प्रस्तुत संग्रह के सभी व्यंग्य डॉ. सक्सेना की चुस्त क़लम की फ़नकारी को मुसल्लम (प्रामाणिक) बनाते हैं। इनकी तहरीरों में रवानगी लहरें लेती नज़र आती हैं। चमचा चेयर का उन्वान (शीर्षक) ही हास्य का एक बेहतरीन नमूना है। यह संग्रह पाठक को गुदगुदाकर ही नहीं छोड़ने वाला, बल्कि सोचने की चुभन भी महसूस कराएगा। कुछ व्यंग्यों का अंत करुण रस में भी हुआ है, जो एक सफल व्यंग्यकार की कसौटी है। दूसरी ख़ासियत यह है कि कुछ तन्ज़ों (व्यंग्यों) में मुस्लिम मिथकों को हिन्दू पौराणिक व धार्मिक सन्दर्भों में इस ढंग से पिरोया गया है कि भारत की गंगा-जमुनी संस्कृति का नायाब नमूना बन जाता है। यह प्रयास प्रशंसनीय और अद्वितीय है।
यह संग्रह एक नए प्रयोग के साथ हिन्दी व उर्दू प्रेमियों के लिए नहीं, बल्कि हिन्दुस्तानी प्रेमियों के लिए एक अप्रतिम उपहार है। उम्मीद है कि यह किताब उर्दू व हिन्दी अदब (साहित्य) के सभी पाठकों में सराही जाएगी।
राम प्रकाश सक्सेना
जन्म-30 जनवरी, 1941
शिक्षा-एम.ए. (इंग्लिश, हिन्दी, भाषा विज्ञान) एलएल.बी, बी.टी., बी. जे., पी-एच.डी. (गोल्ड मेडलिस्ट), डी.लिट्., पूर्व अध्यक्ष, भाषा विज्ञान, विदेशी व भारतीय भाषा विभाग, नागपुर विश्वविद्यालय, नागपुर
पत्रकारिता-पूर्व अध्यक्ष, पत्रकारिता विभाग, नागपुर वि.वि., पूर्व सम्पादक, सामान्य जन संदेश (हिन्दी त्रैमासिक) व व्यंग्य स्तंभकार
प्रकाशित पुस्तकें-1. बदायूँ जनपद की बोली (पुरस्कृत), 2. भारतीय भाषाओं में लिप्यंतरण (पुरस्कृत), 3. लिप्यंतरण सिद्धान्त और प्रयोग (पुरस्कृत), 4. मकड़ी का जाला (व्यंग्य संग्रह), 5. टूटती सुबह का दर्द (कहानी संग्रह), 6. मध्य भारत के लोक गाथा गीत (पुरस्कृत), 7. मूर्ख बने रहना ही समझदारी (व्यंग्य संग्रह), 8. अजगर करे क्यों चाकरी (व्यंग्य संग्रह), 9. बाढ़ आई बहार आई (व्यंग्य संग्रह), 10. जमाने का ज़माना (व्यंग्य संग्रह) पुरस्कृत, 11. बुझवणे (व्यंग्यों का मराठी अनुवाद) 12. Wise to be a Fool (व्यंग्यों का अंग्रेजी अनुवाद) सम्मान-उत्तर प्रदेश हिन्दी समिति द्वारा पुरस्कृत । (1980) उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा पं. राम नरेश त्रिपाठी नामित पुरस्कार (लोक साहित्य विवेचन) (1996) महाराष्ट्र राज्य हिन्दी साहित्य अकादमी द्वारा 1989 में प्रकाशन अनुदान। महाराष्ट्र राज्य हिन्दी साहित्य अकादमी द्वारा 1995 का फणीश्वर नाथ रेणु पुरस्कार। महाराष्ट्र राज्य उर्दू अकादमी द्वारा उर्दू में सर्वश्रेष्ठ व्यंग्य संग्रह के लिए पुरस्कृत । • महाराष्ट्र राज्य हिन्दी साहित्य अकादमी द्वारा 2005 में डॉ. होमी जहाँगीर भामा पुरस्कार
तन्जो-मज्ञाह का यह मजमुआ (हास्य-व्यंग्य संग्रह) एक नई तरह का प्रयोग है। जबान (भाषा) उर्दू और रस्मुलखत (लिपि) देवनागरी, साथ में मानी (अर्थ) हिन्दी में। क़वायद की (व्याकरणिक) दृष्टि से हिन्दी और उर्दू में बहुत फ़र्क़ नहीं है। बहुत से लफ़्ज़ (शब्द) दोनों जबानों में एक जैसे हैं। रस्मुलख़त ही इन दोनों को अलग करता है।
आज़ादी के पहले उर्दू का बोलबाला था। उर्दू मुशायरे हिन्दी कवि सम्मेलनों से अधिक लोकप्रिय थे। इक़बाल का 'सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोस्ताँ हमारा' आजादी से पहले सभी भारतीयों का प्रेरणा स्रोत रहा। पाकिस्तान बनने से और कुछ रहनुमाओं (नेताओं) की गलत नीतियों के कारण आज़ादी के बाद उर्दू को बहुत नुक़सान हुआ। फिर भी ऐसे लोगों की कमी नहीं, जो हिन्दी और उर्दू को एक ही ज़बान (हिन्दुस्तानी) की दो शैलियाँ मानते हैं। लेखक अपने को हिन्दुस्तानी मानता है और हिन्दी व उर्दू को अपनी दो आँखें। अब धीरे-धीरे उर्दू का इस्तेमाल बढ़ रहा है। सिनेमा और टीवी की वजह से भी उर्दू को काफ़ी फ़ायदा हुआ है। उर्दू अदब (साहित्य) को देवनागरी में पढ़ने वालों की संख्या बढ़ रही है। लोग अपनी तक़रीर (भाषण) को असरदार (प्रभावी) बनाने के लिए उर्दू शेरों को उद्धृत (कोट) करते हैं। कंपियरिंग (मंच संचालन) में उर्दू का इस्तेमाल धड़ल्ले से बढ़ रहा है। हिन्दी तालीम याफ्ता (शिक्षित) लोग हिन्दी में तलफ़्फुज (उच्चारण) में (व लेखन में भी) 'क़, ख़, गु, ज, फ़' का इस्तेमाल करने लगे हैं। हिन्दी साहित्यिक रिसालों (पत्रिकाओं) में जो नुक़्ता हट गया था, उसका इस्तेमाल फिर होने लगा।
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