बुल्ले शाह की काफियाँ: Bullae Shah ki Kafia

FREE Delivery
Express Shipping
$23.25
$31
(25% off)
Express Shipping: Guaranteed Dispatch in 24 hours
Quantity
Delivery Ships in 1-3 days
Item Code: NZA694
Publisher: Anamika Publishers & Distributor (P) Ltd.
Author: कृष्ण कुमार: Krishan Kumar
Language: Hindi
Edition: 2020
ISBN: 9788179759899
Pages: 196
Cover: Hardcover
Other Details 10.0 inch X 7.0 Inch
Weight 500 gm
Fully insured
Fully insured
Shipped to 153 countries
Shipped to 153 countries
More than 1M+ customers worldwide
More than 1M+ customers worldwide
100% Made in India
100% Made in India
23 years in business
23 years in business
Book Description

बाबा बुल्ले शाह की काफियां

बाबा बुल्ले शाह ने सूफी लहर को नया मोड़ दिया उनकी रचना हमेशा ही पंजाबी कवियों का मार्गदर्शन करती रही है बुल्ले शाह को पंजाबी साहित्य में बहुत ऊँचा स्थान प्राप्त है इसका कारण उनके धार्मिक फलसफे का सार्वभौम उपदेश है जो आम लोगों के जीवन के बहुत नजदीक है

बुल्ले शाह का असली नाम अब्दुल्ला था और उनका जन्म मुहम्मद दरवेश के घर 1680 . में गाँव पांदोके; जिला लाहौर में हुआ बुल्ले शाह ने शिक्षा कसूर में जाकर मौलवी गुलाम मुरतजा से प्राप्त की शिक्षा के उपरांत उन्होंने शाह इनायत को, जो जात के अराईं थे, गुरु स्वीकार किया आपने जीवन का ज्यादा समय लाहौर में अपने गुरु शाह इनायत के पास ही गुजारा गुरु ने प्रसन्न होकर उन्हें अपनी गद्दी सौंप दी बुल्ले शाह का देहांत 1758 . में हुआ और उनका मज़ार कसूर में स्थित है बुल्ले शाह की रचना में 116 काफियाँ, एक अठवारा, एक बारहमाहा तथा तीन सीहरफिआँ मिलती हैं उनकी रचना में जीवन के अलग-अलग पहलुओं के बारे में उपदेश मिलते हैं, मगर उनका सबसे ज्यादा जोर अहं को मारकर शुभाचार करने पर है बुल्ले शाह के अनुसार जब तक मनुष्य में अहं है तब तक उसको अल्लाह की प्राप्ति नहीं हो सकती:

बुल्ले गैन, गरूरत साड़ सुट, हउमैं खूहे पा

तन मन सूरत गवा दे, घर आपे मिलेगा

प्राक्कथन

नेशनल इंस्टीट्यूट आफ पंजाब स्टडीज की स्थापना 1990 में पंजाबी जीवन की सजीवता तथा साहित्य को उन्नत करने के पहलू से की गई थी कुछ समय उपरांत पंजाब यूनिवर्सिटी, चंडीगढ़ द्वारा इसको उच्चतर शिक्षा के सेंटर की मान्यता दे दी गई शोध के अतिरिक्त इंस्टीट्यूट लेक्चरों, सेमिनारों और कॉस्फेंसों का आयोजन भी करता है कुछ कॉन्फ्रेंसों का आयोजन मल्टीकल्चरल एजुकेशन विभाग, लंदन यूनिवर्सिटी, साउथ एशियन स्टडीज विभाग, मिशीगन यूनिवर्सिटी और सेंटर कार ग्लोबल स्टडीज, कैलिफोर्निया यूनिवर्सिटी, सेंटा बारबरा के सहयोग से किया गया है स्वतंत्रता के पचास वर्ष के अवसर पर इंस्टीट्यूट ने 1999 में इंडिया इंटरनेशनल सेंटर, नई दिल्ली के सहयोग से एक अंतर्राष्ट्रीय सेमिनार 'बँटवारा तथा अतीतदर्शी ' का आयोजन किया महाराजा रणजीत सिंह पर एक राष्ट्रीय सेमिनार का आयोजन दिसंबर 2001 में किया गया 1999 में खालसा पंथ के स्थापना की तीसरी शताब्दी पर्व के अवसर पर इस संस्थान ने एक बड़ी योजना शुरू की जिसके अंतर्गत खोज टीम ने निर्देशक के नेतृत्व में भारत, पाकिस्तान तथा इंग्लैंड आदि देशों में घूम-घूमकर सिख स्मृति चिह्नों की एक सूची तैयार की ये चिह्न सिख गुरुओं अन्य ऐतिहासिक व्यक्तियों से संबंधित हैं जिन्होंने खालसा पंथ को सही रूप से चलाने में सराहनीय योगदान दिया है

