पुस्तक के विषय में
नेशनल बुक ट्रस्ट द्वारा प्रकाशित हिंदी कहानियों के संकलन का संपादन डा. नामवर सिंह ने किया था। संकलित कथाकार थे सर्वश्री चंद्रधर शर्मा 'गुलेरी', प्रेमचंद, जयशंकर प्रसाद, जैनेंद्रकुमार, यशपाल, रांगेय राघव फणीश्वरनाथ 'रेणु' यादव, कमलेश्वर, मोहन राकेश, श्रीकांत वर्मा।
यह संग्रह डॉ. घनंजय शर्मा द्वारा संपादित है। इसे हिंदी कहानी का दूसरा भाग कहने की बजाय समसामायिक हिंदी कहानी का संपूर्ण चित्र प्रस्तुत कर पाएगी। डॉ. धनंजय वर्मा के शब्दों में 'हमारी भरसक कोशिश रही है कि यथा संभव वस्तुपरक ढंग से हिंदी कहानी के समसामयिक परिदृश्य को उसकी मुमकिन समग्रता में प्रस्तुत किया जाय।' इस संकलन के कथाकार हैं सर्वश्री माधव मुक्तिबोध, हरिशंकर परसाई धर्मवीर भारती, अमृत राय भीष्म साहनी, रामकुमार, कृष्ण बलदेव वैद, महीप सिंह, शानी कामतानाथ राजी सेठ, रमेंश वक्षी गिरिराज किशोर, रामनारायण शुक्ल, ओमप्रकाश मेंहरा, गोविंद मिश्र रमाकांत श्रीवास्तव सत्येन कुमार, स्वयं प्रकाश, मंजूर एहतेशाम।
समसामयिक कहानी की पहचान
समसामयिक कहानी की प्रामाणिकता की जांच का एक सीधा तरीका यह हो सकता है कि हम उसमें से उभरने बाने आदमी की तस्वीर का जायजा लें और यह तय करे कि वह समकालीन मनुष्य की तस्वीर है या नहीं । समसामयिक कहानी के जरिये सही आदमी की पहचान या उस पहचान के जरिये समसामयिक कहानी की प्रामाणिकता की पड़ताल जितनी आसान, ऊपद्ध से, नजर आती है, उसमें उतने ही खतरे भी है, क्योंकि इस रास्ते हमको-आपकों
बहुत सारी उन्नति हुई बातो और मुद्दो को साफ करना है ।
सबसे पहले यही तय किया जाय कि समसामयिक कहानियों में से जिस आदमी की तस्वीर उभरती है वह कौन और कैसा? वह समकालीन वास्तविक मनुष्य के रूपों से कितना मिलता-जुलता या कि अलग है? अब्वल तो आप कह सकते है कि लेखक ही वह आदमी होता है जो अपनी रचनाओं में से उभरता है । जो लेखक अपनी रचनाओं में से खुद को उभारते, रचते और बुनते है वो आत्म-अभिव्यक्तिवादी कहे जाते है । वे खुद को व्यक्ति-स्वातंत्रय के अलमबरदार भी कहते है, लेकिन वे ममकालीन औ२- सामान्य मनुष्य को इतनी भी स्वतंत्रता देना नहीं चाह्ते कि वह इनकी रचनाओ में से झांक सके । उसे याने अपनी रचना करे तो वे अपनी ही मूर्ति घड़ने और फिर-फिर कर घड़ने का माध्यम मानते है जोकि मानव मूल्य और नियति की चिता की मुद्रा उनकी भी होती लूँ । बहरहाल? अब हममें से अधिकांश इस बात की ताईद नहीं करेंगे कि कहानी को इतना आत्म-सीमित और व्यक्तिवादी बना दिया जाय । कहानी इस रुग्व ओर नजरिये को काफी पहले छोड चुकी है । अब तो वह अपने माध्यम से समय, समाज, परिस्थिति और पूरे परिवेश क्रो मूर्त करने, उसके आमने- सामने आन-और उसमें शामिल होकर उसकी चुनौतियों को स्वीकार करने और
उनमें टकराने का हथियार हो गयी है । इम दिशा में वह लगातार विकसित हुई और हो रही है । अपने समय, अपने आज, अपनी चौतरफा और जद्दोजहद करती दुनिया के उभरने वाले अक्स से हो अब कहानी की प्रामाणिकता की जांच हो सकती है । ललक ने जो भो यथार्थ देखा-भोगा है, उसका अनुभव कितना ही प्रामाणित हो हम बेन-सकी जांच-परख समकालीन और सामांन्य मनुष्य के भोगे जाते यथार्थ और अनुभव के समानांतर ही करेंगे । इस बहाने हम कोई निर्देश देना नहीं चाहते, वह तो आपको समय देता है और देगा, हम तो उसे सिर्फ रेखांकित ही कर सकते हैं,... फिर यह अक्स ही काफी नहीं होता । जरूरी यह भी है कि उसके प्रति आपका एप्रोच, आपका रुख-नजरिया क्या है और आप उसके जरिये जुड़े किससे हैं ।
