चरकसंहिता
सम्प्रति उपलब्ध चरक-संहिता ८ स्थानों तथा १२० अध्यायें में विभक्त है । प्रस्तुत संहिता काय-चिकित्सा का सर्वमान्य ग्रन्थ है । जैसे समस्त संस्कृत-वाड्मय का आधार वैदिक साहित्य है, ठीक वैसे ही काय- चिकित्सा के क्षेत्र में जितना भी परवर्ती साहित्य लिखा गया है, उन सब का उपजीव्य चरक है ।
चरकसंहिता के अन्त में ग्रन्थकार की प्रतिज्ञा है-यदिहास्ति तद्न्यत्र यन्नेहास्ति न तत् क्रचित् । इसका अभिप्राय यह है कि काय-चिकित्सा के सम्बन्ध में जो साहित्य व्याख्यान रूप में अथवा सूत्र रूप में इसमें उपलब्ध है, वह अन्यत्र भी प्राप्त हो सकता है, और जो इसमें नहीं हैं, वह अन्यत्र भी सुलभ नहीं है । चरक का यह डिण्डिमघोष तुलनात्मक दृष्टि से सर्वदा देखा जा सकता है ।
दूसरी विशेषता महर्षि चरक की यह रही है- पराधिकारे न तु विस्तरोक्ति:। इन्होंने अपने तन्त्र के अतिरिक्त दूसरे विषय के आचार्यों के क्षेत्र में टाँग अड़ाना पसन्द नहीं किया, अतएव उन्होंने कहा है- अत्र धान्वन्तरीयाणामू अधिकार: क्रियाविधौ।
इस प्रकार के आदर्श ग्रन्थ पर भट्टारहरिचन्द्र आदि अनेक स्वनामधन्य मनीषियों ने टीकाएँ लिखकर इसके सहस्यों का उद्घाटन समय-समय पर किया है ।
इसके पूर्वं भी चरक की कतिपय व्याख्याएँ लिखी गयी हैं, वे विषय का बोध भी कराती हैं । चरकसंहिता की चरक-चन्द्रिका टीका कें रूप में लेखक का इस दिशा में यह स्तुत्य प्रयास है । इसमें यथसम्भव चरक के रहस्यमय गढ़ स्थलों का सरस भाषा में आशय स्पष्ट किया गया है । स्थल विशेष पर पर पारिभाषिक शब्दों के अंग्रेजी नाम भी दे दिये गये हैं । अवश्यकतानुसार प्रकरण विशेष पर आधुनिक चिकित्सा-सिद्धान्तों का तुलनात्मक दृष्टि से भी समावेश कर दिया गया है, जिससे पाठकों को विषय को समझने में सुविधा हो ।
प्रथम भाग - ( सूत्र-निदान-विमान-शारीर-इन्द्रियस्थान)
द्वितीय भाग - ( चिकित्सा-कल्प सिद्धिस्थान)
प्राक्कथन (प्रथम भाग)
उपलब्ध आयुर्वेद के प्रधान आकर-ग्रन्थों में चरक-संहिता का स्थान निर्विवादरूप से उच्चतम है । यत्रतत्र बिखरे उद्धरणों से आयुर्वेद साहित्य के लुप्त विशाल भण्डार का आभास मिलता है । किन्तु वे सभी महान् कृतियाँ वर्तमानकाल तक प्राप्त थीं, ज्ञात नहीं हो सकीं । केवल महर्षि अग्निवेश कृत एवं महर्षि चरक द्वारा संस्कृत तथा आचार्य दृढबल द्वारा खण्डित अप्राप्त अंशों को प्रपूरित- सम्पादित कर जिस प्राचीन संहिता का आज चरकसंहिता के नाम से प्रचलन है, वही उपलब्ध है । सुश्रुतसंहिता भी उसी प्रकार अपने मूलरूप में उपलब्ध नहीं है । जिस रूप में भी उपलब्ध है, बाद के आचार्यो द्वारा व्यवस्थित-संवर्धित रूप में है । काश्यपसंहिता भी सपूर्ण उपलव्य नहीं है । भेलसहिता, भोजसंहिता, हारीतसहिता का वर्तमान प्राप्तस्वरूप कितना प्राचीन है यह संदिग्ध है । संस्कृत-साहित्य के प्राचीन वाङ्मय में आयुर्वेद का विशाल भण्डार है । जिनमें अधिकांश का परिचय जिज्ञासु शोधकर्त्ताओं ने प्राप्त किया है ।
