पुस्तक परिचय
हिन्दू सभ्यता मे यम मृत्यु के देवता हैं जो भय उत्पन्न करते है । परन्तु भारतीयो मे मृत्यु का आभास ऐसा भय उत्पन्न नहीं करता, बल्कि इसे जीवन का एक अग माना जाता है ।
इस पुस्तक मे भारतीय दृष्टिकोण से मृत्यु के तथ्य की व्याख्या और विश्लेषण किया गया है । इस पुस्तक का उद्देश्य आज के भारत मे मरण के उगभास का निरीक्षण करना, सामाजिक वातावरण पर इसके दबावो को दर्ज करना और यथासम्भव इसकी प्राचीनतम सास्कृतिक जडों की तलाश करना है । लेखक ने जन्म, विकास और वृद्धावस्था के चरणो रो गुजरते हुए शरीर की मृत्यु की संकल्पना के क्षणो गर विचार किया है । सक्षिप्त रूप से उस यात्रा का भी निरीक्षण किया है जो प्राण शरीर को छोडने के पश्चात् करता है । लेखक ने कई वर्षों के भारत भ्रमण के दौरान होने वाले व्यक्तिगत अनुभवों, कई संन्यासियो, मृतको के रिश्तेदारो, अघोरियो से इस विषय पर गहन विचार विमर्श कर तथा अनेक पारम्परिक रीति रिवाजो का गहन अध्ययन करने के पश्चात् इरा पुस्तक को लिखा है । अपने अनुसधान मे लेखक ने इरा विषय के उन सभी अध्ययनो पर मी विचार किया है, जो भारत और पश्चिम मे किए गए हैं तथा कई संस्कृत ग्रथो और ऐतिहासिक अनुवादों का उपयोग भी किया है ।
हिन्दू सस्कृति मे मृत्यु पर यह अध्ययन साधारण पाठको एव इस विषय पर अनुसधान करने वाले सभी विद्वानो के लिए अत्याधिक उपयोगी होगा ।
लेखक परिचय
डा० ज्यान जियुसेप्पे फिलिप्पी (ज. 12. 6. 47) भारतीय अध्ययन के क्षेत्र में मान्यता प्राप्त की है। तीन दशकों से भी अधिक समय से उन्होंने भारतीय इतिहास, कला और कई भारतीय अध्ययन सम्बन्धित विषयों पर अनुसंधान किया है। इन विषयों पर संसार के सर्वश्रेष्ठ विश्वविद्यालयों और संस्थानों में उन्होनें व्याख्यान दिया है।
1985, से, डा० फिलप्पी वेनिस विश्वविद्यालय में भारतीय कला के प्रोफेसर के पद पर कार्यरत है। इनकी दो पुस्तकें और साठ से अधिक शोध पत्र प्रकाशित हुए हैं।
प्रस्तावना
यह अध्ययन भारत और यूरोप में, विश्वविद्यालयों, संग्रहालयो, परिषदों, पुस्तकालयो में अनेक वर्षों के अनुसंधान का परिणाम है । किसी भी वैज्ञानिक कार्य के लिए अपेक्षित निर्वैयक्तिक, वस्तुपरक रबर को एक्) तरफ रखते हुए मैं उन सभी संन्यासियों, ब्राह्मणों, मृत और मरण शैय्या पर पडे व्यक्तियों, डोमो और अन्त्येष्टि स्थल के आसपास रह रहे व्यक्तियों के प्रति आभार व्यक्त करना चाहता हूँ, जिनके नामों का हम वास्तव मे वर्णन नहीं कर सकते । वे सब भावों, विश्वासों, धर्मग्रंथों के संदर्भों, रीति रिवाजों, आशाओं, धार्मिक कर्मकाडों के एक्? मिश्रित जाल को प्रकट करते हैं । उन्होंने पूरी तरह शालीनता से आवृत अपने अंतरग विचारों और अनुभवो को बताया । यहाँ तक कि