पाठ, टीका आदि की अनेक नयी विधियाँ भारतीय प्रसंङ्ग में प्राक्-आधुनिक हैं, भले इधर वे हिन्दी आलोचना के परिसर से बाहर ही रहती आयी हैं।
'राम की शक्तिपूजा' की यह टीका निराला की कविता को उसकी पूरी अर्थाभा, आशयों और अन्तर्ध्वनियों में, समकालीन सन्दर्भों और पारम्परिक स्मृति के अत्यन्त सर्जनात्मक रसायन के रूप में पुनरायत्त करने का अवसर सुलभ कराती है।
प्रकारान्तर से यह टीका सत्यापित करती है कि निराला की आधुनिक संवेदना में परम्परा के कितने सन्दर्भों-स्मृतियाँ और अन्तर्भावाँ का गुम्फन और पुनराविष्कार है।
उसका एक अघोषित किन्तु असन्दिग्ध प्रतिपाद्य यह भी है कि श्रेष्ठ आधुनिकता के स्थापत्य में परम्परा की अनेक तहाँ और घटित स्तरों का आधार है; यह भी कि प्रश्नाकुलता आधुनिकता भर का नहीं, हमारे यहाँ परम्परा का भी स्वभाव रहा है।
जन्म : 9 जुलाई, 1946, बस्ती (उ.प्र.)।
पूर्व प्रोफेसर, गणित विभाग, आई.आई.टी. दिल्ली।
डॉक्टर वागीश शुक्ल ने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से गणित में स्नातकोत्तर किया। भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान, दिल्ली में वर्षों तक प्राध्यापन।
वागीश शुक्ल ने जहाँ एक वैज्ञानिक के रूप में उच्च गणित में मौलिक शोध किया, वहीं उन्होंने साहित्य की भी सराहना की। वे वर्तमान समय में हिन्दी साहित्य के सबसे गहरे और तीक्ष्ण सिद्धांतकार, आलोचक, निबंधकार एवं उपन्यासकार हैं।
उनकी तीन पुस्तकें 'चंद्रकान्ता (सन्तति) का तिलिस्म', 'शहंशाह के कपड़े कहाँ हैं', और 'छन्द-छन्द पर कुमकुम' प्रकाशित हैं। 'शहंशाह के कपड़े कहाँ हैं' पुस्तक में अनेक मूलभूत प्रश्नों पर वैचारिक निबंध हैं।
'छन्द-छन्द पर कुमकुम' निराला की सुदीर्घ कविता 'राम की शक्ति पूजा' की अद्वितीय टीका है। आधुनिक समय में कोई ऐसा वैज्ञानिक उद्यम किसी अन्य भारतीय लेखक ने इस स्तर का नहीं किया है। यह टीका निराला की इस महत्त्वाकांक्षी कविता को भारतीय साहित्य की देशी और मार्गी परंपरा के परिवेश में अवस्थित कर उसकी अर्थ- समृद्धि को उद्घाटित करती है।
वागीश शुक्ल ने गालिब के लगभग पूरे साहित्य की विस्तृत टीका और व्याख्या लिख रखी है, जो आनेवाले वर्षों में प्रकाशित होगी।
वे पिछले कुछ वर्षों से एक सुदीर्घ उपन्यास लिखने में लगे हैं, जिसके कुछ अंश हिन्दी की पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए हैं। हिन्दी, संस्कृत, फारसी और अंग्रेजी भाषा और साहित्य के गहरे और गम्भीर अध्येता वागीश शुक्ल साहित्य अकादेमी की परियोजना, भारतीय साहित्य का विश्व-कोश के मुख्य सम्पादक भी हैं।
भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान से सेवा-निवृत्त होकर इन दिनों आप रोहिणी, दिल्ली में रहते हैं।
'राम की शक्तिपूजा' की टीका 'छन्द छन्द पर कुङ्कम'। यह सामान्य व्याख्या नहीं है, अपितु आचार्य वागीश शुक्ल की यह कृति भारतीय ज्ञान परम्परा में हिन्दी साहित्य की व्याख्यान पद्धति को निर्धारित करने का एक अनुपम यत्न है। हिन्दी में विकसित आलोचना पद्धति और कवि के जीवन के आधार पर कविता की व्याख्या की अशास्त्रीय प्रणाली के स्थान पर कविता की पंक्तियों और उसमें प्रस्तुत विचारों को सम्पूर्ण भारत की साहित्यिक ज्ञान परम्परा के आलोक में प्रायोजित करने, व्याख्यायित करने तथा अर्थ सन्दर्भों को समंजित करने का एक नया, किन्तु साहित्यशास्त्र की भारतीय परम्परा पर अधिष्ठित महनीय कार्य है। यह इसलिए भी महत्त्वपूर्ण है कि निराला के द्वारा रचित 'राम की शक्तिपूजा' एक ऐसी कविता है, जिसकी अनेक व्याख्याएँ हैं, जिस पर समालोचनाएँ कितनी संख्या में हुई हैं, ये तत्काल बता पाना किसी के लिए भी कठिन है। यह एक ऐसी कविता है, जो अपने प्रकाशन से आज तक शाश्वत काव्य है, सर्वाधिक पढ़ी जानेवाली है और सिर्फ सामान्य पाठकों तक ही नहीं, अपितु हिन्दी के देश के सभी पाठ्यक्रमों में इसका कोई-न-कोई स्थान है। इस कविता को भारत की टीका परम्परा के आलोक में व्याख्यायित करना कविता की व्याख्या के एक नये पथ की निर्मिति है। यह सन्दर्भों को सिलसिलेवार प्रस्तुत करना है तो पारम्परिक ज्ञान स्मृति का पुनराख्यान भी है। यह व्याख्या इस दृष्टि से भी महत्त्वपूर्ण है कि आचार्य वागीश शुक्ल ने इसमें अन्य सभी व्याख्यानों को समाविष्ट करते हुए, उन्हें ध्यान में रखते हुए शुद्ध और साधु व्याख्या जो शास्त्र सम्मत है, पारम्परिक है तथा अधुनातन भी है।
हिन्दी आलोचना पिछले कुछ दशकों से साहित्य के अवधारणात्मक वशीकरण में कुछ इस कदर व्यस्त रही है कि कृतियों को ध्यान-जतन से पढ़ने और उनमें अनिवार्यतः विन्यस्त आशयों, सङ्केतों, आभासौं और अन्तध्वनियों को पकड़ने और सामने लाने की आदत अगर एकदम गायब नहीं हो गयी तो काफ़ी कमजोर जरूर पड़ गयी है। यह तब जबकि आलोचना के उत्तर-आधुनिक दौर में संसार भर में कृतियों का पाठ और विवेचन एक केन्द्रीय उदद्यम के रूप में सुप्रतिष्ठित हुआ है। इस बात की भी प्रायः अनदेखी की जाती रही है कि पाठ, टीका आदि की अनेक नयी विधियाँ भारतीय प्रसङ्ग में प्राक् आधुनिक हैं, भले इधर वे हिन्दी आलोचना के परिसर से बाहर ही रही आयी हैं।
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