सामूहिक चर्चा और सद्भावपूर्ण परिचर्चा सफल-निष्कर्षों के मूलस्रोत हैं। संकट की घड़ी में और समस्याओं की आंधी में काम आने वाले रक्षक कवच भी परिचर्चाओं के दौरान प्राप्त समाधान ही हैं। ऐसी उम्मीद से ही प्रस्तुत संगोष्ठी का आयोजन किया गया है। भारत अनेकता में एकता और विविधता में सफलता को ढूंढनेवाला देश रहा है। उस के इसी लक्षण से ही आकर्षित होकर भारत में अनेक संस्कृतियों का सानंद आगमन हुआ है। समाज के सानंद भागीदारी से ही राष्ट्र और देश सुख-शांति से विकसित होगा। सद्भाव और सौहार्दता के वातावरण में ही देश समृद्ध होगा। वैमनस्यता और अविश्वास देश के विकास में और समृद्धि में अत्यंत घातक सिद्ध होंगे। इस कोण से भारत की अतिमहत्वपूर्ण सामाजिक रुग्मताओं में आज सांप्रदायिकता भी शामिल हो गयी है। यह सब से बड़े दुर्भाग्य की बात है।
इस दुर्भाग्यपूर्ण वातावरण भारत में फैलने के लिए सर्वप्रथम जिम्मेदार अंग्रेज शासन ही है। अँग्रेजों के आने के पहले भारत हिंदू और मुसलमानों के बीच में संघर्ष अवश्य रहा है। किंतु भारत के बहुसंख्यक उन दोनों समुदायों के बीच में वैमनस्य और अविश्वास का वातावरण नहीं रहा है। अंग्रेजों ने अपने स्वार्थ के लिए यानी अपने शासन को बनाये रखने के लिए हिंदू और मुसलमानों के बीच के सांस्कृतिक एवं धार्मिक अंतर को हवा दिया। उन्हें सुलगने के लिए उचित वातावरण और प्रयत्न किए। अंग्रेजों के द्वारा अपनाई गयी फूट नीति के कारण पूरे भारत में हिंदुओं और मुसलमानों के संबंध बुरी तरह विघटित हो गये। इस के अलावा धर्मांधता के कारण सांप्रदायिकता अपनी जड़ें जमाने लगी थी। इस सांप्रदायिकता के कारण हिंदू-मुस्लिम संबंधों का विघटन अमानवीयता की हद तक होने लगा था। युगों से मिलजुलकर रहते आये हिंदू और मूसलमान एक दूसरे के प्रति आशंकित होने लगे, एक दूसरे को नफरत की दृष्टि से देखने लगे। समाज में अलगाव की रेखाएँ खिंचने लगीं। पूरा सामाजिक जीवन अशांति और असुरक्षा का शिकार हो गया। दंगे-फसाद, अगजली, लूट-मार, अत्याचार आये दिन होने लगे। हिंदू और मुसलमान एक दूसरे पर आक्रमण-प्रत्याक्रमण करने लगे। हिंदुओं पर आक्रमण करना मुसलमानों के लिए धार्मिकता थी तो मुसलमानों को आतंकित करते हुए हिंदू राक्षसी आनंद का अनुभव करते थे। पूरा देश अशांति और असुरक्षा का शिकार हो गया था। सामाजिकता और सद्भाव का निर्वहण संभव ही नहीं था। धर्मांधता पर आश्रित सांप्रदायिकता के कारण हिंदू और मुसलमानों के साथ साथ अन्य का जीवन भी त्रासद और अशांतिमय हो गया था। सांप्रदायिकता एक-दो घटनाओं तक सीमित रहती तो भी बर्दाश्त की जा सकती थी। लेकिन इस की निरंतरता को लेकर चिंतित होना पड़ता है। मुजफ्फरनगर में सांप्रदायिकता से प्रेरित दंगे सांप्रदायिक दंगों के इतिहास को तरोताज करते हैं।
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