पुस्तक के विषय में
पं. राधाक़ष्ण श्रीमाली ज्योतिष, तंत्र, मंत्र और वास्तु के स्थापित हस्ताक्षर है। अनेक दशकों में आपने देश को सैकड़ों पुस्तकें दीं है। आपकी रचनाओं और खोजा के चलते ही आपको दर्जनों बार सम्मानित किया जा चुका है। वे सिर्फ कर्मकांडी नहीं है, बल्कि अनुभववाद पर भी भरोसा करते है। भृगु संहिता पं. श्रीमाली की ऐसी ही पुस्तक है, जिसमें खोज और अनुभवों का सम्मिश्रण है। इसलिए यह पुस्तक संग्रहणीय तो है ही आध्यात्मिक यात्रा के लिए जरूरी भी है।
ज्योतिष की अनेक शाखा प्रशाखाओं में गणित और फलित का महत्वपूर्ण स्थान है। फलित के माध्यम से जीवन पर पडने वाले ग्रहो के फलाफल का निरूपण किया जाता है। जन्म कालिक ग्रहों की जो स्थिति नभ मंडल में होती है, उसी के अनुसार उसका प्रभाव हमारे जीवन पड़ता है। जीवन में घटित व आगे घटित होने वाली घटनाओं का ज्ञान फलित ज्योतिष द्वारा होता है। महर्षि भृगु ने इसी फलित ज्योतिष के आधार पर भृगु संहिता नामक महाग्रंथ की रचना की। सर्वप्रथम डस महाग्रंथ को अपने पुत्र व शिष्य शुक्र को पढ़ाया, उनसे समस्त ब्राह्मण समाज और विश्व भर में यह ग्रंथ प्रचारित हुआ।
दो शब्द
सौर जगत् में भ्रमणकर्ता ग्रहों की गतिविधियों का प्रभाव अन्योनाश्रित संबंध होने के कारण मानव शरीर स्थित सौर-जगत पर भी पड़ता है। अत: पृथ्वी पर निवास करने वाले प्राणी आकाशचारी ग्रहों से प्रभावित होते हैं।
महर्षियों ने दिव्य दृष्टि, सूक्ष्म प्रज्ञा. विस्तृत ज्ञान द्वारा शरीरस्थ सौर मंडल का अध्ययन-मनन-अन्वेषण-पर्यवेक्षण-अवलोकन तदनुसार आकाशीय सौर मंडल की व्यवस्था की। उन ग्रहों के मानव जीवन पर पड़ने वाले प्रभाव का अध्ययन किया । ज्योतिष विद्या कालान्तर में देशकाल की सीमाएं बांध दिग्दिगंत में पहुंची, इसका प्रचार-प्रसार हुआ। इसे परिवर्धित करने में विदेशी विद्वानों ने भी अपना .योगदान दिया ।
ज्योतिष की अनेक शाखा-प्रशाखाओं में गणित और फलित का महत्त्वपूर्ण स्थान है। फलित के माध्यम से जीवन पर पड़ने वाले ग्रहों के फलाफल का निरूपण किया जाता है। जन्म कालिक ग्रहों की जो स्थिति नभ मंडल में होती है, उसी के अनुसार उसका प्रभाव हमारे जीवन पर पड़ता है। जीवन में घटित व आगे घटित होने वाली घटनाओं का ज्ञान फलित ज्योतिष द्वारा होता है।