मृत्यु के अपूर्व अनुभवों पर अपने विचारो के विवेचन में विनम्र लोगों ने भी अत्यन्त बौद्धिक कुतूहल व्यक्त किया है । इन लोगो के प्रति मेरा आभार और सम्मान मेरे प्रस्तुतीकरण के स्वर को सरल और संवेदनात्मक बनाता है । इसका अभिप्राय यह नहीं है कि अनुसंधान के विद्वतापूर्ण विचार तत्व पर अधिक नियंत्रण नहीं रखा गया है । कभी कभी वैज्ञानिक अध्ययनों को प्रभावित कर देने वाले सभी भावुकतापूर्ण विकारों से बचा गया है ।
मैं भारतीय विद्याओ के अध्ययन और भारतीय सास्कृतिक परम्परा से सम्बन्धित उन सभी व्यक्तियो के प्रति श्रद्धा व्यक्त करता हूँ जिनका यही वर्णन करना मेरा प्रिय कर्त्तक है । सबसे पहले इंदिरा गाधी राष्ट्रीय कला केंद्र की हृदय और मस्तिष्क डा० कपिला वात्सायन का जिक्र करता हूं । इस कला केन्द्र की दिल्ली शाखा में मैं शैक्षणिक वर्ष 1992 93 मे आमंत्रित प्रोफेसर के रूप में रहा । मेरी स्मृति मे उनका व्यक्तित्व वाराणसी के इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केन्द्र के वैज्ञानिक कार्यकलापों के लिए उत्तरदायी शांत और बहुश्रुत डा० बेटिना बूमर से जुड़ा है । डा० बूमर विश्व के इस सर्वाधिक विकट और भव्य नगर का भ्रमण करने वाले सभी भारतीय विद्याशास्रियों को बौद्धिक और व्यावहारिक परामर्श देने के लिए सदैव तत्पर थीं । भारतीय पुरातत्त्वसर्वेक्षण के महानिदेशक डा० एम०सी० जोशी ने एक बार मुझे उदारतापूर्वक विभिन्न अनुभूतियाँ और परामर्श दिए । डा० आर०सी० शर्मा. पूर्व महानिदेशक राष्ट्रीय संग्रहालय, नई दिल्ली और कुलपति दिल्ली विश्वविद्यालय ने भी बहुत सहायता की । इसी विश्वविद्यालय के डा० आर०सी शर्मा और मेरे मित्र प्रोफेसर पंत ने मुझे उदारतापूर्वक अनुसंधान सामग्री प्रदान की । इसी संस्थान में विख्यात पुरातत्वविद और उदार हृदय मित्र प्रो. एसपी. गुप्ता ने भी उस समय काफी मदद की, जब वे इलाहाबाद संग्रहालय के निदेशक थे । मैं सागर विश्वविद्यालय के प्रोफेसर प्रेम शंकर, जो सच्चे विशेषज्ञ हैं. के प्रति सम्मान प्रकट करना चाहता हूं जिन्होंने मेरे अनुसंधान में निहित साहित्यिक विषय वस्तु को निर्दिष्ट किया । इसके अतिरिक्त अध्ययन के इस कष्टपूर्ण क्षेत्र में एक सच्चे आध्यात्मिक पथ प्रदर्शक दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रोफेसर सत्यव्रत शास्री को भी धन्यवाद देना चाहता हूँ । मैं पीसा विश्वविद्यालय में भारतीय यूरोपीय अध्ययन के प्रख्यात विद्वान प्रोफेसर रोमनो लेजेरोनी का भी धन्यवाद करता हूं जिन्होंने मुझे मूल पाठों और हस्तलिपियों की वे प्रतियाँ उपलव्य कराई, जिन्हें वर्तमान समय मैं प्राप्त करना अत्यन्त कठिन है । मैं अमेरिकन भारतीय अध्ययन संस्थान के वैज्ञानिक माननीय प्रोफेसर