चिकित्सा के सैद्धान्तिक पक्ष का जितना व्यापक एवं असंदिग्ध परिचय इन संहिता-ग्रन्थों में मिलता है, वह आश्चर्यजनक है । अपनी आप्तबुद्धि एवं क्रान्तदर्शी प्रतिभा के बलपर उन तप:- पूत महर्षियों ने जिन आधारभूत सूत्रों का निर्देश किया है, वे आज भी चिकित्सा-सिद्धान्त के मानदण्ड को स्थापित करने के लिए पर्याप्त हैं । इन विभूतिभूषित महती प्रतिभा के आकर महर्षियों द्वारा उपदिष्ट छिन्न-भिन्न साहित्य भी प्राचीन गरिमामय रूप को स्थायित्व प्रदान करता है ।
चरकसंहिता का काल-निर्धारण एवं मूल कृतिकार का सही परिज्ञान आचार्यों के आत्म- गोपन के सिद्धान्त के कारण निर्विवाद रूप में स्थापित कर पाना कठिन है । इस विषय पर रस- योगसागर के उपोद्घात में आचार्य पं० हरिप्रपन्न शर्मा जी वैद्य एवं काश्यपसंहिता की भूमिका में आचार्य पं० हेमराजशर्मा तथा बाद के अनेक विद्वानों ने अद्यतन उपलब्ध साहित्य का विस्तृत पर्य्यालोचन एवं दिग्ददर्शन विभिन्न ग्रन्थों, निबन्धों के रूप में प्रकाशित किया है । जिज्ञासु महानुभाव उस विशाल परिचर्या का विवरण तदनुरूप सन्दर्भ-ग्रन्थों द्वारा प्राप्त करे सकते हैं । इस कारण यहाँ केवल प्रस्तुत प्रकाश्यमान चरकसंहिता की चन्द्रिका व्याख्या एवं उसके साथ दिये गये विशिष्ट वक्तव्य का परिचय देना मात्र अधिक समीचीन होगा ।
प्राचीन चिकित्सा-साहित्य के अध्ययन के पूर्व जिज्ञासुओं को व्याकरण, षड्दर्शन-साहित्य का भली प्रकार अध्ययन-परिशीलन आवश्यक होता है, अन्यथा इन संहिता-ग्रन्थों के बह्वर्थ गुम्फित सूत्रों का सही भावार्थ उपलब्ध नहीं हो पाता । यद्यपि चरकसंहिता पर प्राचीन आचार्यों की अनेक विद्वत्तापूर्ण व्याख्याएँ उपलब्ध हैं, जिनमें चरकसंहिता की चरकचतुरानन आचार्य चक्रपाणिदत्त बिरचित आयुर्वेददीपिका, आचार्य जज्जट विरचित निरन्तरपदव्याख्या कुछ अंशों में प्राप्त है । बाद के आचार्यों में इस युग की महान् विभूति आचार्य गङ्गाधरसेन का विशाल व्याख्या-ग्रन्थ चरक की जल्प-कल्पतरु व्याख्या बहुत विस्तृत-समन्वित रूप में अपने विशाल परिज्ञान के साथ उपलब्ध है । इन सभी व्याख्या कृतियों के अध्ययन के लिए संस्कृत-वाङ्मय का विस्तृत पूर्वज्ञान आवश्यक है । इस प्रकार पूर्वाधार के बिना इस विशाल प्राप्त सम्पदा का भी परिचय प्राप्त करना दुष्कर है ।