हमारी खोज की उपलब्धियों को आम लोगों तक पहुँचाने के लिए और उन अनमोल वस्तुओं को सँभालने के प्रति जागृति पैदा करने हेतु इंस्टीट्यूट द्वारा चार सचित्र पुस्तकें गोल्डन टेंपल, आनदंपुर, हमेकुंट तथा महाराजा रणजीत सिहं पंजाब हेरिटेज सीरीज के अंतर्गत प्रकाशित की गई। इन पुस्तकों का पिछले साल गुरु नानक देव जयंती पर राष्ट्रपति भवन में विमोचन किया गया

दूसरे पड़ाव में इंस्टीट्यूट ने पंजाबी परंपरागत साहित्य पर आधारित पुस्तकें- हीर, सोहणी महींवाल, बुल्लशोह की काफियाँ तथा बाबा फरीद-को देवनागरी लिपि में प्रकाशित किया है ताकि वह जनसमूह जो पंजाबी भाषा से परिचित नहीं है, पंजाब के इस धरोहर से परिचित हो सके इसके अतिरिक्त पंजाब के इतिहास और संस्कृति पर अनमोल मूल साहित्य का अनुवाद भी कराया जा रहा है

नेशनल इंस्टीट्यूट आफ पंजाब स्टडीज इस समूचे कार्य की संपूर्णता तथा प्रकाशन के लिए संस्कति विभाग, भारत सरकार तथा राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली सरकार की वित्तीय सहायता के प्रति आभार प्रकट करता है इंस्टीट्यूट की कार्यकारी समिति तथा स्टाफ के सक्रिय सहयोग के बिना इन पुस्तकों का प्रकाशन संभव नहीं था जिसके लिए मैं उनका भी आभारी हूँ

पंजाब की सांक्षी विरासत का स्वागत

बाबा फरीद के सलोक, बुल्ले शाह की काफियाँ, वारिस शाह की हीर और फजल शाह का किस्सा सोहणी-महींवाल ये सब पंजाबी साहित्य की अत्यंत लोकप्रिय और कालजयी कृतियाँ हैं पंजाब के इन मुसलमान सूफी संतों ने दिव्य प्रेम की ऐसी धारा प्रवाहित की जिससे संपूर्ण लोकमानस रस से सराबोर हो उठा और इसी के साथ एक ऐसी सांझी संस्कृति भी विकसित हुई जिसकी लहरों से मजहबी भेद- भाव की सभी खाइयाँ पट गई

पंजाबी साहित्य की यह बहुमूल्य विरासत एक तरह से संपूर्ण भारतीय साहित्य की भी अनमोल निधि है लेकिन बहुत कुछ लिपि के अपरिचय और कुछ-कुछ भाषा की कठिनाई के कारण पंजाब के बाहर का वृहत्तर समाज इस धरोहर के उपयोग से वंचित रहता आया है वैसे, इस अवरोध को तोड्ने की दिशा में इक्के-दुक्के प्रयास पहले भी हुए हैं उदाहरण के लिए कुछ समय पहले प्रोफेसर हरभजन सिंह शेख फरीद और बुल्ले शाह की रचनाओं को हिंदी अनुवाद के साथ नागरी लिपि में सुलभ कराने का स्तुत्य प्रयास कर चुके हैं संभव है, इस प्रकार के कुछ और काम भी हुए हों