यह बात खासी अहम है और समसामयिक कहानीकार इस मामले में खासा चौकस भी है । वह अपनी हैसियत और: दर्जा एक साधारण नागरिक से अलग नहीं मानता । हर दिन और हर क्षण होने वाले अंतर्वाह्य अनुभव उसे बार-बार और लगातार एक भयावह युद्ध के बीच ला पटकते हैं । उसकी कोशिश है कि उसकी बात केवल उसकी न रहकर उसके चारों तरफ के उन सब लोगों की हैं। जिनके बीच वह रहता और रचता है । इसीलिए आप गौर करें समसामयिक कहानी में जो बदलाव आया है उसका बुनियादी आधार ही यह है कि उनमें कहानीकार स्थितियों का महज चश्मदीद गवाह नहीं है, उससे आगे बढ़कर वह उनमें शामिल है और उससे उपजी विसंगतियों और त्रासदियों का वह सहभोक्ता है । समकालीन संदर्भो में प्रामाणिक कहानी वही हो सकती है जो समकालीन आदमी की ही तरह आज की स्थितियों में शामिल और उनसे जूझते हुए पाये गये अनुभव को रचे । मानव अभिव्यक्ति की सारी विधायें जो नयी ताकत और सार्थकता पाती हैं, वह सामान्य मनुष्य की जिंदगी की जमीन पर आकर ही पा सकती है । हम जो जी रहे हैं यदि उसका बिंब-प्रतिबिंब उनमे न हुआ तो किसी भी व्यवस्था के पड्यंत्र को तोड़ा नहीं जा सकता । वह चाहे संबधों की जड़ता हो या मूल्यों का अवमूल्यन हो, यह सब हवा में नही हो रहा है । उसके साफ साफ कारण और जड़ें व्यवस्था में हैं ।
समसामयिक प्रामाणिक कहानी इस बात से वाकिफ लगती है । उनमे विरोध की राजनीति और राजनीति-हीनता के अवसरवाद का नकाब भी उलटा हुआ मिलेगा । चीजों और संबंधों के बदले हुए सरगम को उभारकर उनमें समकालीन जिंदगी की केन्द्रीयता भी मिलेगी । उनमें खासी तीखी और तत्स तकरार है, सामान्य मनुष्य की खीझ, बद्हवासी और आक्रामकता भी उनमें है । समसामयिक कहानी प्रतिवाद और प्रतिरोध की कहानी है । उसका प्रतिवाद और प्रतिरोध हर उस चीज से है जो समकालीन मनुष्य के संकट का कारण है । ऐसा नहीं कि इसके पहले असहमति की कहानियां नही लिखी गयी, लेकिन समसामयिक असहमति की मानसिकता भी बदली हुई है। पहले इन्कार की मुद्रा थी और उसके पीछे था अतीत से लगाव का संस्कार और उससे एक अजब सी दुविधा पैदा हो गयी थी । उसने कृत्रिम द्वंद्वों और विरोधो को भी जन्म दिया था । परिवेश के माध्यम से व्यक्ति और व्यक्ति के माध्यम से परिवेश को पाने या सामयिक यथार्थ के बीच व्यक्ति को प्रतिष्ठित करने की पुरानी प्रतिज्ञा से क्या यह नहीं लगता कि इसमें परिवेश और व्यक्ति को अलग-अलग मान लिया गया है और सामाजिक यथार्थ और वैयक्तिक यथार्थ को दो खानों में बांट दिया गया है । इसी का तो नतीजा है कि लोकप्रिय और साहित्यिक कहानी के भी खाने खिंच गये और फिर साहित्य की राजनीति में वक्तव्यों की खासी दिलचस्प लड़ाई भी छिड़ गयी । यथार्थ की अभिव्यक्ति के कायल लोग चुपके से अभि- व्यक्ति के यथार्थ की शरण चले गये ।...लेकिन वह दौर भी गुजर गया । अब न तो अतीत से लगाव का कोई मोह रह गया है कि किसी का मोह भंग हो और न यथार्थ को सामाजिक और वैयक्तिक के खानों में वांट कर देखा जा सकता है । उनमें एक संश्लिष्टता और आंगिकता का नजरिया विकसित हुआ है और कहानी की चेतना सारी सामाजिक चेतना का अंग और अंश होकर अभिव्यक्त हो रही है ।