आज का आयुर्वेद-विद्यार्थी इतना समय वैद्यक-ग्रन्थों के अध्ययन में नहीं दे पाता । इस कारण आचार्य डॉ० ब्रह्मानन्द त्रिपाठी ने अपने विद्वत्तापूर्ण अध्ययन से प्राप्त सभी प्राचीन व्याख्याओं का समुचित सारांशरूप में परिचय देते हुए हिन्दी भाषा में चरक-चन्द्रिका नाम की व्याख्या विशिष्ट वक्तव्य के साथ उपस्थित की है । डा० त्रिपाठी आयुर्वेद के प्रतिभासम्पन्न विद्वान् हैं हीर ज्यौतिष, साहित्य, षड्दर्शन के भी आचार्य हैं । आधुनिक चिकित्सा साहित्य तथा अंग्रेजी भाषा के भी अभिज्ञ हैं तथा संस्कृत साहित्य, व्याकरण आयुर्वेद का अध्यापन आपने अनेक विशिष्ट संस्थाओं में किया है । अनेक सम्भाषा-परिषदों के मान्य क्रियाशील सदस्य भी रहे हैं तथा अपने विशाल ज्ञान एवं गम्भीर अध्ययन द्वारा प्राप्त प्रतिभावैदुष्य से आपने अनेक सम्भाषा-परिषदो में व्यापक रूप से सहयोग दिया है । अनेक आतुरालयों में आपने अपने चिकित्सा ज्ञान को सुफल क्रियारूप में आतुरजनों को देकर सही अर्थों में चिकित्सा के अध्ययन की उपयोगिता उद्घाटित की है ।
ऐसे बहुश्रुत, बहुज्ञ, प्रतिभासम्पन्न आचार्य की लेखनी से जिस महान् कृति का चन्द्रिका टीका हिन्दी व्याख्या के रूप में प्रकाशन किया जारहा है, वह आज के वैद्यक शास्त्र के अध्येताओं के लिए बहुत उपयोगी सिद्ध होगी । प्रस्तुत टीका में स्पष्ट पद व्याख्या देते हुए विस्तार से विशेष वक्तव्य द्वारा प्राचीन व्याख्याओं का सारतत्व लेकर तथा आधुनिक चिकित्सा विज्ञान के साहित्य को आवश्यकतम, सन्तुलित, संवर्धित कर विषय-वस्तु को सुप्रकाशित करने का महान् उद्यम किया है ।
यद्यपि हिन्दी भाषा में अनेक टीकाएँ इस महान् चिकित्सा संहिता पर प्रकाशित हो चुकी हैं, सभी का अपना-अपना विशिष्ट महत्व है । हिन्दी भाषा के अतिरिक्त अनेक प्रान्तीय भाषाओं में प्रकाशित व्याख्या-ग्रन्थ हैं तथा अंग्रेजी एवं जर्मन आदि देशान्तरीय भाषाओं में अनुवाद व्याख्यान भी प्रकाशित हो चुके हैं । तथापि प्रस्तुत टीका में प्राय: सभी प्रकाशित साहित्य का सम्यक् पर्य्यालोचन कर सारांश रूप में आधुनिक शब्दावली में और नव्य-पाश्चात्य चिकित्सा के तुलनात्मक परिचय के साथ प्रस्तुत करने के कारण यह परम उपादेय हो गयी है । अत: चन्द्रिका हिन्दी टीका एवं विशिष्ट विवेचन के अध्ययन द्वारा आज का व्यस्त जिज्ञासु चरकसंहिता का भावार्थ हृदयंगम कर सकेगा ।
प्रस्तुत व्याख्यान में आचार्य पं० त्रिपाठी ने यथावश्यक सुश्रुतसंहिता, काश्यपसंहिता, भेलसहिता, भोजसहिता, हारीतसंहिता एवं विभिन्न पुराणों में प्राप्त चिकित्सा के सूत्रों का समीकरण तुलनात्मक परिचय देते हुए विषय-प्रतिपादन किया है, जिससे यह रचना अधिक उपादेय बन पड़ी है ।
