प्रभाव पड़ा और सीमित संख्या में छपने के कारण, इस ग्रन्थ का पुस्तकालयों में भी मिलना शीघ्र ही कठिन हो गया। पिछले एक दशक से इसकी अत्याधिक मांग रही है। हमें इस ग्रन्थ के पुनः प्रकाशन में अत्यधिक हर्ष का अनुभव हो रहा है।
संगीत के ऊपर मनन एवं सहृदय की मनोवृत्तियों पर उसके प्रभाव के विश्लेषण की पद्धति भारतीय परम्परा में बड़ी सशक्त और जीवन्त रही है। इसके इतिहास का विस्तार लगभग छठी शताब्दी ईसवी से मध्यकाल तक है जिसमें अनेक ग्रन्थ रूपी रत्न दीप्यमान हैं। उन सबका आगम भरत मुनि का नाट्यशास्त्र है। प्रस्तुत ग्रन्थ में परम श्रद्धेय आचार्य बृहस्पति द्वारा न केवल नाट्यशास्त्र का आगमत्त्व सिद्ध किया गया है, अपितु भारतीय सिद्धान्तों का कालान्तर में, विशेषतः मध्ययुग में, किस प्रकार लोप हुआ उसका भी विवरण दिया गया है। आधुनिक समय में, संगीत की एक नई शब्दावली बन रही है जो परम्परा से प्रचलित मान्यताओं एवं आधुनिक पाश्चात्य धारणाओं से प्रभावित 'है। ऐसी परिस्थिति में आर्ष परिभाषाओं का स्पष्ट एवं युक्तियुक्त अर्थ हमारे सामने होना अत्यन्त आवश्यक है। 'भरत का संगीत सिद्धान्त' द्वारा यह आपूर्ति बड़े प्रभावशाली रूप से की जाती है।
हमें आशा है कि इस पुस्तक का पुनर्प्रकाशन विषय पर फिर से विचार एवं मनन करने की प्रक्रिया दुबारा शुरू करेगा ।
'बृहस्पति पब्लिकेशन्स' संगीत एवं साहित्य के प्राचीन एवं श्रेष्ठ आधुनिक ग्रन्थों को पाठकों के समक्ष लाने के कटिबद्ध है। इस प्रकाशन विशेष को हम उसी प्रयास का कड़ी मानते हुए पाठकों के सौहार्द य की अपेक्षा करते हैं।
जर्मनी के महाकवि गेटे ने कहा है कि एक महान् चिन्तक जो सबसे बड़ा सम्मान आगामी पीढ़ियों को अपने प्रति अर्पण करने के लिए बाध्य करता है, वह है उसके विचारों को समझने का सतत प्रयत्न। महर्षि भरत ऐसे ही महान् चिन्तक थे, जिन्हें समझने की चेष्टा मनीषियों ने शताब्दियों से की है, परन्तु जिनके विषय में कदाचित् कोई भी यह न कहेगा कि अब कुछ कहने को शेष नहीं है। उनके रस- सिद्धान्त पर बड़े-बड़े कवियों और समालोचकों ने बहुत कुछ लिखा है और अभी न जाने कितने ग्रन्थ लिखे जायेंगे। उन्होंने संगीत पर कोई स्वतन्त्र ग्रन्थ नहीं लिखा, उनका ग्रन्थ है नाट्यशास्त्र। अपने यहाँ संगीत नाट्य का प्रधान अङ्ग माना गया है। भरत ने नाट्य में संगीत का महत्त्व इन शब्दों में स्वीकार किया है-
"गीते प्रयत्नः प्रथमं तु कार्यः शय्यां हि नाट्यस्य वदन्ति गीतम् । गीते च वाद्ये च हि सुप्रयुक्ते नाट्य-प्रयोगो न विपत्तिमेति ।।"
अर्थात् नाट्य-प्रयोक्ता को पहले गीत का ही अभ्यास करना चाहिए, क्योंकि गीत नाट्य की शय्या है। यदि गीत और वाद्य का अच्छे प्रकार से प्रयोग हो, तो फिर नाट्य-प्रयोग में कोई कठिनाई नहीं उपस्थित होती ।
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