समसामयिक कहानी में कृत्रिम द्वंद्वों और विरोधों से मुक्ति का एक और स्तर व्यक्त हुआ है : वह है व्यापक छद्म से संघर्ष । यह छद्म है विद्रोह, आक्रामकता और आक्रोश का । अभी बहुत दिन नहीं हुए जबकि सारा वातावरण संवाद- हीनता, अकेलेपन, अजनबीयत और संत्रास के शब्दोंच्चारों से गूंज रहा था । कुछ तो अभी भी उसी की माला जप रहे है । इस जाप के साथ एक आक्रोश और आक्रामकता की मुद्रा भी इस बीच कहानी में उभरी और उसका केन्द्र था सिर्फ स्त्री-पुरुष संबंध । इन संबंधों में आये तनाव और ठंडेपन को लेकर कहानियां धीरे-धीरे टूटती हुई एक भयावह दुनिया में उतरने का दावा लेकर आयी और उनके लेखकों की सारी कोशिश अपनी खोई हुई अस्मिता की तलाश थी । उनका दावा था कि वे ही सही मायनों में समसामयिक हैं लेकिन सच तो यह है कि वे थीं सिर्फ उन लेखकों की नितांत निजी दुनिया की, उनके अपने अंधेरे लोकों की या फिर एक विशेष काट और सांचे में ढले आदमियों की जो आदमी नहीं सिर्फ 'व्यक्ति' होता है और काफी जल्दी यह मालूम हो गया कि चीजों और संबंधों और स्थितियों की बदलाहट या वर्तमान की कूरता और भयावहता का नाम लेकर इन कहानियों में लेखकों के सपाट चेहरे ही अधिक उभर रहे थे । ऐसे चेहरे जिन पर जीवन की सीधी रगड़ के निशांनात तो गायब थे, था सिर्फ एक बौद्धिक पोज । हम नहीं कहते कि अकेलापन, अजनबीयत या संत्रास परिवेश मैं कभी-कहीं नहीं रहा; लेकिन सवारा यह है कि उसे आप कहां केन्द्रित कर रहे है? किस परिप्रेक्ष्य में उसे देख रहे हैं? उसके प्रति आपका एप्रोच और रुख क्या है? ....मजे की बात तो यह है कि जहा यह सव हो रहा है।वहा सै तो वो कहानिया ओर उनके लेखक कटे हुए थे और अपनी व्यक्तिवादी खोल मे दुबके एक रहस्यमय और अनाम संत्रास का जाप कर रहे थे या फिर उस सबको आध्यात्मिक और दार्शनिक जामा पहना रहे थे । दो समझना ही नही चाहते थे किं आधुनिक स्थितियो मे हो रहे समसामयिक अमानवीयकरण, अजनबीयत, अलगाव, अकेलेपन और संत्रास के पीछे एक व्यवस्था है और यह सब पूजीवादी देशो मै अपनी चरम स्थिति पर है क्योंकि वहां बावजूद औद्योगी- करण और यांत्रिक प्रगति के सामान्य मनुष्य की भागीदारी नही है । वह तो वह्रां अपने ही श्रम से कटा हुआ और अजनबी है ।
हमारे यहां तो सामान्य मनुष्य चौराहों, बसों, ट्रामों, कारखानो, आफिसो, झुग्गी-झोपीड़ियों, फूटपाथों और राशन की लम्बी-लम्बी कतारों मे आर्थिक अभावों सै जूझता, पारिवारिक संकट झेलता रहा लेकिन इसे लेखकों ने भीड' समझा और उससे सम्बद्धता को राजनीति कह कर अपनी नाक भौ सिकोड़ी । उसकी निर्यात को अपनी नियति से अलग मानकर वो अपनी अस्मिता की तलाश करते रहे-करना के सुरक्षित लोक में । उन्होने विद्रोह किया-अपने बूढ़े मां-बाप से या फिर प्रेमिका से, वे आक्रामक हुए-सूने बिस्तरों पर और उनका आक्रोश निकला-पत्नियो पर । मध्यम वर्ग से आये इन लेखको की वर्गचेतना को लकवा मार गया और वर्ग सवर्ण की एवज मे उन्होने वर्ग सामन्जस्य और सह-अस्तित्व को पुन लिया । अनुभव और लेखन के तत्र-'पातल पर उनकी मानसिकता मे इसीलिए एक खाई आयी जिसे वे कलाकार की तटस्थता या भोक्ता रचनाकार और सर्जक मनीषा के अलगाव की कलावादी धारणा का नाम लेकर छिपाते