डा० त्रिपाठी द्वारा लिखी गयी इस टीका को देखने से स्पष्ट ज्ञात हो रहा है कि टीकाकार ने इसमें अपनी विद्वत्ता, प्रतिभा तथा चिरन्तन अनुभवों का पूर्ण परिचय दिया है । जहाँ कहीं क्लिष्ट- पदावली तथा दुर्बोधस्थलों का तन्त्रकार द्वारा प्रयोग हुआ है, उन्हें शास्त्रीय तथा व्यावहारिक दोनों दृष्टियों से पाठकों के लिये सरल तथा सरस बनाने का यथासम्भव सफल प्रयत्न किया है ।
इस उपयोगी कृति के प्रणयन के लिए मैं आचार्य डा० ब्रह्मानन्द त्रिपाठी को हृदय से उनका स्वागत एवं शतशः साधुवाद प्रदान करता हूँ । विश्वास है, अपने इन विशिष्ट गुणों के कारण वैद्यक के विधार्थियों में इस रचना का परम आदर एवं श्रद्धा के साथ अध्ययन का प्रचार-प्रसार होकर इससे आयुर्वेद का परिज्ञान अधिक सुलभ एवं विषयोपलब्धि अधिक सुकर होगी ।
महर्घता के इ स काल में इस कृति के प्रकाशक चौखम्बा सुरभारती के व्यवस्थापक परम साधुवाद के पात्र हैं । भगवान् विश्वनाथ उनको समृद्ध एवं समुन्नत कर भविष्य में उपयोगी साहित्य का प्रकाशन, अप्रकाशित-अनुपलब्ध चिकित्सा-ग्रन्थों का अनुसन्धान कराकर ऐसे ही प्रतिभासम्पन्न ।वद्वानों द्वारा सम्पादित कराकर चिकित्सा साहित्य को समृद्ध कर यश के भागी बनें ।
प्राक्कथन (द्वितीय भाग)
आयुर्वेदीय वृहत्त्रयी में चरकसंहिता का सर्वप्रथम स्थान है । आरम्भ में इसका नाम अग्निवेश-तन्त्र था, उसी का चरक ने प्रतिसंस्कार किया । उपलव्ध चरकसंहिता दृढबल-सम्पूरित है । आज इसी चरकसंहिता का आयुर्वेद-जगत् में सर्वत्र समादर है । इतिहास का अध्ययन करने से यह भी ज्ञात होता है, कि आज की अपेक्षा प्राचीनकाल में आयुर्वेद की स्थिति अत्यधिक समृद्ध थी । आज आयुर्वेद की अनेक संहिताएँ सुलभ नहीं हैं । काश्यपसंहिता आदि कुछ ग्रन्थ खण्डित रूप में प्राप्त हैं । आज जो सुश्रुतसंहिता उपलब्ध है, वह भी अपने में अत्यन्त महत्वपूर्ण है । इसमें दिये गये अग्नि, क्षार, शस्त्र, जलौका आदि के प्रयोग विश्व की समस्त चिकित्सा-पद्धतियों को आश्रर्यचकित कर देते हैं ।
महर्षि आत्रेय द्वारा उपदिष्ट प्रस्तुत संहिता की भाषा अत्यन्त प्राञ्जल, सुस्पष्ट, सुबोध तथा मनोरम है । इसमें अनेक प्रकार की परिषदों की चर्चा भी है । उनमें सर्वत्र तद्विद्यसम्भाषा का ही अनुसरण कर महर्षि आत्रेय ने प्रसाद-सुमुख होकर अन्य मतों का युक्ति-युक्त खण्डन कर अपने मतों की सिद्धान्तरूप में प्रतिष्ठापना की है, जिनका देश-विदेशों से आये हुए सभी आयुर्वेद- विद महर्षियों एवं राजाओं ने सादर समर्थन किया है । सद्वृत्त, आचार-रसायन, तन्त्रयुक्तियां आदि अनेक मूल्यवान् विषयों का इसमें समावेश होने के कारण ही प्रस्तुत संहिता का कायचिकित्सा में महत्वपूर्ण स्थान है ।