एक बार भगवान् नारायण क्षीर सागर में शेष शय्या पर विश्राम कर रहे थे, लक्ष्मी ब्रण दबा रही थी, उसी समय महर्षि श्रेष्ठ दर्शनीय वैकुण्ठ पहुंचे। भगवान के द्वारपाल जय-विजय ने उन्हें प्रणाम कर कहा, नारायण इस समय विश्रामाधीन हैं अत: उन तक आपको जाने देना संभव नहीं है। महर्षि रुष्ट हुए व जय-विजय को शाप दिया कि तुम्हे मुझे रोकने के अपराध में तीन बार राक्षस योनि में जन्म लेकर पृथ्वी पर रहना लगा। जय-विजय मौन नतमस्तक खडे हो गए, इधर भृगु उस स्थान पर जा पहुंचे जहाँ भगवान शयन कर रहे थे। विष्णु को शयन करते देख भृगु ॠषि का क्रोध उमड पडा सोचा, मुझे देख विष्णु ने जान-बूझकर आखें मूंद ली हैं। मेरी अवज्ञा कर रहे है। क्रोध में उफनते ॠषि ने उसी समय श्री विष्णु के वक्षस्थल पर अपने दाएं पैर का प्रहार किया, विष्णु की आखें खुल गईं. वे उठ हाथ जोड़ प्रार्थना करते बोले- डे महर्षि। मेरी छाती तो वज के समान कठोर है, आपके चरण कमल कोमल हैं। कहीं स्थ चोट तो नहीं लगी। मैं क्षमा प्रार्थी हूं।'
ऐसा सुन महर्षि का क्रोध शांत हुआ, अपनी भूल व क्रोध पर आत्म-ग्लानि हुई अत: शोकाकुल होकर विष्णु से क्षमा-याचना करके उनकी स्तुति करने लगे पर लक्ष्मी ऐसा देखा क्रोधित हो गई थी । पति का अपमान सहन न कर सकीं, बोलीं- 'हे ब्राह्मण! तुमने लक्ष्मीपति का निरादर किया है अत: मैं तुम्हें व तुम्हारे सजातियों को शाप देती हू कि उनके घर मेरा अर्थात लक्ष्मी का वास नहीं होगा, वे दरिद्र बने भटकते रहेंगे।'
भृगु बोले-हे लक्ष्मी! मैंने क्रोधावेश में जो अपराध किया उसकी क्षमा विष्णु ले 'मांग ली है तथापि तुमने संयम न रख ब्राह्मणों के लिए जो शाप दिया है वह आपके पद व सम्मान योग्य नहीं है । शाप ठीक है पर मैं अपने सजातीय ब्राह्मणों की प्रतिष्ठार्थ. आजीविकार्थ ऐसे ज्योतिष ग्रंथ का निर्माण करूंगा जिसके आधार पर वे प्राणी मात्र का । भूत-भविष्य-वर्तमान का ज्ञान कर दक्षिणा रूपेण धनोपार्जन करेंगे । तुम्हें वहां विवश होकर रहना होगा ।'' ऐसा कह भृगु अपने आश्रम लौट आए फिर भृगु संहिता महाग्रंथ की रचना की। उन्होंने सर्वप्रथम अपने पुत्र व शिष्य शुक्र को पढाया उनसे समस्त ब्राह्मण समाज मे व विश्व भर में यह ग्रंथ प्रचारित हुआ । इस समय भृगु संहिता कहीं उपलव्य नहीं है अपितु भृगु संहिता के नाम से कुछ ग्रथ यत्र-तत्र अपूर्ण प्राप्त है।
मैंने अथक प्रयास कर कुछ सामग्री प्राप्त की है, उन्हें इस पुस्तक में स्पष्ट दे रहा हूं। भाई श्री गुलशन की प्रेरणा व मेरा प्रयास तथा यत्र-तत्र से प्राप्त सामग्री, पुस्तक कें लेखन उनका सहयोग से ही पुस्तकाकार दे पाया हूं। उन सभी का मैं अनुगृहीत हूं।
अनुक्रम
1
5-6
2
द्वादश-भाव
9-19
3
ग्रहों का स्वभाव और प्रभाव
20-32
4
जन्म-कुंडली का फलादेश
33-38
5
ज्ञातव्य
39-75
6
ग्रह भाव फल
76-112
7
योग
113-135
8
कुंडली फल
136-225
9
ग्रहों का परिचय
226-261
10
अरिष्ट विचार
262-266
11
प्रश्न विचार
267-275
12
विंशोत्तरी महादशा के ग्रहों का फलादेश
276-286
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