पुस्तक के विषय में
कर्नल सी.के. नायडू (1895-1967)
कर्नल सी. के. नायडू भारतीय क्रिकेट के प्रथम पुरुष थे। यह बात क्रिकेट के संदर्भ में उतनी ही न्यासंगत है जितनी कि हाकी के बारे में यह कहना कि मेजर ध्यान चन्द भारतीय हाकी के प्रथम पुरुष थे। नायडू एक मात्र ऐसे भारतीय खिलाड़ी हैं जो 1916 से 1963 तक लगातार 48 वर्ष प्रथम श्रेणी मैच खेलते रहे।
सी.के. पहले ऐसे भारतीय क्रिकेट खिलाड़ी थे जिन्होंने अंग्रेजों के खिलाफ खेल कर साबित कर दिया कि उनके राष्ट्रीय खेल क्रिकेट में वह अंग्रेजों से बेहतर प्रदर्शन करने की काबलियत रखते हैं। उनकी आत्मा भारत के हर प्रतिभावना खिलाड़ी को आक्रामक क्रिकेट के लिए प्रेरित करती रहेगी।
उनके जीवन एवं खेल के बारे में इधर-उधर बिखरे तथ्यों को पहली बार हिंदी में पुस्तक रूप में प्रस्तुत करते हुए हमें प्रसन्नता है।
प्राक्कथन
घटना सन् 1929 की है । मैं तब 15 वर्ष का था और अपने घर के बाहर खेल रहा था । नायडू साहब, जो कि मेरे घर के नज़दीक ही रहते थे और मोटर साईकिल चलाते हुए मेरे घर के सामने से निकल चुके थे, पलट कर वापस आए और मेरे स्वर्गीय पिताजी से बोले कि मैं आपके लड़के को बेहरामुद्दौला क्रिकेट टूर्नामेंट के लिए हैदराबाद ले जाना चाहता हूं । मेरे पिताजी की स्वीकृति स्वाभाविक ही थी । किन्तु मेरे लिये यह चयन चमत्कार ही था क्योंकि नायडू साहब ने मुझे केवल लॉयल क्लब के नेट्स पर ही गेंदबाजी करते देखा था । उस समय मेरे पास क्रिकेट की पोशाक भी नहीं थी तथा समय भी नहीं था । अत: मुझे पेंट अपने चाचा जी से तथा शर्ट बालासाहब जगदाले से लेनी पड़ी । उक्त प्रतियोगिता में मैंने राजा धनराजगीर की टीम से खेलते हुए हैट ट्रिक की और 60 रन बनाये । यह नायडू साहब की पारखी नजर का कमाल था जिसने मेरी जिंदगी बदल डाली । मुझे यह कहने में बिल्कुल भी झिझक नहीं कि आज मैं जहां हूं वह महान कर्नल सी.के. नायडू की वजह से ही हूं ।
आज क्रिकेट में स्टार्स एवं सुपरस्टार्स का ज़माना है, पर नायडू साहब तो क्रिकेट के 'शहंशाह' थे। मैंने अपने जीवन में उनसे बड़ा क्रिकेटर नहीं देखा । वह हमेशा आक्रामक एवं दर्शकों को उत्तेजित करने वालाक्रिकेट खेले । उनका अनुशासन एवं व्यक्तित्व अनुकरणीय था । हालांकि नायडू साहब के बारे में अक्सर यह कहा जाता है कि बड़े सख्त एवं कड़क व्यक्ति थे किन्तु सच यह है कि इसके साथ ही वे हंसी-मजाक करने में भी पीछे नहीं रहते थे । यह उनके व्यक्तित्व की महानता थी कि वे किसी भी विषय पर विश्वास के साथ बोल सकते थे । तत्कालीन वायसरॉय लार्ड गेलिगन नायडू साहब के गरिमामय व्यक्तित्व के प्रशंसकों में थे । नायडू साहब पहले भारतीय थे जिन्हें वायसरॉय ने अपने साथ 'वायसरॉय हाउस' में रहने के लिए आमंत्रित किया । भारत को 'टेस्ट स्टेटस' दिलवाने में भी नायडू साहब की महत्वपूर्ण भूमिका है । 1926 में जब लार्ड टेनिसन की टीम भारत आई तब उनके विरुद्ध नायडू साहब के 11 छक्कों सहित ऐतिहासिक शतक तथा एक अन्य मैच में प्रो. देवधर के शतक ने अंग्रेजों को यह दर्शा दिया कि भारत में भी अंतर्राष्ट्रीय स्तर के क्रिकेटर हैं । उल्लेखनीय है कि नायडू साहब और होल्कर टीम ज्यादातर क्रिकेट मैटिंग विकेट पर खेले, जिस पर बल्लेबाजी करना 'टर्फ़' विकेट की तुलना में अधिक कठिन होता है । नायडू साहब के नेतृत्व में होल्कर टीम आज के सीमित ओवरों की आदर्श टीम होती क्योंकि उसमें आक्रामक बल्लेबाजों की भरमार थी । नायडू साहब क्रिकेट के अलावा टेनिस, बिलियर्ड, एथलेटिक्स एवं ब्रिज के भी उम्दा खिलाड़ी थे, जो दर्शाता है कि वह एक नैसर्गिक प्रतिभा वाले खिलाड़ी थे ।
