पुस्तक के विषय में
डा. केशव बलिराम हेडगेवार भारतीय संस्कृति के परम उपासक थे। वह कर्मठ, सत्यनिष्ठ और राष्ट्रवादी होने के साथ-साथ एक स्वतंत्रचेता भी थे। उन्होंने हिंदुओं में नई चेतना जाग्रत करने का उल्लेखनीय कार्य करते हुए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना की। इस पुस्तक में उनके व्यक्तित्व और जीवन के विभिन्न आयामों पर प्रकाश डाला गया है तथा उनके संबंध में ऐसी जानकारियां भी दी गई हैं जो अभी तक अल्पज्ञात थीं।
पुस्तक के लेखक राकेश सिन्हा दिल्ली विश्वविद्यालय के एक कॉलेज में राजनीति शास्त्र के व्याख्याता हैं। इसके अलावा वह स्तंभकार और राजनीतिक विश्लेषक के रूप में प्रतिष्ठित हैं।
प्राक्कथन
भारतीय राजनीति एवं शैक्षणिक जगत में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ एवं इसका सैद्धांतिक पक्ष आजादी के बाद से ही बहस के केंद्र में रहा है । किसी भी संस्था के सामाजिक दर्शन, राजनीतिक-दृष्टिकोण, संगठनात्मक संस्कृति को समझने के लिए उसके संस्थापक के जीवन कम एवं वैचारिक पक्ष को जानना आवश्यक होता है । संघ और उसके संस्थापक डा. केशव बलिराम हेडगेवार एक-दूसरे के पर्याय हैं । संघ अपने समकालीन हिंदू संगठनों से कैसे भिन्न था, इसकी वैचारिक पृष्ठभूमि और वैश्विक दृष्टिकोण के मर्म को डा. हेडगेवार के जीवन प्रसंगों और दृष्टिकोण को जाने बिना समझना कठिन कार्य है । किसी संस्था के वैचारिक पक्ष से सहमति अथवा असहमति होना लोकतंत्र में स्वाभाविक है, परंतु जिस संस्था का प्रभाव एवं विस्तार जीवन के हर क्षेत्र में हो, उसके संस्थापक के जीवन एवं विचारों से अज्ञानता अनेक भ्रांतियों को जन्म देती है । इसके कारण वैचारिक आदोलन का सही मूल्यांकन भी नहीं हो पाता । डा. हेडगेवार के संबंध में भी अनेक प्रकार की भ्रांतियां उत्पल हुईं । इनमें एक उनके स्वतंत्रता आदोलन के अलिप्त रहने के बारे में है । यह तथ्य एवं सच्चाई से कितनी दूर है, इसका अनुमान निम्न बातों से लगाया जा सकता है ।
सन 1921 में मध्यप्रांत की राजधानी नागपुर में ब्रिटिश सरकार ने उन पर 'राजद्रोह' का मुकदमा चलाया था । मुकदमे की सुनवाई के दौरान उन्होंने उपनिवेशवाद को अमानवीय, अनैतिक, अवैधानिक एवं कूर शासन की संज्ञा देते हुए ब्रिटिश न्यायिक व्यवस्था, पुलिस, प्रशासन एवं राजसत्ता के खिलाफ सभी प्रकार के विरोधों का समर्थन किया । तब उत्तेजित न्यायाधीश ने उनकी दलीलों को पहले के भाषणों से भी अधिक 'राजद्रोही' घोषित किया । उनकी क्रांतिकारी गतिविधियों के कारण सात वर्ष पूर्व ही औपनिवेशिक सरकार ने उन्हें 'संभावित खतरनाक राजनीतिक अपराधी' की सूची में शामिल कर लिया था । इससे छह वर्ष पूर्व (1909 में) उन पर लोगों को सरकार कें खिलाफ उकसाने एवं पुलिस चौकी पर बम फेंकने का आरोप लगाया जा चुका था । और इससे पूर्व वह नागपुर के एक स्कूल से 'वंदे मातरम्' की उद्घोषणा करने एवं इसके लिए माफी न मांगने के कारण निष्कासित किए जा चुके थे । असहयोग आदोलन के बाद देश के दूसरे महत्वपूर्ण आदोलन-' सविनय अवज्ञा आदोलन ' में सत्याग्रह का नेतृत्व करते हुए वह गिरफ्तार हुए और उन्हें नौ महीने के सश्रम कारावास की सजा मिली थी । उनकी मृत्यु 1940 में हुई, जब अनेक क्रांतिकारी जिनमें सुभाष चंद्र बोस एवं त्रैलोक्यनाथ चक्रवर्ती के नाम उल्लेखनीय हैं, द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान क्रांति की आशा एवं योजना कै साथ उनकी तरफ आकृष्ट हो रहे थे । उनकी मृत्यु से एक दिन पूर्व ही सुभाष चंद्र बोस उनसे उनके कर्तव्य, देशभक्ति, संगठन कौशल एवं क्रांतिकारी पृष्ठभूमि के कारण मिलने आए थे । तब उन्हें डा. हेडगेवार को मृत्यु शैया पर देखकर कितनी हताशा हुई होगी, उसका अनुमान लगाया जा सकता है।
