आलाप
स्व० पं० विष्णुनारायण भातखण्डे द्वारा लिखित अनेक ग्रन्थों में स्वर मालिका पुस्तक का अलग महत्व है। इसके माध्यम से भातखण्डे जी ने रागों में निबद्ध ऐसी सरगमें प्रस्तुत की हैं जो सरल होने के साथ साथ राग ज्ञान, राग के चलन और उसके विस्तार को प्रकट करती हैं। इन सरगमों के माध्यम से गायक का गला और वादक का हाथ दोनों तैयार हो जाते हैं, जिनसे राग प्रस्तुतीकरण उनके लिए सरल हो जाता है। पुराने उस्ताद ऐसी सरगमों को छिपाकर रखा करते थे और उन्हें केवल अपने परम्परागत शिष्यों अथवा संतान को ही सिखाया करते थे । भातखण्डे ने ऐसी महत्त्वपूर्ण सरगमों की स्वर रचना करके संगीत जगत् को उपकृत किया।
स्वरमालिका पुस्तक का प्रकाशन उनके उसी प्रयत्न का परिणाम है। अब तक स्वर मालिका के अनेक संस्करण प्रकाशित हो चुके हैं, जिनसे संगीत जगत् ने पर्याप्त लाभ उठाया है। पिछले कुछ वर्षों से संगीत क्षेत्र के शोधार्थी व अनेक विद्वानों ने हमसे आग्रह किया था कि स्वर मालिका नाम को बदल दिया जाए क्योंकि उससे यह ज्ञात नहीं होता कि पुस्तक में क्या है। इस बात को ध्यान में रखकर हमने स्वर मालिका के इस संस्करण से उसका नया नाम भातखण्डे सरगम गीत संग्रह रख दिया है। इस नाम से अब स्पष्ट हो जाता है कि पुस्तक में क्या सामग्री दों गई है।
भातखण्डे जी ने स्वर मालिका पुस्तक को सर्वप्रथम गुजराती भाषा में गायन उत्तेजक मण्डली के माध्यम से प्रकाशित कराया था। बाद में उसका सर्वप्रथम हिन्दी अनुवाद हमने संगीत कार्यालय, हाथरस द्वारा प्रकाशित किया। इस पुस्तक में दी हुई कुछ सरगमों का प्रयोग भातखण्डे जी ने अपनी पुस्तक हिन्दुस्तानी संगीत पद्धति क्रमिक पुस्तक मालिका के भागों में भी किया है। लेकिन उनमें कुछ अलग परिवर्तन भी दिखाई देता है। संम्भव है भातखण्डे जी ने विद्यार्थियों की सुविधा के लिए ऐसा किया हो । हमारी दृष्टि में इस संग्रह में प्रकाशित सरगम गीत अधिक उपयोगी हैं। इन सरगमों को कंठ में उतार लिया जाए, तो व्यक्ति का राग ज्ञान और संगीत अभ्यास दोनों ही सुदृढ़ होंगे । सरगमों को केवल याद ही नहीं करना चाहिए बल्कि गायक और वादक दोनों को नित्यप्रति उनका पर्याप्त समय तक अभ्यास भी करना चाहिए । इससे कण्ठ और हस्त साधन में सिद्धि प्राप्त होगी। आशा है संगीत जगत् इस पुस्तक से यथेष्ट लाभ उठाएगा । बड़े बड़े संगीत साधक भी अपने नित्यप्रति के अभ्यास में इन सरगमों का अभ्यास करते हैं।
संगीतलिपि का परिचय
संगीत को अंकित करने के लिए कुछ संक्षिप्त चिह्नों की आवश्यकता है । प्रथम तो इन चिह्नों का प्रयोग जितना कम किया जाए उतना अच्छा है । इस पुस्तक में प्रयुक्त पद्धति के अनुसार रागो को दस ठाठ अर्थात् दस वर्गो में विभक्त किया गया है। ठाठों के योग से प्रत्येक राग में लगनेवाले कोमल व तीव स्वरों, मन्द्र, मध्य व तार सप्तकों के जिन विभिन्न चिह्नों का इस पुस्तक में उपयोग किया गया है, वे इस प्रकार हैं
सप्तक सम्बन्धी
मंद्र अर्थात् नीचे के सप्तक के चिह्न के लिए उस स्वर के नीचे बिन्दी दी गई है जैसे सा रे ग म ।
मध्य मध्य के सप्तक के स्वर चिह्न रहि त हैं, जैसे
सा रे ग म ।
तार ऊपर के सप्तक के स्वरों के ऊपर बिन्दी दी गई हु जैसे सां रे गं मै ।
स्वर सम्बन्धी
कोमल स्वरों के नीचे लकीर रखी गई है, जैसे रे ग ध नि । अचल स्वरं (सा) अर्थात् षड्ज और (प) अर्थात् पंचम हैं, ये दो स्वर कभी भी कोमल व तीव्र नहीं होते, इससे इन्हें अचल कहते हैं ।
शुद्ध या तीव्र स्वर उपर्युक्त दो स्वरों (सा और प) के अति रिक्त शेष पाँच स्वर रे ग म ध नि में से किसी भी स्वर के नीचे यदि कोमल का चिह्न न हो तो वह स्वर शुद्ध होगा । तीव्र मध्यम के ऊपर खड़ी लकीर है जैसे म, इसे विकृत मध्यम भी कहा जाता है ।
प्रस्तावना
