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सम्पूर्ण काल सर्प योग कारण और निवारण: Complete Kaal Sarp Yoga Reason and Solution

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Item Code: HBE581
Author: Purnendu Kaushik ''Hari Priya''
Publisher: Karam Singh Amar Singh Book Sellers, Haridwar
Language: Sanskrit Tex with Hindi Translation
Edition: 2009
Pages: 184
Cover: PAPERBACK
Other Details 8.5x5.5 inch
Weight 200 gm
Book Description
प्राक्कथन

आदरणीय सुविज्ञ विद्वत बन्धु, भारतीय संस्कृति अधिकतर वेदों और पुराणों पर ही आधारित है और मानव जीवन का समूचा वाङ्मय इन्हीं शाश्वत ग्रन्थों से निर्माण होता है। वेदों में जहां मानवीय जीवन को सर्वश्रेष्ठ और देवतुल्य बनाने का मार्ग प्रशस्त होता है वहीं पुराणों में इसे अति सरल और रम्य सुरूचिपूर्ण बनाने के लिए नाना प्रकार की गाथाओं, कथाओं और कहानियों में समाहित कर के अति रोचक बनाया गया है। वेदों में हमें जहां औषधीय, व्यापारिक, आध्यात्मिक तथा कर्मकाण्डीय ज्ञान प्रचुर मात्रा में उपलब्ध होता है, वहीं खगोलीय एवं ज्योतिषीय ज्ञान भी सहज में ही प्राप्त होता है।

अभी कुछ ही वर्षों से, लगभग बीस-पच्चीस वर्षों से ज्योतिष में एक कालसर्प नामक योग प्रकाश में आया है। यद्यपि यह सैकड़ों वर्ष पूर्व के ज्योतिष ग्रन्थों में भी प्रकट हो चुका है, ऐसा आज के अनेकों ज्योतिषियों एवं ज्योतिष पुस्तकों के लेखकों का कहना है किन्तु इतना गहन विचार इस योग पर पहले कभी किसी ने किया हो, कहा नहीं जा सकता। सभी कहते हैं कि इस योग का प्रभाव इतना गहरा और अनिष्टकारी होता है कि इससे मनुष्य का समूचा जीवन नष्ट हो जाता है। इस योग से ग्रसित व्यक्ति का ईलाज न कोई औषधी और न ही कोई दान-पुण्य, तीर्थ स्नान और देव दर्शन है। इस का ईलाज है तो केवल इसके मूल कारण ग्रह 'राहु' में एक विशेष विधि से उसके घातक दोष को निवृत करके उस में प्रसन्नता उजागर करना और उसके प्रत्यधिदेव 'काल' को विनम्र बनाना है।

ज्योतिष में राहु और केतु को छाया ग्रह करके माना गया है। पौराणिक कथा में समुद्र मंथन के समय दैत्य राहु अपनी कौतुकीय क्रिया से देवता का भेष बनाकर देव पंक्ति में अमृतपान करने के लिए जा बैठा था। जब श्रीहरि विष्णु को उसके छल का पता चला तो प्रभु ने अपने चक्र से उसकी गर्दन शरीर से अलग कर दी थी। तभी से राहु एक होते हुए भी दो भांगों में बंट गया था। एक राहु और दूसरा केतु। गर्दन का भाग राहु और धड़ का भाग केतु कहलाया और इन दोनों भागों को सूर्यादि ग्रहों की पंक्ति में भी शामिल कर लिया गया तथा इनकी पूजा भी सूर्यादि ग्रहों की भांति होने लगी। इन्हीं (सूर्यादि) ग्रहों के प्रभान्वित जीवमात्र का जीवन हो गया अर्थात इन ग्रहों का अच्छा या बुरा प्रभाव जीव पर पड़ने लगा। सभी प्राणियों में मनुष्य चेतन और विचारवान वृत्तिवाला होने के कारण दुख-सुख को अनुभव करके उसके निराकरण का उपाय भी सोचने लगा, जबकि अन्य जीव पशु-पक्षी, कीट-पतंग सभी दुख और सुख को भोगने मात्र में ही निहित रह गए। मनुष्य ने फिर इन ग्रहों का अनुसंधान कर इन के प्रभाव से लाभ-हानि दर्शाने वाली विद्या की खोज की, जो हमारे अपौरुषीय ग्रन्थ वेदों में भगवान स्वरुप नारायण ब्रह्म ने पहले ही लिखी हुई थी। ऋषियों ने इस विद्या को ज्योतिष अर्थात प्रकाश का नाम दिया। ज्योतिष को सूर्य की आंखें भी कहा जाता है। वेदों में इसे दिव्य ज्योति का नाम भी दिया गया है। यह विद्या सूर्यादि ग्रहों के शुभाशुभ फल का ही लेखा-जोखा प्रकट करती है। इन्ही ग्रहों में राहु-केतु अथवा राहु का प्रत्यधि देवता 'काल' और केतु का प्रत्यधि देवता 'सर्प' एक ऐसे विनाशकारी योग की सृष्टि करते हैं जिस का परिहार केवल इनकी वैदिक पूजा ही है।

दोनों ग्रहों के प्रत्यधि देवता काल और सर्प ही मिलकर इस योग में विध्वंशकारी स्थिति पैदा करते हैं कि जिसका प्रभाव व्यक्ति को विनाश के कगार पर ला खड़ा करता है।

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