स्वाधीनता आदोलन में डा. हेडगेवार की भागीदारी कै अनेक रूप एवं घटनाएं हैं, परंतु उनकी गतिविधियां एव चिंतन राष्ट्र की स्वतत्रता के प्रश्न तक सीमित नहीं थीं । एक प्राचीन भारतीय राष्ट्र का पराभव क्यों हुआ और इसे सबल एव संगठित राष्ट्र कैसे बनाया जा सकता है-इन प्रश्नों का समाधान एक स्वप्नद्रष्टा के रूप में वह जीवनपर्यंत ढूंढते रहे तथा उनका निष्कर्ष था कि राष्ट्र के हित, पुनर्निर्माण एवं संगठन के लिए किया गया कार्य 'ईश्वरीय कार्य' होता है । उन्होंने 1925 में इसी ध्येय को अपने समक्ष रखकर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना की थी । संघ की स्थापना उन्होंने नागपुर की वीरान, बंजर एवं उपेक्षित भूमि मोहितेवाड़ा से की थी और देखते-देखते सघ सभी प्रांतों में फैल गया । उन्होंने संगठन, समाज, संस्कृति एवं राष्ट्र के बीच जीवंत संबंध स्थापित करने का प्रयत्न किया । यही कारण है कि संघ की स्थापना, विस्तार एवं प्रभाव के पीछे प्रेरणा-पुरुष होते हुए भी वह सदैव सामने आने में संकोच करते रहते थे । व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा एव स्वार्थ से मुक्त रहकर सार्वजनिक जीवन जीने का उन्होंने अनुपम उदाहरण प्रस्तुत किया था।
प्रचार, प्रसिद्धि एवं श्रेय लेने की प्रवृत्तियों से वह कितने मुक्त थे, इसका प्रमाण यह है कि संघ की स्थापना के एक दशक बाद तक मध्यप्रांत की सरकार उनके मित्र डा. बालकृष्ण मुजे को संघ का संस्थापक समझने की मूल करती रही । उन्होंने अपने जीवन काल में जीवन चरित्र लिखने के प्रयासों को हतोत्साहित किया । दामोदर पंत भट द्वारा लगातार आग्रह को ठुकराते हुए उन्होंने लिखा था-
'आपके मन में मेरे एवं संघ के लिए जो प्रेम एवं आदर है, उसके लिए मैं आपका हृदय से आभारी हूं । आपकी इच्छा मेरा जीवन चरित्र प्रकाशित करने की है । परंतु मुझे नहीं लगता कि मैं इतना महान हूं या मेरे जीवन में ऐसी महत्वपूर्ण घटनाएं हैं, जिनको प्रकाशित किया जाए । उसी प्रकार मेरे अथवा संघ के कार्यक्रमों की तस्वीरें भी उपलब्ध नहीं हैं । संक्षेप में, मैं यही कहूंगा कि जीवन चरित्रों की शृंखला में मेरा चरित्र उपयुक्त नहीं बैठता । आपके द्वारा ऐसा न करने में मैं उपकृत होऊंगा।'
उनके संबंध में पहली छोटी पुस्तिका का प्रकाशन उनकी मृत्यु के पश्चात व.ण. शेंडे ने 1941 में किया था । इसके दो दशक बाद नारायण हरि पालकर ने उनका जीवन चरित्र लिखा । उनके संबंध में अनेक लेख, संस्मरण एवं उनके भाषण मध्यप्रांत के अखबारों में प्रकाशित हुए थे जिनका अध्ययन न होने के कारण उनके जीवन के अनेक प्रसंग एवं घटनाए और उनके सामाजिक एवं राजनीतिक दृष्टिकोण अवर्णित रहे । विशेषकर संघ की विचारधारा पर राजनीतिक एवं शैक्षणिक जगत में बहस का भी प्रभाव डा. हेडगेवार के जीवन के मूल्यांकन पर पडता रहा । स्वतंत्रता आदोलन में उनकी भागीदारी एवं राष्ट्रवादी विचारधारा पर भी प्रश्न खड़े किए गए ।
