पुस्तक के विषय में
राजा तथा प्रजा का शारीरयन्त्र से तथा जगत् सृष्टि उपक्रम से सामञ्जस्य का अलौकिक विवरण परमपूज्य लेखक ने प्रस्तुत करके अपनी समन्वीय दृष्टि का उदाहरण प्रस्तुत किया है। विज्ञान, व्याकरण, सांख्य, वेद आदि का उद्धरण देकर इस ग्रन्थ में एक अभिनव दिशा की ओर संकेत दिया गया है, जिसके सम्बन्ध में कोई किसी भ्रम अथवा प्रश्नचिह्न के लिए कोई अवकाश ही नहीं रह जाता। यह धर्ममेघ समाधि का प्रतिफल है। जहाँ 'धर्मान् मेहति वर्षति' धर्म की ही वर्षा होती है, परन्तु यहाँ जिस धर्म का आश्रयण है, वह लौकिक भाषा से तथा लौकिक रूप से प्रतिच्छवित हो रहा भेदकारक धर्म नहीं है । इस धर्मदृष्टि का आश्रय लेने से राजा तथा प्रजा का जो अभिनव सम्बन्ध, शाश्वत सामज्जस्य प्रतिफलित होता है, वही शासक तथा शासित का यथार्थ रूप है।
यह ग्रन्थ क्षुद्र कलेवर होने पर भी गहन अर्थ स्वयं में सँजोये हुए है। इसके वक्ता तो अविभ्रान्त रूप से ज्ञाननिधि थे, इसका पाठक (श्रोता) भी ज्ञाननिधि होना चाहिए। 'श्रोता वक्ता ज्ञाननिधि कथा राम कर गूढ़' तभी इस मणिकांचन संयोग से इसके गढ़ गम्भीर अर्थ का उद्घाटन हो सकेगा। जो जितनी गहरी डुबकी लगा सकेगा, वह उतने ही अमूल्य रत्नों का आहरण कर सकेगा, यह सत्य है।
इस ग्रन्थ के भाषानुवाद का प्रकाशन करके विश्वविद्यालय प्रकाशन के अधिष्ठातागण ने प्रशंसनीय कार्य किया है और एक महान् चिन्तक सिद्ध तथा परम त्यागी की लोकोपयोगी दृष्टिभंगी से जिज्ञासु पाठकों को परिचित कराने का महनीय प्रयास किया है। इसके लिए मैं उनकी अभ्यर्थना करता हूँ।
विषयानुक्रमणिका
1
सृष्टि-तत्त्व
2
राजा तथा प्रजा
63
3
उपसंहार
95
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