लेकिन वारिस शाह की हीर और फजल शाह का किस्सा सोहणी-महींवाल तो, मेरी जानकारी में, हिंदी में पहले-पहल अब रहे हैं और कहना होगा कि इस महत्वपूर्ण कार्य का श्रेय नेशनल इंस्टीट्यूट आफ पंजाब स्टडीज को है ये चारों पुस्तकें 'पंजाब हेरीटेज सीरीज' के अंतर्गत एक बड़ी योजना के साथ तैयार की गई हैं मुझे इस योजना से परिचित करवाने और फिर एक प्रकार से संयुक्त करने की कृपा मेरे आदरणीय शुभचिंतक प्रोफेसर अमरीक सिंह ने की है और इसके लिए मैं उनका आभार मानता हूँ

सच पूछिए तो आज हिंदी में हीर को देखकर मुझे फिराक साहिब का वह शेर बरबस याद आता है :

दिल का इक काम जो बरसों से पड़ा रक्खा है

तुम जरा हाथ लगा दो तो हुआ रक्खा है

हीर को हिंदी में लाना सचमुच दिल का ही काम है और ऐसे काम को अंजाम देने के लिए दिल भी बड़ा चाहिए पंजाब भारत का वह बड़ा दिल है-इसे कौन नहीं जानता! फरीद, बुल्ले शाह, वारिस शाह, फजल शाह-ये सभी उसी दिल के टुकड़े हैं आज हिंदी में इन अनमोल टुकड़ों को एक जगह जमा करने का काम जिस 'हाथ ' ने किया है उसका नाम है 'नेशनल इंस्टीट्यूट आफ पंजाब स्टडीज '! इस संस्थान ने सचमुच ही आज अपना हक अदा कर दिया ' मेरा भी उसे सत श्री अकाल

परिचय

झूठ आख्याँ ही कुझ बचदा

सच कहाँ ताँ भाँबड़ मचदा

यह बेबाकी! यह साफगोई! यह आक्रमक तेवर! अनुभूति का दबाव इतना सघन कि लहजे से नाटकीयता साकार हो! अपनी कथनी और करनी के कारण जो अपने जीवन काल में ही मिथक बन जाए! यह हैं पंजाब की सूफी काव्य परंपरा के शिरोमणि शायर बाबा बुल्ले शाह बुल्ले शाह इतिहास के एक खतरनाक मोड़ पर निहत्थे, फिर भी मानवीय सहानुभूति से लबालब, आदिम दृढ़ता से लैस, अत्यंत निर्भीक, साहसी और सत्यवादी दरवेश-कवि थे जिनके आक्रमक चिंतन और सृजन की मौलिकता में आज भी इतनी शक्ति है कि किसी भी पाठक/श्रोता के विश्वास को विचलित कर दे

यूँ हर युग की संस्कृति, इतिहास, कला, दर्शन, साहित्य और संवेदना के अपने प्रतिमान होते हैं जिनका अपने समय के साथ अंतहीन संघर्ष चलता रहता है पंजाबी सूफी कविता का आरंभ भी इस संदर्भ में अर्थपूर्ण है इसकी जीवंत शुरुआत से केवल पंजाब बल्कि भारत के सांस्कृतिक और साहित्यिक इतिहास में एक नए दौर का आरंभ होता है