काशी में श्रीअर्जुनमिश्र की परम्परा के चरकाचार्य श्रीलालचन्द्र वैद्य समकालिक आयुर्वेद- विदों में अग्रगण्य थे और मेरे गुरुकल्प थे । उनकी व्याख्यान-शैली अनुपम थी । उन्हीं के प्रमुख शिष्य डॉ० ब्रह्मानन्द त्रिपाठी हैं, जिन्होने चरकसंहिता पर चन्द्रिका-व्याख्या लिखी है । इसका प्रथम भाग सन् १९८३ में प्रकाशित हो चुका था । मैंने इस चन्द्रिका-व्याख्या को अथ से इति तक देखा । जिस प्रकार सुरूप के प्रति आँखों का तथा सुमधुर के प्रति जीभ का पक्षपात होता है, ठीक उसी प्रकार आयुर्वेदशास्त्र के प्रति अनुराग होने के कारण मेरा भी इस व्याख्या के प्रति पक्षपात होना स्वाभाविक था ।
निरन्तर अध्ययन, अध्यापन, विविध विषयक ग्रन्थ के लेखन आदि कार्यो में तत्पर डॉ० त्रिपाठी मेरे स्नेहपात्र हैं । इन्होंने द्वितीय भाग की पूर्ति के लिए लिखी चरकसंहिता की समस्त पाण्डुलिपियाँ मुझे दिखलायीं और उनमें से उन-उन स्थलों को देखने का मुझ से विशेष आग्रह किया, जहाँ-जहाँ इन्होंने मूलपाठों का संशोधन किया था तथा चक्रपाणि आदि प्राचीन टीकाकारों से जहां इनका मतभेद था । मैंने भी मनोयोगपूर्वक उन-उन स्थलों को देखा; अनेक युक्ति-युक्त प्रमाणों से इन्होंने अपने पक्ष की पुष्टि की है । इस प्रकार के सभी स्थलों का पर्यालोचन करने पर इनके प्रति मेरा सहज स्नेह बहता गया । अन्त में इन्होंने मुझसे प्राक्कथन के रूप में आशीर्वचन देने का आग्रह किया । मैंने इनके इस आग्रह को सहर्ष स्वीकार कर संक्षेप में यह सब लिख डाला ।
यद्यपि चरकसंहिता पर चक्रपाणिदत्त आदि मनीषियों की विद्वत्तापूर्ण अनेक टीकाएँ संस्कृत में उपलब्ध हैं । प्रकाशकों तथा सम्पादकों की असावधानी से उन प्राचीन टीकाओं के भी स्थल-विशेषों पर एक ही विषय के अनेक रूप देखे जाते हैं, जैसा कि डॉ० त्रिपाठी ने अपनी व्याख्या में स्थान-स्थान पर संकेत किया है । तथापि वे टीकाएँ समादरणीय हैं; उनसे चरकोक्त (४) रहस्य विदित होते हैं, अत: उनका परिशीलन करना ही चाहिए । किन्तु उक्त प्राचीन टीकाओं को समझने के लिए संस्कृत-वाङ्मय का पर्याप्त ज्ञान अपेक्षित है ।
आज संस्कृत-वाङ्मय का दिनों-दिन हास होता जा रहा है । आयुर्वेद के विद्यार्थियों में भी यह हास दिखलायी देता है । आयुर्वेद की कोई भी संहिता ऐसी नहीं है, जो संस्कृत में न लिखी गयी हो । अत: आज का विद्यार्थी संस्कृत का समुचित ज्ञान न होने के कारण तत्वत: उन संहिताओं के रहस्यों को नहीं समझ पाता और न अध्यापक-वर्ग ही उसे स्पष्ट कर पाता है । इस दिशा में आचार्य डॉ० ब्रह्मानन्द