आचार्य देवेन्द्र देव
माता : श्रीमती भागवती देवी (स्व.)
पिता : श्री बिहारी लाल
काव्य-गुरु: पं. रामभरोसे लाल पाण्डेय 'पंकज'
काव्य प्रेरिका: श्रीमती मालती देवी (स्व.)
जन्म दिनांक: 6 अक्टूबर 1952 ई.
शिक्षा: एम.ए. (संस्कृत), विद्या वाचस्पति
सम्मान : गोल्डन बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्ड्स नामित, पानीपत साहित्य अकादमी से 'आचार्य' की मानद उपाधि, ए.ची.आई. (अमेरिकी संस्था) द्वारा 'इंटरनेशनल डिस्टिंग्विश्ड लीडरशिप अवॉर्ड-1998 एवं उसके 'रिसर्च बोर्ड ऑफ एडवाइजर्स' के मानद सदस्य के अतिरिक्त 'राष्ट्रकवि पं. वंशीधर शुक्ल', 'विवेक श्री', 'उद्घोष शिखर', 'कला भारती', 'सरस्वती', 'धर्मपाल विद्याथी', 'महाकाव्य-पारीण', 'तुलसी पुरस्कार', 'साहित्यकार प्रेरणा', 'त्रिवेणी', 'पं. दीनदयाल उपाध्याय', 'पं. युगलकिशोर सुरोलिया', 'सदाशिवराव गुरु गोलवलकर', 'महर्षि दधीचि पुरस्कार', 'कर्मयोगी' जैसे देश के शासकीय/अशासकीय अनेक सम्मानों के साथ-साथ रीवा, शिमला, धर्मशाला, बरेली, बिलासपुर (छ.ग.) एवं 'कुरुक्षेत्र' विश्वविद्यालय से सम्मानित एवं दशवें व ग्यारहवें विश्व हिन्दी सम्मेलन में भारत सरकार का, कविरूप में प्रतिनिधित्व ।
कृतित्व : विश्व में सर्वाधिक सोलह महाकाव्यों, यथा-'बाँग्ला-त्राण', 'राष्ट्रपुत्र यशवन्त', 'कैप्टन बानासिंह', 'गायत्रेय', 'युवमन्यु', 'ब्रह्मात्मज', 'हठयोगी नचिकेता', 'बलि-पथ', 'इदं राष्ट्राय', 'अग्नि-ऋवा', 'लोक-नायक', 'लौह पुरुष', 'शंख महाकाल का', 'बिरसा मुण्डा', 'पं. रामप्रसाद बिस्मिल' 'महायोगी गोरक्षनाथ', 'उत्तर मानस', 'क्रान्तिमन्यु स्वामी श्रद्धानन्द' दिवेर घाटी का युद्ध' एवं 'रानी दुर्गावती' (महाकाव्य) के अतिरिक्त गीतों, ग़ज़लों, छन्दों, समसामयिक एवं बाल-कविताओं के ढाई दर्जन से अधिक संग्रह, लेख, कहानी, संस्मरण, काव्यानुवाद एवं संस्कृत कविताएँ प्रकाशित/प्रकाशनाधीन । प्रसारण : आकाशवाणी के रामपुर, लखनऊ, इलाहाबाद, आगरा, बरेली, मथुरा और दिल्ली केन्द्र तथा डी.डी. चैनल लखनऊ व बरेली दूरदर्शन एवं अनेक चैननों पर सजीव प्रसारण । पत्र-पत्रिकाएँ : देश-विदेश की अनेक पत्र-पत्रिकाओं में कविताएँ, समीक्षाएँ प्रकाशित ।
'ब्रह्मात्मज'-एक अभिनन्दनीय महाकाव्य-कृति राजयोगी महाराजश्री भर्तृहरि ने अपने प्रख्यात नीति-शतक में कहा है:-परिवर्तिनि खलु संसारे मृतः को वा न जायते । स एव जातो यस्य जातेन याति वंशं समुद्भवम् ।
यह उक्ति यद्यपि सामान्य जन के निमित्त प्रसूत हुई है किन्तु लोकोत्तर चित्त-मानस वाले, असामान्य महापुरुष, जिनका कथित वंश, विराट् विश्व होता है, पर भी प्रवृत्त होती है। नैमिष व्यास पीठाधीश्वर स्वामी नारदानन्द जी सरस्वती एक ऐसे ही, महनीय आध्यात्मिक सत्ता सम्पन्न सन्त हुए हैं जिनकी समस्त तप-सामर्थ्य, प्रत्यक्ष और परोक्ष, बहुआयामी लोक-कल्याण के लिए समर्पित रही है। उन्होंने एकान्तिक धर्म-धारणा तक स्वयं को सीमित न करके, लोक-व्यावहारिक सेवा- साधनाओं के ऐसे मण्डल रचे जिन्होंने दूर-दूर तक शिक्षा, स्वास्थ्य, संस्कृति, स्वावलम्बन आदि के प्रकाश-केन्द्र स्थापित करते हुए उनके माध्यम से मानवता के सार्वभौमिक कल्याण का पथ प्रशस्त किया।
पौराणिक साहित्य तथा वैदिक वांग्मय के दार्शनिक संस्करणों में निहित सांस्कृतिक वृत्तों के शब्द-प्रमाणों से विदित होता है कि नैमिषारण्य में देव-सत्ता का सूत्रपात ब्रह्मा के आत्मजों (पुत्रों) से ही हुआ है, अतः यह कहना अत्युक्ति नहीं होगी कि यह भू-लोक का 'ब्रह्मात्मज केन्द्र' है। नैमिषारण्य को ब्रह्मा के सनकादि-कश्यप-मरीच्यादि मानस पुत्रों तथा उनकी बृहस्पति, काश्यप आदि ऋषि-सन्तानों की तपोभूमि के रूप में परिचित कराया गया है। ब्रह्म-पुत्र अथर्वा के देहदानी आत्मज महर्षि दधीचि (आथर्वण) अथवा (दध्यंग) के त्याग की पराकाष्ठा से ज्योतिवन्त यह नैमिष-भूमि ब्रह्मात्मजों से विवक्षित ब्रहम-सत्ता की ही द्योतक है।
भारत तापसिकताओं का तीर्थ है। इसका हर दौर तीर्थकरों से गुलज़ार रहा है, जो 'भा' हेतु रत है, वही भारत है- भारतः इति भारतः अर्थात् उजास करने में लगा हुआ। समय-समय पर इसके चैतन्य की ज्योति-वर्तिका को, इसकी रश्मि-शिखा को दैदीप्यमान रखने के लिए यहाँ अवतारी महामनाओं और ऊर्ध्वचेतनाओं का आगमन होता रहा है। दशावतारों की बात हो, क्रान्तद्रष्टाओं की हो, विज्ञानियों-ज्ञानियों की बात हो या ऋषियों-मुनियों-सन्तों की, सब दैवीसम्पद्सम्भूत हैं। स्वामी नारदानन्द सरस्वती इन्हीं विभूतियों में एक हैं, जिन्हें मनस्वी महाकवि आचार्य देवेन्द्र जी देव ने 'ब्रह्मात्मज' कहा है और इसी शीर्षक से यह महाकाव्य रचा है।
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