पंजाबी सूफी शायरों की आठ सौ साल की लंबी काव्य साधना (शेख फरीद से गुलाम फरीद तक) से अगर आज पंजाबी भाषा को 'भारतीय-इस्लामी भाषा' का लकब हासिल हुआ है तो इन्हीं सूफी साधकों की बदौलत पंजाब इस्लाम के धार्मिक भूगोल का सर्वस्वीकृत अखंड हिस्सा भी बन गया है यहाँ इस्लाम की हिजरती रूह को आराम भी मिला है और इसका पंजाब की रूह के साथ समावेश भी हुआ है।

सूफीवाद इस्लाम का रहस्यवादी आयाम है या यूँ कहा जाए कि इस्लामी आध्यात्मिक संस्कृति के प्रवक्ता ही सूफी कहलाए सूफियों के कई सिलसिले (संप्रदाय) हैं और सूफी मत के अंतर्गत इन सभी मिलसिलों की महत्वपूर्ण भूमिका रही है अभी तक सूफियों के कुल बारह सिलसिले सामने आए हैं इन मबकी स्मृति-गाथा से गुजरकर उनकी तफसील में जाना यहाँ मुमकिन नहीं। पंजाब के लोक-जीवन को रूपांतरित करने में जिन चार सूफी सिलसिलों ने विशेष भूमिका निभाई, उनका नाम बिना किसी दुविधा के लिया जा सकता है ये सिलसिले हैं :-

चिश्तिया

.कादरिया

सुहरावर्दी

. नक्शबंदी

पंजाबी के लगभग सभी सूफी शायर चिश्ती या कादरी सिलसिले से संबंधित रहे इन दोनों सिलसिलों के बारे में एक प्रमुख तथ्य यह है कि अपने समय की तमाम धार्मिक और सांस्कृतिक बेचैनियों ऊँ बावजूद इन्होंने एक विदेशी धर्म (इस्लाम) और पंजाब की देसी पहचान में सकारात्मक संवाद की मानवीय संभावना को जन्म दिया। शेख फरीद, गुलाम फरीद और मियाँ शाह जालंधरी चिश्ती सिलसिले से जुड़े हुए हैं तथा बाकी प्रमुख पंजाबी सूफी शायर जैसे शाह हुसैन, सुलतान बाहू, शाह शरफ, अली हैदर, करद फकीर, शाह मुराद, हाशिम शाह, गुलाम जीलानी रोहतकी, मौलवी गुलाम रसूल और लम्भू शाह इत्यादि की आस्था कादरिया सिलसिले में है पंजाब और पंजाबियत के सबसे बड़े दावेदार बाबा बुल्ले शाह की साधना और शायरी भी कादरिया सिलसिले को गौरव प्रदान करती है यह सिलसिला पंजाब में सबसे ज्यादा लोकप्रिय रहा इसके संस्थापक बगदाद के अब्दुल कादिर जीलानी (१०७८-११६६) हुए हैं भारत में कादरिया सूफी सिद्धांतों को मुहम्मद गौस १४८२ ई० में ले आए तथा पंजाब में मियाँ मीर (१५५०-१६३५) ने इस फिरके का प्रचार-प्रसार किया कादरिया संप्रदाय मुगल बादशाह शाहजहाँ और दारा शिकोह की उदारवादी नीति का प्रतीक भी है लाल गुलाब इसका पहचान चिह्न है फतूहुल-गैब कादरी-सिद्धातों की आदर्श पुस्तक है जिसे अब्दुल कादिर जीलानी ने बड़ी शिद्दत से लिखा है सूफी मत साधनागत मत है यहाँ हर साधक आत्म-अनात्म के आत्मघाती अंतर्विरोधों का सूत्रीकरण करते हुए अनुभवात्मक जीवन-यात्रा पर चलने को बाध्य है सूफी मत में बाहरी भीतरी संघर्षरत शक्तियों को पहचानने की छटपटाहट से राहत दिलाने वाली हस्ती को मुर्शिद (पीर, गुरु) कहते हैं बुल्ले शाह के मुर्शिद शाह इनायत कादरी थे जिन्होंने पहली मुलाकात में ही बुल्ले शाह के सीधे खरे सवाल 'साँई जी! रब किवे पाना?' का जवाब सहज रूप में प्याजों की पनीरी लगाते हुए दिया- 'बुल्लिया, रब दा की पाना, एधरों पुटना ओधर लाना ' आध्यात्मिकता और लौकिकता के इस साथर्क ताल-मेल से अपनी जिज्ञासा को शांत होते देखकर बुल्ला श्रद्धा से पुकार उठा : -