रहे । जिन्दगी के खाटी तीखे औरत तल्ख अनुभवों से गुजरने वाला कथाकार अपनी चौतरफा क्रूरताओं से सिर्फ विचार के स्तर पर ही नही, जीवन के स्तर पर भी लड़ता है । वह तटस्थ नहीं रह सकता । फिर आरिवर तो विचार के स्तर पर लड़ने की ताकत भी तो जीवन के स्तर पर लड़ी जाने वाली लड़ाई से ही आती है । सममायिक कहानी वो इस परिदृश्य में एक असे तक जिस 'समांतर कहानी' का आदोलन चला उसका परचम लहराते हुए एक लेखक महोदय ने कहा था-आज का लेखक कलावादी-सौन्दर्यवादी मूल्यों के लिए नही लड़ रहा है । नह लड़ रहा- है अपने विचारों के लिए क्योंकि यह नहीं भूलना चाहिए कि सामान्य जन की नियति का निर्णय अभी होना हे और इसके लिए आज ना लेखक मोर्चे पर सबसे आगे है।'...
यह खासी सामरिक शब्दावली है और किसका मंशा नही होगा कि ऐसा और यदि यही समसामयिक कहानी की पहचान है तो फिर हम-आपमें इतना साहस और ईमानदारी होनी चाहिए कि वह सीधे-साधे यह घोषित करे कि जोकहानियां सामान्य जन की नियाति और उसके निर्णायक संघर्ष में शामिल नही है वो समसामयिक कहानियां नहीं है । आज भी जो लेखक कलावादी और सौन्दर्यवादी मूल्यों की रक्षा में छाती पीट रहे है और भूख और अकाल जैसे । व्यापक भारतीय अनुभव और वास्तविकता को कविता की अमूर्त औंर थरथराती भाषा में पेश करना चाहते है उन्हें आप किस हद तक समसामयिक कह सकते है? क्या आप इस बात से इंकार कर सकते हैं कि आज का आदमी विचारो के लिए नही, अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए लड़ रहा है । आज उसका सघर्ष दार्शनिक नही, मूलत: आर्थिक है और फिर ऊपर से जो लड़ाई विचारधारा की, आइडियालॉजी की और विचारों की नजर आती है उसके पीछे भी तो वर्ग-हित सक्रिय है । चुनांचे जो लोग दार्शनिक और वैचारिक संघर्ष को प्र न्द की प्रथम प्रतिश्रुति मानते है उनकी राजनैतिक, सामाजिक और आर्थिक विचारधारात्मक सम्बद्धताओं को भी हमें समझना होगा । लेखन में से नुमायां होते उनके वर्ग- हितों को भी देखना होगा । क्या अब भी वक्त नही आ गया है कि लेखक अपनी सम्बद्धतायें और प्रतिबद्धतामें घोषित करें और लेरवन में अपनी रचनात्मक प्रतिश्रतियां साफ करें ।
अभी बहुत अर्सा नहीं हुआ जब 'लेखक तो लेखन के प्रति प्रतिबद्ध है' और कि 'उसकी प्रतिश्रुति तो रचना है' कहकर सह-अस्तित्व और समझोतावादी नीति अख्तियार की जाती रही थी और रोमान और रहस्य के कवियों और
लेखकों को अपने साथ लेकर चलने का खतरा साहित्य मै प्रगतिशील आदोलन ने उठाया था । उसका बहुत सारा खमियाजा हमें रचनात्मक स्तर पर भी भुगतना पड़ा है । यह तो ठीक हे कि आप अपने लेखन और अपनी रचना के प्रति प्रतिबद्ध और प्रतिश्रुत है लेकिन आपका लेखन और आपकी रचना किसके प्रति प्रतिबद्ध और प्रतिश्रुत है? वह किसकी पक्षधर है ' वह किसके पक्ष मे जा रही है? क्या यह सवाल भी पूछने का हुक हमें और पाठको को नही हैं? आज जबकि सारी मानव नियति राजनीति की मापा मे सोची, समझी और तय की जा रही है तब लेखक की खुली या छद्म, चेतन या अचेतन राजनीतिक सम्बद्धता को हम क्योंकर भूल सकते है । फिर वह लेखक मेरी जागरूकता ही कैसी जो राजनीति से बेखबर और असम्बद्ध हो ' त्तृंरवन और राजनीतिक सम्बद्धताओं को हम कब तक अलग-अगल खानो में रखे रहेंगे । 'लेखन कोई क्राति नहीं कर सकता' का नारा उछाल कर लेखन के द्वारा परिवर्तन औरे क्रांति की मानसिकता तैयार करने और सामाजिक रद्दोबदल में उमकी भूमिका से कब तक इंकार किया जाता रहेगा । कहानी जागती व्यापक संवेदनशीलता दो कारण जिस बृहत्तर मानव समाज से जुड़ती' है । क्या उसकी दान प्रतिक्रिया औरअसर को भी नजरन्दाज किया जाता रहेगा । समसामयिक कहानी में ऐसी कोई गजदन्ती मीनार न तो कभी हो सकती है और न रही है-कम-अज-कम हिन्दी कहानी की अपनी जातीय परम्परा में तो नहीं ही रहो है ।