मैंने 1988 89 में 'Political Ideas of Dr. K.B.Hedgewar' विषय पर पहला कार्य दिल्ली विश्वविद्यालय में राजनीतिक विज्ञान के छात्र के रूप में शोध निबंध लिखकर किया था । तब से मैंने संघ की स्वतत्रता आदोलन में भागीदारी एवं डा. हेडगेवार के जीवन पर अपना शोधकार्य जारी रखा । इसी बीच मुझे प्रकाशन विभाग की तरफ से डा. हेडगेवार के जीवन पर लिखने का अनुरोध हुआ । इस पुस्तक में मैंने उनके जीवन के जाने-अनजाने प्रसंगों, उनके दृष्टिकोण और वैचारिक पक्ष को रखने का प्रयास किया है । संभव है, इसमें अनेक त्रुटियां एवं न्यूनताएँ रह गई हों। मेरा मानना है कि जो महापुरुष इतिहास के अंग बनकर रह जाते हैं, उनका मूल्यांकन करना कठिन कार्य नहीं है, परंतु जो अपने जीवन काल के बाद पीढ़ियों को प्रभावित करने की क्षमता रखते हैं तथा वर्तमान एवं भविष्य के घटनाक्रम में प्रासंगिक एवं प्रखर बने रहते हैं, वैसे असामान्य चरित्र का मूल्यांकन भविष्य का इतिहास ही कर सकता है । डा. हेडगेवार का जीवन चरित्र इसी श्रेणी में आता है ।
अत: उनके जीवन एवं वैचारिक पक्ष पर शोध पर विराम नहीं दिया जा सकता है । इस पुस्तक के लिखने एवं शोधकार्य में कुप्प. सी. सुदर्शन, दत्तोपंत गोडी, एच.वी. शेषाद्रि के सहयोग एवं प्रोत्साहन के लिए मैं विशेष रूप से आभारी हू । रंगाहरि सूर्यनारायण राव एवं मदन दास देवी के रचनात्मक सुझावों के कारण मैं अनेक त्रुटियों को दूर कर पाया । शोधकार्य के आरंभिक वर्षों में डा. हेडगेवार के संबंध में अनेक दस्तावेजों एवं पुस्तकों के प्रति स्व.एन.बी. लेले (लेखक व पत्रकार) एवं भानुप्रताप शुक्ल तथा देवेंद्र स्वरूप (दोनों पूर्व संपादक 'पाचजन्य') ने मेरा ध्यान आकृष्ट कराया था । दिल्ली विश्वविद्यालय में आधुनिक भारतीय भाषा विभाग के प्रो. एन.डी. मिराजकर एवं यूनीवार्ता के पत्रकार प्रमोद मुजुमदार ने मराठी लेखों एव दस्तावेजों के अनुवाद में समय-समय पर मेरी सहायता की है । मैं इन सबका एवं उन अनेक लोगों का-जिनकी प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष सहायता एवं प्रोत्साहन मिलता रहा-कृतज्ञ हूं । नई दिल्ली के राष्ट्रीय अभिलेखागार, मुंबई, भोपाल, लखनऊ, पटना एवं अन्य प्रांतों के अभिलेखागारों, नेहरू स्मृति संग्रहालय एव पुस्तकालय (नई दिल्ली), तिलक स्मृति संग्रहालय (पूना), रतन टाटा लाइब्रेरी, सप्रू हाउस लाइब्रेरी के साथ-साथ सूचना एवं प्रसारण मंत्री तथा प्रकाशन विभाग के निदेशक और संपादक मंडल के सक्रिय सहयोग हेतु मैं उनका आभारी हूं।
किसी पुस्तक का वास्तविक मूल्यांकन तो पाठकवर्ग ही करता है। मुझे विश्वास है कि पाठकों का रचनात्मक सुझाव मिलता रहेगा, जिसके आधार पर मैं इस पुस्तक के अगले संस्करण को और भी उपयोगी बनाने में सक्षम हो पाऊंगा ।
अनुक्रम
1
तेजस्वी बालक
2
देशभक्ति की पहली किरण
6
3
क्रांतिकारी जीवन
15
4
प्रथम विश्वयुद्ध और डा. हेडगेवार
21
5
आत्मदर्शन
27
कांग्रेस में प्रवेश
33
7
असहयोग आदोलन
40
8
'राजद्रोह' का मुकदमा
46
9
सत्यनिष्ठ हेडगेवार
59
10
'स्वातंत्र्य' का संपादन
69
11
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ
74
12
स्वतंत्रता आदोलन और डा. हेडगेवार
91
13
दूसरा कारावास
104
14
हिंदू महासभा, कांग्रेस और संघ
109
दमनचक्र के बीच संघ का विकास
132
16
ऐतिहासिक बहस
144
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