बुल्ले शाह दी सुनो हकायत

हादी पकड़िया होग हदायत

मेरा मुरशिद शाह इनायत

ओहो लंघाए पार

शाह इनायत अराई (कुँजड़े) थे मगर बुल्ले शाह की सामाजिक तथा धार्मिक पहचान 'सैयदज़ादा ' के रूप में थी बुल्ला इस सामाजिक- धार्मिक अस्तित्व की 'आन-बान' को व्यावहारिक चतुराई से ज्यादा कुछ नहीं समझता था अपनी अस्त औकात की ओर संकेत करते हुए बुल्ले शाह ने यह तो विश्वास करवाया ही किमुर्शिद उसके लिए कितना सम्माननीय और श्रेष्ठ है, साथ में अपनी व्यंग्य-दृष्टि से यह भी साबित कर दिया कि वह केवल एक आत्ममुग्ध रहस्यवादी ही नहीं, अपने समय का आलोचनात्मक यथार्थवादी भी है जो वर्ग-चेतना से भी लैस है उसका कथन है : -

बुल्ले नूँ समझावन आइयाँ, भैणाँ ते भरजाइयाँ

असी उलाद नबी दी बुल्लिया, तूँ क्यों लीकाँ लाइयाँ

मन लै बुल्लिया साडा कहना, छड दे पल्ला राइयाँ

जेहड़ा सानूँ सैयद आखे, दोजख मिलन सजाइयाँ जेहड़ा सानूँ अराई आखे, भिश्ती पींघाँ पाइयाँ

सूफी चिंतन में इश्क का खास मुकाम है मगर बुल्ले शाह इश्क का सिद्धांतकार नहीं, खुद आशिक बना

उसके शोख संबोधन ने पंजाबी सूफी शायरी का मिजाज ही बदल डाला एक फक्कड़ आशिक ने दोनों

हाथों से मस्ती लुटाई अपने रब और अपने मुर्शिद के प्रति इश्क के भावात्मक वेग ने उसकी शायरी को

नई भंगिमा दी विरह में हल्ला मचाती लाचारी का कवि ने कितना रचनात्मक इस्तेमाल किया है :-

बहुड़ी वे तबीबा मैंडी जिंद गई

तेरे इशक नचाया कर थईया थईया

इशक डेरा मेरे अंदर कीता,

भर के जहर पियाला पीता

झबदे आवीं वे तबीबा

नहीं ते मैं मर गई

तेरे इशक नचाया कर थईया थईया

एक तरफ इश्क की थईया थईया का मार्मिक रहस्य और दूसरी तरफ अपने समय की धार्मिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक पहचानों के टकरावों की व्यापक विस्फोटक स्थिति से कभी टकराते और कभी अपने को बिलकुल निर्वासित करते हुए बुल्ले शाह उस पर यूँ तीखा प्रहार करता है:-

बुल्ला की जाणा मैं कौण!