परम कृपालु परमेश्वर की समस्त चेतन सृष्टि को आनंद प्रदान करनेवाली संगीत (जिसे दैवी कला की उपमा दी है) जैसी कला को प्रोत्साहन देने के उद्देश्य से आज से चालीस वर्ष पूर्व कतिपय स्थानीय पारसी ग्रहस्थों के सहयोग से स्व० सेठ केखशरु नवरोजी कावराजी ने हमारी गायन उत्तेजन मंडली की स्थापना की थी । गायन जैसी उत्तम कला जो उस समय निम्न वर्ग के लोगों के हाथ में पड़ गई थी,उसका प्रसार संभ्रांत गृहस्थों व उनके कुटुम्ब में करना, यह इस मंडली का प्रमुख उद्देश्य था । इसी। उद्देश्य से प्रतिमास काफी व्यय करके शौकीन सभासदों को स्थानीय तथा बाहर से आनेवाले बड़े उस्तादों के द्वारा यह मंडली आज भी उच्च प्रकार के गायन की शिक्षा देती है उसी प्रकार इन उस्तादों के द्वारा सिखाए गए गायनों की समय समय पर बैठकें भी होती रहती हैं । इन बैठकों की विभिन्न राग रागिनियों के आधार पर लगभग ११०० गायनों से युक्त एक बृहत् पुस्तक हमारी मंडली ने ईसवी सन १८८७ में प्रकाशित की थी । किंन्तु ऐसी आमने सामने सिखाने की रीति में विशेष लाभ दृष्टिगोचर न होने से, सरलता से शास्त्रानुसार ज्ञान प्राप्त हो सके, ऐसी किसी नवीन रीति का प्रवेश गायन कला में करने के लिए बहुत खोज की, किन्तु अन्त में वह इसलिए व्यर्थ हुई कि संस्कृत से अनभिज्ञ आधुनिक उस्तादों से कुछ भी आशा नहीं की जा सकती थी । फिर भी सौभाग्य से जिस व्यक्ति की खोज में थे, ऐसे एक संगीत के वास्तविक पुजारी और विद्वान् इस मंडली के ही औनरेरी लाइफ मेम्बर पं० विष्णुनारायण, भातखण्डे B.A., L.L.B. हाई कोर्ट के वकील, मिल गए हैं, जिनकी सहायता से उपरोक्त उद्देश्य पूर्ण होगा, ऐसा विश्वास है । इन्होंने हिन्दुस्तान के कोने कोने में घूमकर संगीत सम्बन्धी संस्कृत व अन्य भाषाओं के कई प्राचीन मूल्यवान् ग्रन्थों का सरकारी व शौकीन गृहस्थों तथा राजाओं के व्यक्तिगत भंडारों में से खोजकर संग्रह किया है । उसी प्रकार प्रत्येक स्थान के गायन प्रवीण व संगीत शास्त्रियों के साथ चर्चा करके, धन व अमूल्य समय का बलिदान करके, फल प्राप्त करने का जो उत्साह प्रदर्शित किया है तथा उसमें विजय प्राप्त की है ऐसा उत्साह आज तक किसी शौकीन गायक ने दिखाया हो, ऐसा सुना नहीं है । ऐसा एक प्रथम प्रसिद्ध महाविद्वान् हमारी मंडली में है, इसके लिए वास्तव में मंडली को भाग्यशाली कहा जा सकता है ।
पं० विष्णु ने शास्त्र की रूढ़ि के अनुकूल विभिन्न राग रागिनियों में उत्तम लक्षण गीतों की रचना की है, जिनमें रागों के गुण तथा दोष इस प्रकार दर्शाए हैं, जो सीखने वालों को सरलता से समझ में आ सकते हैं । इन लक्षण गीतों की शिक्षा, सीखने वाले को कुछ भी लिए बिना, वास्तविक मित्रभाव से वे प्राय देते रहते हैं, इसके लिए वे वास्तव में धन्यवाद के पात्र हैं ।
उन्होंने हमारी मंडली की कार्यवाहक सभा की इच्छानुसार, उपरोक्त, संभ्रांत सज्जनों में इस शास्त्र का प्रचार करने के उद्देश्य से यह छोटी पुस्तिका रचकर प्रकाशित करने के लिए इस मंडली को भेंट की है, जिसके लिए हम उनका हृदय से उपकार मानते हैं । इस पुस्तक का मुख्य उद्देश्य प्रारम्भिक शिक्षार्थियों को प्रचलित हिंदुस्तानी रामस्वरूपों का साधारण ज्ञान कराने के उद्देश्य से, इसमें विभिन्न रागों की काफी सरल स्वर मालिकाएँ लिखी हैं । यह यदि शौकीनों के उपयोग में आएगी तो इसकी पृष्ठभूमि में किए गए श्रम का सम्पूर्ण मूल्य प्राप्त हो जाएगा । विशेषकर इस पुस्तक की रचना गुजराती पाठक वर्ग के लिए की गई होने से पं० विष्णु की रचना को वैसा स्वरूप देने का कार्य एक अनुभवी, पुरानी तथा प्रवीण सभासद कवि फिरोजशाह रुस्तम जी बाटलीवाला को सौंपा गया, जो कि इस मंडली के हितार्थी ऑनरेरी लाइफ मेंबर हैं, जिन्होंने पं० भातखण्डे के पास से संगीत का काफी ज्ञान प्राप्त किया है तथा जिनकी कवित्वशक्ति व संगीत शिक्षण देने की पद्धति प्रसिद्ध है । उन्होंने यह काय प्रसन्नता के साथ कर दिया है, जो उनके लिए शोभास्पद है।
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