एक०ए० ढाकी का आभार प्रकट करता हूं जिनके पुस्तकालय में मेरे अनुस्थान ने एक निश्चित आकार ग्रहण किया । मैं बनारस हिन्दु विश्वविद्यालय के प्रो कमल गिरि, तिवारी मारुति और दास गुप्ता का भी आभार प्रकट करता हूं जिन्होंने बहुमूल्य साज सज्जा का निर्माण किया । मुझे रामनगर के महाराजा माननीय डा. विभूति नारायण सिंह के गहन निरीक्षण और महत्वपूर्ण आध्यात्मिक चित्रों का लाभ प्राप्त हुआ । वेरुज्या विश्वविद्यालय के प्रोफेसर और अंतर विश्वविद्यालय यूरोपियन एशियन शामानी धर्म या पुरोहितवाद अनुसंधान केन्द्र के अध्यक्ष प्रो० रोमानो मस्त्रोमतई भी मेरे आभार के पात्र हैं जिन्होंने मृत्यु के अनुभव पर अपने विचार मुझे बताए और जो मेरे लिए अत्यन्त सहायक सिद्ध हुए । इस सम्बन्ध में मैं एक सच्चे मित्र खजुराहो और छतरपुर के तपोमूर्ति महाराज माननीय भवानी सिह परमार का भी धन्यवाद करता हूं जिन्होंने मृत्यु के अनुभव के सम्बन्ध में अपने अंतरंग अनुभवों को मेरे सामने खुले दिल से प्रस्तुत किया । मैं मिलन विश्वविद्यालय के प्रोफेसर और वीनस विश्वविद्यालय के इटालियन भारतीय संघ के पूर्व अध्यक्ष प्रो० कार्लो बेल्ला कासा का भी जिक्र करना चाहता हूँ । वे एकमात्र इटालियन हैं जो पहले इस विषय से जुड़े रहे हैं । एक अच्छे मित्र वीनस विश्वविद्यालय के प्रो० ज्युल्यानो बोक्कली ने समूचे अनुसंधान के दौरान मेरा साहस बढाया । मैं माननीय डा० लोकेश चन्द्र. डा० त्रिवेदी, निदेशक, लखनऊ संग्रहालयतिब्बती उच्चतर अध्ययन संस्थान, सारनाथ के प्रो० गेशे येशे थबके और समदोग रिपोचे और कश्मीर शैववाद के गहन ज्ञाता, कश्मीर के सुबुद्ध और बहुश्रुत महाराज माननीय डा० कर्ण सिह का भी स्मरण करना चाहता हूँ । मैं प्रख्यात मानवविज्ञानी, एक परामर्शदाता और मित्र, इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केन्द्र के प्रोफेसर बी०एन० सरस्वती और वाराणसी के रहस्यो के आश्चर्यजनक धारक ओम प्रकाश शर्मा के प्रति भी आभार और अनुराग व्यक्त करना चाहता हूँ । अपने अध्ययन के दौरान मुझे हिन्दू धर्म के तीन आदरणीय व्याख्याताओं पंडित बैकुठनाथ उपाध्याय, पंडित प्रो० विश्वनाथ शास्त्री दातार वाराणसी और पंडित दत्तात्रेय शासी, शकराचार्य मठ, गया रमे अत्यन्त प्रोत्साहन मिला जिन्होंने मुइाए उदारतापूर्वक व्याख्याएँ प्रस्तुत कीं और निर्देश दिए तथा मुझे अपने अनुभव बताए । भारत मे मेरे अनुसंधान की सफलता का महान श्रेय वाराणसी के जिला मजिस्ट्रेट श्री आर० के. सिन्हा को जाता है जिनके कारण मेरे लिए वाराणसी के उन स्थानों के चित्र लेना संभव हो सका जिनके लिए सामान्यत मनाही है । इस सफलता का श्रेय कर्मकाण्ड अनुष्ठान के विशेषज्ञ महापंडित देवी प्रसाद जयत पांडे को भी