चुनांचे मूल मुद्दा है : समकालीन आदमी के संघर्ष से सम्बद्धता का, जीवन की समग्र चेतना का, सामाजिक वास्तविकता के व्यापक अनुभव का । मुक्तिबोध खासे साफ ढंग से कह चुके है कि "जो लोग शुद्ध साहित्य अथवा साहित्य में व्यक्ति-स्वातन्त्रय की बात करते हैं, वे रचना को उसकी सामाजिक-सांस्कृतिक भूमि से काट देना चाहते हैं ।''... कहना न होगा कि समसामयिक हिन्दी- कहानी के परिदृश्य में भी ऐसे लोग मौजूद रहे है, हैं और रहेंगे लेकिन यही सही-गलत का विवेक, एक तीखा आलोचनात्मक विवेक जरूरी है । गौर करे तो ऐसे ही लोग शिल्प-चेतना ओर कलात्मकता की जोर-शोर से वकालत करते है लेकिन उनका शिल्प और उनकी कलात्मकता ही उनकी समग्र मानसिकता समसामयिकता से बेमेल होती है । बदली हुई समसामयिक स्थितियों पर उनकी नजर भी जाती जरूर है, वे उनका किसी हद तक यथार्थवादी चित्रण भी करते है लेकिन वे यह जानने की कोशिश नहीं करते कि वे बदली क्यो है? उनके लिए जिम्मेदार कौन है? कहानी मे इस प्रकृतिवाद को मरे बहुत दिन हो गये । उसे अब फिर से नहीं जिलाया जा सकता । कुछ 'कहानीकार मानव सम्बन्धों मे आये संकट को भी खूब उभारते है लेकिन उस संकट के पीछे निहित ताकतो को वे शायद समझना नही चाहते, क्योकि ऐसा करते ही उन्हें सीधे-सीधे आर्थिक व्यवस्था और राजनीतिक साजिशों के विरोध मे खड़ा होना पड़ेगा । इस सीधी टकराहट से बचकर वे अक्सर ही अपने विरोध का धरातल शाब्दिक, दार्शनिक और आध्यात्मिक बना लेते है । अपने कथ्य मे समकालीनता और वर्तमान से टकराहट की (कमियों और कमियो को वे शिल्प और भाषा की चतुराई से छिपाना चाहते है लेकिन कोई भी चालाकी कथ्य की एवज में टिक नहीं सकती ।
ऐसा नही कि समसामयिक हिन्दी कहानी शिल्प और भाषा के प्रति सजग नही है । नये प्रयोगो के प्रति उसकी जागरूकता में अब अधिक समग्रता आयी है । जिंदगी के सीधे सघर्ष रो जो मुहावरा और सहजता आयी' है, वह कथ्य को प्रामाणिकता और अनुभव की तात्कालिकता का तकाजा है, जिसे सहज ही पहचाना जा सकता है । जिस अनुभव कम पहले लोग विचार या चिंतन की राह
भटका कर पेश करते थे उसे समसामयिक कहानीकार अपनी चौतरफा जिंदगी के किसी न किसी हिस्से में होने वाली प्रतिक्रिया का जरूरी हिस्सा और जुज बनाकर पेश करता है । वह व्यवस्था और राजनीतिक साजिशों पर सीधी चोट करता है ।
