पुस्तक के विषय में
बुद्धदेब बसु (1908-1974) आधुनिक बंगाल के एक ऐसे लेखक हैं जिन्हें समझने में आज भी सबसे अधिक भूल की जाती है वह उनमें से थे जिनके लिए अधिक लिखना-उन्होंने सौ से अधिक कृतियाँ प्रकाशित की रचनात्मक होने का जीवत प्रमाण था इस रूप में वह रवींद्रनाथ ठाकुर के बाद बंगला के सर्वतोमुखी अद्वितीय लेखक थे।
अपने लेखकीय जीवन की शुरुआत के साथ ही उन्होंने काफी बदनामी हासिलकी और बराबर ‘असमाजी’ होने के अभियुक्त ठहराये जाते रहे लेकिन उनकी कृतियाँ बताती हैं कि वह मौलिकता और जीवनी-शक्ति से भरपूर थे, और यह भी कि उनमें ऐसी रचनात्मक शक्ति थी जिसका हम समादर करते हैं और जिसके लिए उन्हें याद करते हैं कोई भी साहित्यिक विधा ऐसी नही थी जिसपर उन्होंने अपना हाथ न आज़माया हो-कविता और कथा-साहित्य, निजी निबंध ओर साहित्यिक आलोचना, प्रतीकात्मक नाटक और मनोरंजक काव्य और किशोरों के लिए कहानियाँ-सभी कुछ तो वह लिखते रहे।
बुद्धदेब ने अपने जीवनकाल में ही प्रसिद्धि अर्जित की-जीवनानंद दास की तरह हटके लिए उन्हें प्रतीक्षा नहीं करनी पडी यह प्रसिद्धि उनके देहात के बाद कम नही हुई, बढती गई वह आज के रचनाशील लेखको और सामान्य पाठकों के बीच समान रूप से समादृत हैं।
डॉ० अलोकरंजन ‘दासगुप्त ने,जिन्हें जादवपुर विश्वविद्यालय के तुलनात्मक साहित्य विभाग में, बु्द्धदेव बसु के साथ काम करने का सुअवसर मिला था और जो स्वयं कवि हैं, इस छोटी सी सुरुचिपूर्ण पुस्तिका में बुद्धदेव को बड़े सक्षम रूप से विश्लेषित और प्रस्तुत किया है ।
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