जाता है । मैं अपने मित्र हजारी मल बैठिया के० राय मित्तल और निकोलस पकलिन के प्रति गहन आदर प्रकट करता हूँ जिनके आतिथ्य, उदारता और मनोयोग ने मुझे सदैव प्रोत्साहित किया और सहारा दिया । मैं अपने युवा मित्र तथा भारतीय विद्या शासी डा० आन्तोनीयो रिगोपौलोस के प्रति भी आदर व्यक्त करता हूँ जिन्होने इस पुस्तक का अनुवाद अग्रेजी मे किया है । मेरे अनेक छात्र उनमें रवे अंतिम नहीं है जिन्होंने भारत में मेरी नियुक्ति के बाद अत्यन्त समर्पण और उत्साह के साथ मेरी सहायता की । उन्होने मेरे सहायक, अनुसंधानकर्त्ता और सूचीकार बनते हुए, मेरी हरसंभव मदद की । मैं कामना करता हूँ कि हर किसी को ऐसे समर्पित शिष्य मिलें ।
अत मे मैं अपनी पत्नी और बच्चों के प्रति विशेष उद्गार व्यक्त करता हू जो प्रारम्भ में इस विषय के चयन से उलझन में पड़ गए थे, लेकिन बाद मे पूरे मनोयोग के साथ मेरे ध्यान को निरन्तर धारण करते हुए तथा आगे बढाते हुए इस विषय को खोलने में मेरा अनुकरण किया । क्योंकि निसन्देह मृत्यु पर किसी पुस्तक को किसी जीवित व्यक्ति के प्रति समर्पित नही किया जा सकता, अत मैं अपनी पत्नी और बच्चो को अपना समूचा प्यार देता हूँ ।
परिचय
यम वह देवता है, जो भय उत्पत्र करता है । भारत में उसके विषय मे बातचीत करने या सामान्यत उसका नाम लेने रो आज भी बचा जाता है । इसके विपरीत मृत्यु का आभास भारतीयों की आत्मा के लिए ऐसा ही भय उत्पन्न नहीं करता । पाश्चात्य चिंतकों ने जिसे भाग्यवाद की अभिवृति से परिभाषित किया है उसे स्वीकार करते हुए मृत्यु को गरीबी, बीमारी और बुढापे की तरह एक्? स्वाभाविक घटना, जीवन का एक अंग माना जाता है । परन्तु मृत्यु का देवता कायांतरण का रहस्यमय तत्व है जिसे हल्के ढग से नहीं लिया जाना चाहिए, विशेषकर तब जब उसके द्वारा निश्चित भौतिक और आध्यात्मिक नियम अज्ञात हैं । शायद यह भी एक्) कारण है कि पारम्परिक लेखक और भारतीय बुद्धिजीवी यम और इसके परिवार के देवताओं के अध्ययन से सावधानीपूर्वक बचते रहे, जबकि इसके विपरीत उन्होंने मृत्यु के उपरांत की विभित्र भवितव्यताओं के विस्तृत विवरण के प्रति स्वयं को समर्पित कर दिया ।
पश्चिमी जगत में इसके विपरीत प्रवृत्ति प्रचलित रही है । वहाँ मृत्यु अध्ययन का एक सामान्य, दार्शनिक विषय है जो एक सैद्धांतिक दृष्टिपक्ष से नियंत्रित होता है और जिसकी कोई तात्कालिक क्षमता निश्चित नहीं की गई है । वास्तव में इस बौद्धिक लक्ष्य का विलक्षण इन्द्रजाल शारीरिक अमरता की विकृत इच्छा से उत्पन्न होता है । यदि मृत्यु निर्विवादित रूप से एक्) सार्वभौमिक गोचर वस्तु है तो हमारे प्रतिदिन के अनुभव मे इसे निरन्तर झाड फूंककर हटाया और दूर भगाया जा सकता है । पश्चिम में मृत्यु पर विभिन्न