पहली बार जब मैंने श्री श्री परमहंस योगानन्दजी को देखा, वे सॉल्ट लेक सिटी के एक विशाल, मन्त्र-मुग्ध श्रोता समूह के समक्ष बोल रहे थे। यह सन् 1931 का वर्ष था। जब मैं भीड़ से भरे सभा भवन के पिछले भाग में खड़ी थी, मैं स्तंभित हो गई, और मुझे वक्ता एवं उनके शब्दों के अतिरिक्त अपने चारों ओर किसी वस्तु का आभास न रहा। मेरा पूर्ण अस्तित्व उस ज्ञान एवं दिव्य प्रेम में डूब गया जो मेरी आत्मा में प्रवाहित हो कर, मेरे हृदय एवं मन को ओत-प्रोत कर रहे थे। मैं केवल यही सोच सकती थी, "ये ईश्वर को वैसे ही प्रेम करते हैं, जैसे मैंने सदा उन्हें प्रेम करने की लालसा की है। वे ईश्वर को जानते हैं। मैं इनका अनुसरण करूंगी" और उसी क्षण से मैंने किया भी।
श्री परमहंसजी के साथ उन प्रारंभिक दिनों में, जब मुझे उन शब्दों की रूपान्तरक शक्ति का अपने जीवन में आभास हुआ, तो मेरे अंदर उनके शब्दों को सारे संसार के लिए एवं सदा के लिए तत्काल सुरक्षित करने की आवश्यकता का भाव जागा। श्री श्री परमहंस योगानन्दजी के साथ कई वर्षों तक रहने के दौरान, यह मेरा पावन और आनन्ददायक सौभाग्य बन गया कि मैं उनके प्रवचनों एवं कक्षाओं को, तथा बहुत से अनौपचारिक व्याख्यानों और व्यक्तिगत परामर्शों के शब्दों- सचमुच में ईश-प्रेम और अद्भुत ज्ञान के विशाल भण्डार, को लिपि- बद्ध कर सकी। जिस प्रकार गुरुदेव बोलते थे, उनकी प्रेरणा का वेग प्रायः उनके प्रवचन की तीव्रता में प्रतिबिम्बित होता था; वे किसी समय मिनटों तक बिना रुके, और लगातार एक घंटा बोलते रहते थे। जब श्रोतागण मन्त्र-मुग्ध हो कर बैठे रहते थे, मेरी लेखनी भागती रहती थी। जिस समय मैं आशु-लिपि (shorthand) में उनके शब्दों को लिखती थी, ऐसा लगता था मानो विशेष कृपा अवतीर्ण हो गई हो, जो गुरु जी की वाणी को पृष्ठ पर, तुरन्त आशु-लिपि में अंकित कर देती थी। उन शब्दों को लिपि-बद्ध करना एक सौभाग्यपूर्ण कार्य रहा, जो आज तक चल रहा है। इतने समय के पश्चात् भी- मेरे द्वारा उस समय अंकित किए गए कुछ विवरण चालीस वर्षों से भी अधिक पुराने हैं - जब मैं उन्हें लिपिबद्ध करना आरम्भ करती हूँ, वे मेरे मन में चमत्कारिक रूप से ताज़ा हो जाते हैं, जैसे कि वे कल ही अंकित किए गए हों। यहाँ तक कि अपने अंतर्मन में गुरुदेव की वाणी के हर विशिष्ट वाक्यांश का उतार-चढ़ाव मैं सुन सकती हूँ।
गुरुदेव कभी भी अपने व्याख्यानों की थोड़ी सी भी तैयारी नहीं करते थे, यदि वह कुछ तैयारी करते भी थे तो तथ्यों पर आधारित एक या दो टिप्पणियाँ जल्दी से लिख लेते थे। प्रायः कार में बैठ कर मंदिर की ओर जाते हुए वे अकस्मात् हममें से किसी एक से पूछ लेते, "आज का मेरा विषय क्या है?" वे अपना मन उस पर लगाते थे, और तब दिव्य प्रेरणा के आन्तरिक भण्डार से बिना तैयारी किए व्याख्यान दे देते थे।
श्री श्री परमहंस योगानन्दजी के व्याख्यानों का यह संग्रह उन सभी के लिए है जो कभी निराशा, असंतोष, उत्साहहीनता, दुःख, अथवा अतृप्त आध्यात्मिक ललक से सदा परिचित हुए हैं। यह उन के लिए है जिन्होंने जीवन के गूढ़ रहस्यों को समझने का प्रयास किया है, उनके लिए जिनके अपने हृदय के भीतर ईश्वर की वास्तविकता के विषय में एक अनिश्चित आशा बनी है और एक संभावना है कि उन्हें जाना जा सकता है; और यह उन जिज्ञासुओं के लिए है, जो अपनी खोज में पहले ही ईश्वर की ओर मुड़ चुके हैं। यह प्रत्येक पाठक के लिए उसके पथ पर दिव्य प्रकाश की किरण बने, नवजीवन और प्रेरणा तथा दिशा-निर्देशन का भाव लेकर आए। प्रभु सबके लिए सब कुछ हैं।
'मानव की निरन्तर खोज' पुस्तक ईश्वर के विषय में है मानव जीवन में ईश्वर का स्थान: उसकी आशाओं में, इच्छाशक्ति में, आकांक्षाओं तथा उपलब्धियों में। जीवन, मानव, उपलब्धि ये सब एक सर्वव्यापक सृष्टिकर्ता की अभिव्यक्तियाँ मात्र हैं, ये अविछिन्न रूप से ईश्वर पर निर्भर हैं, जैसे लहर सागर पर। परमहंसजी समझाते हैं कि ईश्वर द्वारा मानव का सृजन क्यों और कैसे हुआ और वह किस प्रकार ईश्वर का नित्य अंग है; और प्रत्येक व्यक्ति के लिए व्यक्तिगत रूप से इसका क्या अर्थ है। मानव और उसके सृष्टिकर्ता के एकत्व का बोध ही योग का संपूर्ण सार है। जीवन के हर पहलू में ईश्वर की अनिवार्य आवश्यकता का बोध, धर्म से पारलौकिकता को हटा देता है और ईश्वरीय प्राप्ति को, जीवन के व्यावहारिक एवं वैज्ञानिक पथ के लिए आधार बनाता है।
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