समसामयिक कहानी और उसकी भाषा मे आया जुझारू तेवर और प्रखर प्रत्यक्षता सिर्फ ऊपरी बदलाव नहीं है । उसके पीछे सामान्य मनुष्य के रोजमर्रा अनुभवों का दहकता संसार है । कहानी में यह उसी की भाषा, तेवर और प्रतिक्रियाओं का सीधा प्रतिबिम्ब है । कहानीकार के अपने आसपास के होते-हुए अनुभव संसार में यह वापसी, दरअसल, कहानी की अपनी मूल मानसिकता की ओर वापसी है जहां अनुभव की समकालीनता और उसके दिपदिपाते वर्तमान की अहमियत होती है । समसामयिक कहानी का कथ्य और उसकी दृष्टि भी समकालीन मनुष्य की दुनिया और उसके जद्दोजह्द से उपजी है और उसमें उसकी जिंदगी के निर्णायक संघर्ष और उसके अनुभव व्यक्त हो रहे है । समसामयिक कहानी अपने समय और परिवेश को व्यक्तिवादी गवाक्ष से नही देखती वह तो उन्हें एक खुली और वस्तुपरक जमीन के विस्तार में देखती है और उसमें से उभरता हुआ आदमी अपने समय और संघर्ष का सिर्फ प्रतिनिधि और गवाह नही, जुझारू पक्षधर भी होता है । उसका तीखा राजनीतिक और सामाजिक प्रतिवाद. समसामयिक स्थितियों में उसकी खीझ, बौखलाहट और गुस्सा, आज का दहकता हुआ अनुभव है। समसामयिक कहानियां उसे अपने सहज और सीधे कथ्य के जरिए पाठकों तक पहुंचाती है और उनकी अनायास भागीदारी लेकर उनसे सीधे संवाद करती और अपनी सामाजिक व्याख्या देती हैं। उनका अंदाजे-बया सादा लेकिन सतर्क है । यथार्थ का अन्वेषण या समकालीन मनुष्य को केन्द्रित करने की कोशिश में वे सीधे यथार्थ और केन्द्रीय मनुष्य को रेखांकित करती है । वे सममामयिक क्र और भयावह वर्तमान को तटस्थ ढंग से पेश न करके मानव नियति पर गहराते इस संकट की घड़ी में एक निश्चित पक्षधरता के साथ क्रांति की आकांक्षा को व्यक्त करती है । अपने समय की चुनौतियों से निपटने के लिए सवे-? तेवर तने हुए, भाषा सीधी चुभती हुई और अभिव्यक्ति एकदम प्रत्यक्ष हो गयी है । यही इनकी व्यापक अपील का बुनियादी कारण है । आज जबकि आदमी वर्गों में विभाजित कर दिया गया है, सममामयिक कहानीकार स्वीकार करता है कि एक सामान्य मनुष्य के रूप मे रोजमर्रा जिंदगी के अनुभवो के दौरान आये तमाम खतरों को कहानी के जरिए पेश करने और अपने आसपास के अपने ही जैसै अनगिनत आदमियों मे ['क बेचैनी और हलचल पैदा करना ही उसका मकसद है ।
यो समसामयिक हिन्दी कहानी के अनेक स्तर और आयाम है । उसकी रचनात्मकता अनेक वादी और संवादी अन्त स्वरो मे झंकृत है और अनेकप्रवृत्तियों और धाराओं की यह बहुध्वन्यात्मकता ही उसकी समृद्धि की भी सबुत है ।
यह संकलन
यह संकलन नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया के पिछले प्रकाशन 'हिन्दी कहानी' का अगला और पूरक संकलन है । पिछला संकलन हिन्दी कहानी की यात्रा के लगभग आरम्भिक बिंदु से शुरू हुआ था और उसमें चंद्रधर शर्मा गुलेरी, प्रेमचंद, जयशंकर प्रसाद, जैनेन्द्र कुमार, यशपाल, रांगेय राघव, फणीश्वरनाथ रेणु राजेन्द्र यादव, कमलेश्वर, मोहन राकेश, अमरकांत, निर्मल वर्मा, श्रीकान्त वर्मा, ज्ञानरंजन और काशीनाथ सिंह तक की कहानियां संकलित थी । इसके बावजूद उससे हिन्दी कहानी का परिदृश्य पूरी तरह नही उभरता था । उसमे हिन्दी कहानी के विकास और रचनात्मक समृद्धि का प्रतिनिधित्व करने वाले कई महत्वपूर्ण कहानीकार शामिल नही किये जा सके थे । न सिर्फ पुरानी और वीच की पीढी बल्कि युवा पीढी के भी कई प्रतिनिधि नाम उसमें छूट गये थे । स्वतंत्रता के बाद हिन्दी, कहानी में आये अनेक आंदोलनों-नयी कहानी, अकहानी, वायु कहानी अचेतन कहानी, सचेतन कहानी, समांतर कहानी आदि - के रचनात्मक प्रतिनिधियों को भी उसमें शामिल नहीं किया जा सका था । यह शायद सम्भव भी नही था । किसी भी संकलन की अपनी अपनी सीमायें होती हैं । कुछ और न सही तो आकार और पृष्ठसंख्या का बंधन भी कई-कई सीमा रेखाएं खींच देता है । बहरहान्न...