रोचक अध्ययन किए गए है और दैवीय ढंग से प्रकाशित किए गए हैं । वे सब समाज विज्ञान, मानव जाति विज्ञान और मनोविज्ञान के विश्लेषणों पर केंद्रित हैं । ये अध्ययन उसी की पुष्टि करते हैं जो हम प्रतिदिन के जीवन में जान लेते हैं, जिनमें अस्पतालो को मृत्यु शैया पर पडे लोगो का भंडार समझा जाता है । यह मनोवृत्ति पाश्चात्यों को उनके अपने घरों में मृत्यु के अनुभव से बचाती है । ऐसी अपृतिक (दुर्गन्धहीन) मृत्यु अपने साथ अच्येष्टि अधिकारों के सरलीकरण और मातम की मनाही को लाती है । उस असीमित विश्वास का अत्यधिक महत्त्व हे जो पश्चिम के लोग दवाइयों में रखते हैं । जीवन की असीम वृद्धि की अविवेकपूर्ण आशा में औषधि को शाश्वत तरुणावस्था दायक के रूप में देखा जाता है । यह मनोवृत्ति मृत्यु के भय का लक्षण है न कि संत्रास से विमुक्ति का सौन्दर्यपरक प्रकार का भी भय है जो पश्चिम में गरीबी, बीमारी और बुढापे के इर्द गिर्द व्यक्त किया जाता है ।
हम सोचते हैं कि इस अध्ययन को इस रूप में प्रस्तुत करना रोचक होगा कि इसे भारतीय दृष्टिकोण से मृत्यु के तथ्य की व्याख्या करने और विश्लेषण करने की ओर निर्दिष्ट कर दिया जाए । इस सम्बन्ध में हम प्रारम्भ में ही यह स्पष्ट कर देना चाहते हैं कि जिस चीज का निरीक्षण किया गया है वह समसामयिक हिन्दूवाद है जिसका अध्ययन इसके वर्तमान धार्मिक अनुष्ठानों और विश्वासों के आधार पर किया गया है । बौद्ध या जैन धर्म से संक्षिप्त संदर्भो का प्रयोग केवल उपयोगी व्याख्यात्मक युत्तियों के रूप में ही किया गया है । आखिरकार बौद्धमत और जैनमत दोनों ही इतने अधिक प्रासंगिक हैं कि इस विषय पर उनके विशिष्ट दृष्टिकोण के अध्ययन के लिए अलग विवेचन की आवश्यकता है । एकत्रित सामग्री लिखित और मौखिक दोनों का अध्ययन हिन्दुओं की शताब्दियों से जीवित चली आ रहीं उन परम्पराओं के प्रकाश में किया गया है जिनका मूल सिंधु सभ्यता के आदिकाल और वैदिक युग में समाई हैं । इस प्रकार यह स्पष्ट है कि सूचना देने वालों द्वारा हमें सौंपे गए पुराने मूल पाठों की व्याख्या समसामयिक है । दूसरे शब्दों में अनुसंधान की विधि आज के भारत में मरण के आभास का निरीक्षण करना, सामाजिक वातावरण पर इसके दबावों को दर्ज करना और तब यथासंम्भव वही इसकी प्राचीनतम सांस्कृतिक जडों की तलाश करना है । इरा कारण से हमने मूलपाठों और हमारी जानकारियों को उनकी मूल संस्कृत से सत्यापित किया है । दूसरी ओर हमने ऐतिहासिक अनुवाद कार्यो का भी उपयोग किया है जिनकी सैद्धांतिक रूप से प्रासंगिकता कम है । हमारा अनुसंधान एक मानव शरीर विज्ञान संबंधी कार्य होने की अपेक्षा प्रथमत एक भारतीय विद्या सम्बन्धी उद्यम है । हालाकि नि संशयता के लिए मानव शरीर विज्ञान