त्रिपाठी ने अपने विविध विषयक ज्ञान द्वारा सभी प्राचीन थ्याख्याओं का सार लेकर चन्द्रिका-व्याख्या के रूप में उसे सरल एवं सुस्पष्ट किया है, जो सर्वथा स्तुत्य प्रयास है । डॉ० त्रिपाठी अनेक विषयों के प्रतिभा-सम्पन्न विद्वान् हैं । आपने अनेक सम्भाषा-परिषदों को अपने सारगर्भ वचनों से सम्मानित किया है, अनेक ग्रन्थों का सम्पादन किया है, विविध ग्रन्थों की रचनाएँ की हैं एवं अनेक ग्रन्थों की टीकाएँ लिखीं हैं । भारतवर्ष की हिन्दी, संस्कृत एवं आयुर्वेद की सम्मानित अनेक पत्र-पत्रिकाएँ आपके लेखों को प्रकाशित कर गौरवान्वित होती रहती हैं ।
प्राचीन टीकाओं में देखा जाता है, कि उद्धरणों के अन्त में केवल सन्दर्भ ग्रन्थों के नाम देकर टीकाकार कृत-कृत्य हुए हैं । परवर्ती श्रीचक्रपाणि आदि ने अपनी टीका में केवल ग्रन्थ एवं अध्याय का नाम दिया है, जो पर्याप्त नहीं है; तथा अष्टांगसंग्रह एवं अष्टांगहृदय इन दो भिन्न ग्रन्थों के लिए टीकाकारों ने केवल वाग्भट शब्द का भ्रामक प्रयोग किया है । प्रस्तुत टीका में इस प्रकार के दोषों को कहीं भी नहीं आने दिया गया है, जो अत्यन्त परिश्रम-साध्य कार्य है । छन्द, व्याकरण तथा विषय आदि की दृष्टि से चरक के पाठों को शुद्ध करने का प्रथम प्रयास केवल डॉ० त्रिपाठी ने किया है, जो इनकी विविध-विषयक विद्वत्ता का परिचायक है । इसकी टीका करते हुए डॉ० त्रिपाठी ने उपलव्ध अन्य अनेक आयुर्वेदीय संहिताओं का स्थान-स्थान पर तुलनात्मक अध्ययन भी प्रस्तुत किया है । थोड़े ही समय में इनकी कृति को विद्वानों द्वारा जो समादर प्राप्त हुआ है, उसे देखते हुए हमारा अनुरोध है, कि ये भविष्य में सम्पूर्ण वृहत्त्रयी को अपनी प्रतिभा से अलंकृत करें ।
बहुज्ञ एवं बहुश्रुत डॉ० त्रिपाठी ने अपनी विद्वत्ता तथा चिरन्तन चिकित्सकीय अनुभवों द्वारा प्रस्तुत व्याख्या को शास्त्रीय एवं व्यावहारिक दृष्टियों से विचारकों, शोधकर्ताओं तथा पाठकों के लिए सरल एवं उपयोगी बनाने का सफल प्रयास किया है । चन्द्रिका-व्याख्या युक्त प्रस्तुत चरकसंहिता के परिशिष्ट भाग में निर्दिष्ट विविध प्रकार की सूचियाँ उसके अन्तर्गत विषयों को करामलकवत् बनाने में अत्यन्त उपयोगी सिद्ध होंगी । इस प्रकार की सूचियों का इसमें पहली तार समावेश व्याख्याकार की सूझ-बूझ एवं अथक परिश्रम का सूचक है ।
वर्षगणसाध्य इस महत्वपूर्ण कृति को सफलतापूर्वक सम्पन्न करने के लिए आचार्य डॉ० ब्रह्मानन्द त्रिपाठी को मैं हार्दिक साधुवाद प्रदान करता हूँ और उनका स्वागत करता हूँ, कि वे आजीवन तन-मन से आयुर्वेद की सेवा करते रहें ।
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