नायडू साहब अपना शुरूआती क्रिकेट या तो नागपुर में खेले या इंदौर में । तब इन दोनों ही शहरों में टर्फ विकेट का माकूल इंतजाम नहीं था । तीस के दशक में इतनी कम सुविधाओं और इतने कम मौकों के बावजूद नायडू साहब जो क्रिकेट खेले, उसकी जितनी तारीफ़ की जाए, कम है । प्रथम-श्रेणी क्रिकेट के नाम पर पहले चतुष्कोणी स्पर्धा और फिर रंजी ट्राफी और वह भी 'नीक-आउट' पद्धति की, फिर गिलिगनकी टीम के खिलाफ 31 की उम्र में उनका नायाब प्रदर्शन व 1932 में 37 वर्ष की उम्र में टेस्ट क्रिकेट की शुरुआत, इन सभी बातों के मद्देनजर नायडू साहब का मूल्यांकन होना चाहिए । उन्होंने नए और अनजान-से सी.टी. सर्वटे व हीरालाल गायकवाड़ जैसे खिलाड़ियों को साथ लेकर एक ऐसी मजबूत होल्कर टीम बनाई कि अन्य शहरों के खिलाड़ी भी इंदौर आने के लिए तरसने लगे । यह नायडू साहब का ही करिश्मा था कि उन्होंने अनजाने खिलाड़ियों को टेस्ट दर्जे तक पहुंचा दिया । नायडू साहब ऐसे पहले भाग्यवान खिलाड़ी थे, जो भारतीय क्रिकेट के शुरुआती सालों में तो खेले ही, उन्हें भारत के पहले टेस्ट में कप्तानी करने का सम्मान भी मिला । राजा-महाराजा व नवाबों के उस दौर में खेलते हुए मौका मिलने पर उन्होंने टेस्ट क्रिकेट में भी दुनिया को अपने खेल-स्तर का अहसास करवाया।
नायडू-शताब्दी-वर्ष में सूर्यप्रकाश चतुर्वेदी महान् सी.के. नायडू पर पुस्तक लिख रहे हैं, यह बड़ी खुशी की बात है। इंदौर का कोई व्यक्ति यह पुस्तक लिख रहा है यह और भी खुशी की बात है। प्रो. चतुर्वेदी को मैं व्यक्तिगत तौर पर पिछले कई वर्षो से जानता हूं। वे खुद क्रिकेट खेले हैं, राष्ट्रीय अखबारों में क्रिकेट पर नियमित रूप से लिखते हैं और अच्छा लिखते हैं । अत: स्वाभाविक है कि उनकी मेहनत रंग लायेगी। मैं भारत सरकार के सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय के प्रकाशन विभाग के निदेशक डी. ओमप्रकाश केजरीवाल एवं लेखक प्रो. चतुर्वेदी का आभारी हूं कि उन्होंने मुझे इस पुस्तक की प्रस्तावना लिखने को कहा और गौरवान्वित किया।
भारतीय क्रिकेट और नायडू साहब अमर रहें यही कामना है।
अनुक्रमणिका
1
जन्म एवं पारिवारिक पृष्ठभूमि
2
पिता की सीख
9
3
सी.के. व बंबई की चतुष्कोणी स्पर्धा
15
4
गिलिगन की एम.सी.सी. टीम की भारत यात्रा
26
5
1932 का इंग्लैण्ड दौरा
35
6
1933-34 का एम.सी.सी. का भारत-दौरा
50
7
भारतीय टीम का इंग्लैण्ड का दूसरा दौरा
55
8
सी.के. नायडू और होल्कर टीम
63
सी.के. और होल्कर के बाद के रंजी ट्रॉफी मैच
81
10
निवृत्ति के बाद के प्रदर्शन-मैच
87
11
सी.के. व्यक्तित्व, खेल-शैली और लोकप्रियता
97
12
सी.के. घर-परिवार में
114
13
तिरस्कार व कष्ट भरे अंतिम दिन
121
14
समीक्षकों, सहयोगियों एवं समकालीनों की नजर में
128
आकड़ों के आईने में
149
16
उपसंहार विसडन में भारतीय खिलाड़ी
158
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