सम्बन्धी मान्यताओं को भी लागू किया गया है । यह मृत्यु के बारे में अटकलबाजियों के उद्गम के अध्ययन के उद्देश्य से किया गया है । इस अध्ययन के परिणाम संतोषजनक और आश्चर्यजनक है । वास्तव में आधुनिक हिन्दुओं के विचार प्रागैतिहासिक काल के उनके पुरखो के अत्यंत समीप प्रतीत होते हैं । असल में यद्यपि आज के भारत में, विशेषकर नगरीय केन्द्रों में पश्चिमी सभ्यता को कभी कभी स्वीकृत कर लिया गया है । तथापि ग्रामीण क्षेत्रों में पारम्परिक जीवन अपनी लय, धार्मिक कृत्यों और अति प्राचीन समय से चले आ रहे विश्वासों के साथ जारी है ।
मृत्यु की धारणा वास्तव में यहाँ समाप्त नही हो सकती । हमारे अनुसधान में जन्म, विकास और वृद्धावस्था के चरणों से गुजरते हुए शरीर की मृत्यु की संकल्पना के क्षणों पर ही विचार किया गया है । हमने संक्षिप्त रूप रवे उस यात्रा का भी निरीक्षण किया है जो प्राण शरीर को छोडने के पश्चात करता है । परन्तु यह स्पष्ट है कि मृत्यु के बाद की भवितव्यताओ से सम्बधित अटकलबाजियों और विश्वासों और मुक्ति के विषयों पर और अन्देषण अपेक्षित है । भविष्य में और अधिक गंभीर कार्य हमारी प्रतीक्षा में हैं ।
अपने अनुसंधान में हमने इस विषय के उन सभी अध्ययनो पर विचार किया है जो भारत और पश्चिम में किए गए हैं । हमने इन स्रोतों का उपयोग, इन्हे हमारी जांच पडताल के परिप्रेक्ष्य में रूपांतरित करते हुए, भूतकाल में जाकर और भूतकाल के साहित्य व कलात्मक दस्तावेजों के साथ वर्तमान विश्वासो की तुलना करते हुए किया है । इस प्रकार, हमने इस पहली जाँच पडताल मे, एक शुद्ध दार्शनिक परिदृश्य का अनुसरण करने वाले अध्ययनो का ध्यान रखना उचित नहीं माना । हम सम्भवत, इन सामग्रियों का उपयोग अपने भविष्य के अनुसधान मे करेगे । हम प्रत्यक्ष मृत्यु , पुनर्जन्म और मृतकों के साथ बातचीत से सम्बन्धित लोकप्रिय मूलपाठों पर विचार करने से बचे है ।
अनुसंधान के दौरान उपयोग किए गए सस्कृत ग्रथों को एक विशेष संदर्भ ग्रथ सूची में दिखाया गया है । हमने ऐतिहासिक अनुवादों का भी उपयोग किया है जिन्हें दूसरी संदर्भ ग्रंथ सूची में दिखाया गया है ।
अनुक्रमणिका
v
चित्रों की सूची
ix
1
मनुष्य और अन्य प्राणी
xiv
2
मानव प्राणी की प्रकृति
3
प्रकृति के तीन विकास सम्बन्धी अवयव
11
4
गर्भाधान से जन्म तक मानव जीवन
23
5
जन्म से विवाह तक मानव जीवन
29
6
मानव प्राणी की बनावट
51
7
शारीरिक जीवन का अत
65
8
अतिम समय और इसके धार्मिक सस्कार
81
9
अंतिम यश शरीर का दान
97
10
मृतक का पितर मे बदलना
107
दाहकर्म रहित अन्तयेष्टि
123
12
जीवात्मा की नई स्थिति
141
13
यमलोक की ओर यात्रा
151
ग्रन्थसूची
163
चित्र
175
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