इस संकलन मे स्वर्गीय गजानन माधव मुक्तिबोध से लेकर मंजूर एहतेशाम तक की कहानिया एकत्र है । एक ओर यहां हरिशंकर परसाई, भीष्म साहनी, अमृतराय, कामतानाथ, रमाकान्त और स्वय प्रकाश हैं, वही दूसरी ओर धर्मवीर भारती, रामकुमार, कृष्ण बल्देव बंद, महीप सिंह, राजी सेठ, रमेश बक्षी गोविन्द मिश्र और सत्येन कुमार है । समसामयिक हिन्दी कहानी की विविधता को उसकी मुमकिन समग्रता मे पेश करने की इस कोशिश मे इसीलिए वैचारिक सम्बद्धता और विचारधारात्मक प्रतिबद्धता और रचनात्मक ताजगी, समृद्धि और संभावना को ध्यान मे ररवा गया है । न केवल रूपात्मक विविधता बल्कि हिन्दी कहानी की अपनी जातीय विशेषता को रेखांकित करने के लिए ही कुछ ऐसे कहानीकारों की कहानियां भी शामिल हो गयी है, जो वैचारिक मनभेद के बावजूद 'यथार्थवाद की विजय' की सबुत दे ।समसामयिक हिन्दी कहानी के ताव तक के विकास के जायजे के लिए 'नयी कहानी' के बाद के कुछ महत्वपूर्ण आंदोलनों के प्रतिनिघि कहानीकारों को भी इसमें शामिल किया गया है और वो कहानीकार भी यहां मौजूद है जो इन सारे आदोलनों, चर्चा, परिचर्चाओं से लगभग असम्पृक्त अपनी रचना निष्ठा को ही समर्पित रहे है ।
हमारी भरसक कोशिश रही है कि यथासम्भव वस्तुपरक ढंग से हिन्दी कहानी के समसामयिक परिदृश्य को उसको मुमकिन सकाता मे प्रस्तुत किया जाय । अपनी इस कोशिश में हमें फिर कुछ प्रतिनिधि और ऐतिहासिक दृष्टि से महत्वपूर्ण कहानीकारो का सहयोग प्राप्त नही हो पाया । यदि वह हो पाता तो इस संकलन को कुछ और समग्रता और समृद्धि शायद मिल जाती । लेकिन जो नहीं हो पाया, उसका गम क्या, वह नहीं हो पाया ।...
अनुक्रम
vii
1
अकाल उत्सव
2
गुलकी बन्नो
9
3
अंधी लालटेन
25
4
क्लाड ईथर्ली
37
5
अमृतसर आ गया है
49
6
दीमक
62
7
मेरा दुश्मन
83
8
सन्नाटा
93
दोजखी
102
10
छुट्टियां
116
11
तीसरी हथेली
142
12
अगले मुहर्रम की तैयारी
151
13
पांचवां पराठा
156
14
सहारा
166
15
अलाव
173
16
खंडित
180
17
खानदान में पहली बार
189
18
जहाज
202
19
नैनसी का धूड़ा
236
20
रमजान में मौत
249
लेखक-परिचय
262
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