ना मैं मोमन वित्त मसीतों, ना मैं वित्त कुफर दीया रीताँ,

ना मैं पाकाँ वित्त पलीता, ना मैं मूसा ना फरऔन

बुल्ला की जाणा मैं कौण

ना मैं अंदर बेद कतेबाँ, ना वित्त भंगाँ ना शराबाँ,

ना विच रिंदाँ मसत खराबाँ, वित्त जागण ना वित्त सौण

बुल्ला की जाणा मैं कौण

अव्वल आखर आप नू जाना, ना कोई द्या होर पछानाँ,

मैथों होर ना कोई सयाना, बुल्ला शहु खड़ा है कौण

खुल्ला की जाणा मैं कोण

यहाँ इस लंबे उद्धारण को देने का खास मकसद है क्योंकि यहाँ कवि बुल्ले शाह जीवन के सार को पहचानने की प्रक्रिया में रत नजर आता है साधना और काव्य दोनों ही बुल्ले शाह के लिए खुद को पहचानने जीवन के अर्थ को तलाशने के माध्यम हैं अपने 'आज' को समझने के लिए कभी बुल्ले शाह अतीत की स्मृतियाँ खँगालता है और कभी भविष्य के स्वप्न संजोता है कविता के अंत तक पहुँचते-पहुँचते इसमें 'जात की शनाख्त' का प्रश्न अपने युग की सभी संकीर्णताओं और अनाचारों के दबाव समेत जब उभरकर आता है तो बुल्ला शत-प्रतिशत ईमानदारी, बल्कि क्रांतिकारी ईमानदारी, के साथ एक विशेष सत्य की निर्भीक घोषणा करता हुआ कहता है- ' अव्वल आखर आप (खुद) नूँ जाना...'खुदी को बुलंद करने के इस नारे में बुल्ले शाह ने शायद मुहम्मद इकबाल को Anticipate किया था भाषाओं संस्कृतियों के आपसी संबंध मजबूत बनाने के लिए इन समानताओं को देखना जरूरी है

बुल्ले शाह के काव्य-अनुभव तथा अध्ययन का दायरा बहुत विस्तृत है उसकी रचना का चौखटा बेशक आध्यात्मिक है, फिर भी उसमें सत्रहवीं-अठारहवीं सदी के पंजाब की तनावग्रस्त राजनीतिक स्थिति और पतनशील सामाजिक दृश्य जिसमें अधर्म, अन्याय, लूट, धोखा- धड़ी यानी तमाम नैतिक मूल्यों के हास के अनगिनत ब्यौरे मिलते हैं जो दूसरे सूफियों के मुकाबले में बुल्ले शाह के व्यक्तित्व को अद्वितीय बनाते हैं अपनी संवेदना के दबाव और अनुभव की प्रामाणिकता के कारण जब बुल्ले शाह के लिए अपने समय की ठोस कड्वी सच्चाइयों की जटिलता से साक्षात्कार जरूरी हो गया तो उसकी' रचनात्मक मानसिकता की निजी मुद्राएँ उसकी काव्य भाषा को यूँ ऐतिहासिक संदर्भ देने लगी।

राजनीतिक आतंक और उथल-पुथल के उदाहरण:-

() दर खुल्ला हशर अजाब दा

बुरा हाल होया पंजाब दा

() भूरिया वाले राजे कीते

मुगलाँ ज़हर पियाले पीते

. धर्म के पाखंडी और संकीर्ण रूप पर चोट के उदाहरण

() धर्मशाला धड़वई वसदे ठाकुर दुआरे ठग्ग

वित्त मसीताँ रहण कुसत्ती आशक रहण अलग्ग

12 परिचय

() भठ नमाजाँ चिक्कड़ रोज़े कलमे ते फिर गई सियाही

बुल्ले शाह शौह अंदरों मिलिया भुल्ली फिरे लोकाई

बुल्ले शाह मध्यकाल में संक्रातिकालीन कवि था उसकी शायरी अपने समय के परिवर्तनों का आईना है उसने अपने आध्यात्मिक चिंतन अनुभव की व्याख्या करते समय भी पंजाब की लोक-संस्कति, यहाँ की धरती, भूगोल, जलवायु, प्रकृति, वनस्पति, यहाँ के दरियाओं, नदियों, जंगल-बेलों तथा ऋतुओं की साधना करते हुए इन्हें अपनी रचना-प्रक्रिया में आत्मसात किया बुल्ला जड़ होती परंपराओं का कायल नहीं क्योंकि वे मात्र पाखंडपूर्ण आवरण का काम करती हैं बुल्ला अपने समय की सामाजिक- धार्मिक राजनीतिक समझौतापरस्त स्थितियों पर खुल्लम-खुल्ला प्रहार करता है अपने से बाहर निकल सकने की यह क्षमता बुल्ले के व्यक्तित्व को नई छवियों से संपन्न करती है हिंदुओं-मुसलमानों के धार्मिक जीवन की व्यापक भ्रष्टता के बारे में बड़ी बेलिहाज़ी के साथ वह ऊँची आवाज में कहता है : -

() भठ नमाजां चिकड़ रोजे कलमे ते फिर गई सयाही

बुल्ले शाह शहु अंदरों मिलिया भूली फिरे लोकाई

बुल्ले शाह की यह आत्मसजगता किसी अहं को लेकर अग्रसर नहीं होती यह चेतना ही उसकी वास्तविक मनोभूमि है अपने भाव में मग्न कई बार वह लोगों को फूहड़ फकीर-सा लगता है जब वह पुकार उठता बुल्लिया आशक होइओं रब दा, मुलामत होई लाख लोग काफर काफर आखदे, तू आहो आहो आख बुल्ले की इस गैर-संजीदगी में भी एक गंभीर तर्क की मौजूदगी है। उसकी भाषा अकसर प्रखर तथा व्यंग्यमयहोती है, फिर भी यह कवि के मानवीय संस्कारों का ही परिचय देती है लेकिन जब कभी उसकी सूक्ष्म अनुभूति अपने उद्घाटन के लिए उसके प्रतीक-जगत या बिंब-विधान से सर्जनात्मक मुठभेड़ करती है तो बुल्ले की आंतरिक लय के भरोसे ये रचनाएँ बेहद मर्मस्पर्शी और ध्यानाकर्षक हो जाती हैं अंत में यही कहा जा सकता है कि बुल्ले शाह ने पंजाब की सूफी शायरी को नया विन्यास दिया है इस शायरी के वस्त्र देसी काफियों के हों या विदेशी सिहरफियों के, यह दोहड़ों, गाँठों, बारहमासो के रूप में लिखी जाए या अठवारे के रूप में, उसकी वाणी मानवता की मुक्ति के लिए है बुल्ले शाह अपने काल के दूसरे सूफी कवियों की तुलना में वैचारिक रूप से कहीं ज्यादा मुक्त है कसूर की गलियों में वह अवश्य गाता रहा होगा :

मैं बे-कैद मैं बे-कैद

ना मैं मोमिन ना मैं काफिर

ना सैयद ना सैद

मैं बे-कैद मैं बे-कैद

Frequently Asked Questions
  • Q. What locations do you deliver to ?
    A. Exotic India delivers orders to all countries having diplomatic relations with India.
  • Q. Do you offer free shipping ?
    A. Exotic India offers free shipping on all orders of value of $30 USD or more.
  • Q. Can I return the book?
    A. All returns must be postmarked within seven (7) days of the delivery date. All returned items must be in new and unused condition, with all original tags and labels attached. To know more please view our return policy
  • Q. Do you offer express shipping ?
    A. Yes, we do have a chargeable express shipping facility available. You can select express shipping while checking out on the website.
  • Q. I accidentally entered wrong delivery address, can I change the address ?
    A. Delivery addresses can only be changed only incase the order has not been shipped yet. Incase of an address change, you can reach us at [email protected]
  • Q. How do I track my order ?
    A. You can track your orders simply entering your order number through here or through your past orders if you are signed in on the website.
  • Q. How can I cancel an order ?
    A. An order can only be cancelled if it has not been shipped. To cancel an order, kindly reach out to us through [email protected].
Add a review
Have A Question

For privacy concerns, please view our Privacy Policy

Book Categories