संगीत की दो मुख्य धाराएँ हैं-एक शास्त्रीय संगीत और दूसरी लोक-संगीत । बहुत-से लोग समझते हैं कि शास्त्रीय संगीत देवताओं की देन है और लोकसंगीत देहातियों ने बनाया है। ऐसे व्यक्ति शास्त्रीय संगीत को ऊँचा और लोक-संगीत को नीचा समझते हैं, जबकि वास्तविकता यह है कि शास्त्रीय ही नहीं, सभी तरह का संगीत 'लोक संगीत' से ही विकसित हुआ है। इसीलिए महर्षि भरत ने 'नाट्यशास्त्र' में कहा हैं-जो कुछ भी लोक में गाया जाता है, वह सब जातियों(प्राचीन विशिष्ट स्वर-सन्निवेश, बन्दिशें या राग-रूप) में स्थित है, और जो-कुछ मेरे द्वारा नहीं कहा गया, वह लोक से प्राप्त कर लो।
लोकसंगीत का सृजन पहाड़ नदी-नाले, झरने, पोखर-तालाब, सागर, सूर्य, चन्द्र व तारे, बादल, बिजली, पेड़-पौधे, पशु-पक्षी और मानव के आन्तरिक सुख-दुःख की स्थितियों से होता है। इसीलिए वह हजारों वर्षों तक अपनी स्वाभाविक और अनवरत गति से चलता रहता है। 'नाट्यशास्त्र' में कहा गया है कि निर्मित किया जाने वाला संगीत एक निश्चित अवधि तक ही जीवित रहता है।
प्रत्येक प्राप्त के लोक संगीत में वहाँ की लोक संस्कृति समाहित रहती है। वहीं का इतिहास, भाषा, रीति-रिवाज, संस्कार चाल-चलन, लोकाचार, कला क्रीड़ाएँ, रहन-सहन, खान-पान, वस्त्राभूषण, लोकोक्तियाँ, पर्व और उत्सव, पर्यावरण, पशु-पक्षी, देवालय, तीर्थ एवं सभी प्रकार के सामाजिक और धार्मिक अनुष्ठान लोक संगीत के माध्यम से मुखर होकर हमें तत्सम्बन्धी भूखण्ड की सुगन्ध से परिचित कराते हैं। इसीलिए इस पुस्तक का नाम 'ब्रज-संस्कृति और लोकसंगीत 'रखा गया है।
'ब्रज' या 'व्रज' भारत का एक प्रमुख क्षेत्र है, जो उत्तर प्रदेश के पश्चिमी भाग में स्थित है। ब्रज का गौरव इसीलिए नहीं आँका जाता कि यहाँ भगवान् कृष्ण ने जन्म लिया है, बल्कि इसकी सांस्कृतिक विशालता और समृद्धता के कारण ही इसे महत्त्व दिया जाता है।
ब्रज-मंडल में 'हाथरस' छोटा होते हुए भी एक विशिष्ट नगर है जिसे 'ब्रज का द्वार' कहा जाता है । इसकी अलग पहचान है । जितनी सांस्कृतिक गतिविधियाँ यहाँ सम्पन्न होती हैं, उतनी अन्यत्र देखने को नहीं मिलती । अपने उद्योग-व्यापार, कला-क्रीड़ा, स्वाँग-नौटंकी, उत्सव-त्योहार और धार्मिक अनुष्ठानों की दृष्टि से तो हाथरस प्रसिद्ध रहा ही है; मेरे पिताश्री प्रभूलाल गर्ग उर्फ 'काका हाथरसी' और उनके द्वारा स्थापित संस्था 'संगीत कार्यालय' के कारण वह देश के अलावा विदेशों में भी चर्चित हुआ है।
ब्रज की रज में जन्म लेकर मैं स्वयं को धन्य समझता हूँ। बाल्यकाल से जो-कुछ मुझे देखने-सुनने का अवसर मिला, उसकी यादों का झरोखा यहाँ प्रस्तुत है-
''माँ जब चक्की पीसती थी तो मैं उसकी गोद में दूध पीते-पीते चक्की की आवाज और आटे की भीनी गन्ध ग्रहण करते हुए तन्द्रा में पड़ा रहता था । यह स्वर्गीय आनन्द भावी पीढ़ी के लिए दुर्लभ है। बासोड़े के दिन माँ मुझे गोद में लेकर माता के गीत गाती हुई गलियों, सड्कों और नाले-नालियों को पार करती शीतला माता के मन्दिर में पहुँचती थी । सक्के(भिश्ती) को पैसा देकर मशक (परवाल) छुड़वाकर, शीतला के प्रांगण को प्रतीकात्मक रूप से बुलवाया जाता, मेरे मुख के चारों ओर मुर्गा फिरवाकर रोगमुक्त रहने की कामना की जाती। मन्दिर में सिर पर मोरपंखी का स्पर्श करवाकर माँ शीतला के वाहन सेडलाला (गधा) का पूजन करती और रास्ते में कुत्तों को बासी पूड़ी-पकवान डालते हुए घर वापस आती थी । बृहस्पतिवार के दिन दादी हाथ में गुड़ और चने की दाल लेकर माँ और चाची को ज़बरदस्ती बैठाकर बृहस्पति देवता की कहानी सुनाती।
दीपावली को मेरा जन्मदिन बधाए गाकर बड़े उल्लास से मनाया जाता था। लोकसंगीत में दक्ष मेरी दादी ढोलक बजाती और गीत-संगीत में भाग लेने वाली महिलाओं को फटकार लगा-लगाकर उन्हें नाचने पर मजबूर कर देती। लोकगीत और लोकनृत्य का वह समाँ मन्त्रमुग्ध कर देता था। समारोह की समाप्ति पर दादी हर स्त्री के आँचल में बताशे डालकर उन्हें विदा करती । मैं थोड़े-से बताशे पानी में घोलकर पी जाता। बस, यही होताथा हमारा 'हैप्पी बर्थ-डे' ।
अन्नकूट के दूसरे दिन गली के पूरे (कूड़ा डालने वाला स्थल) पर घर और पड़ोस की स्त्रियाँ मिलकर धनकुटे (मूसल) से कुछ पापड़ी-जैसी चीजें कूटती और धीरे-धीरे मन्द्र स्वरों में गातीं-' धर मारे बैरियरा, भजनलाल के बैरियरा, 'पिरभूलाल' के बैरियरा इत्यादि । हर स्त्री अपने घर के सदस्यों का नाम ले-लेकर पंक्तियाँ दुहराती और शत्रुओं के नाश की कामना करती । वह लुप्त लोकधुन आज भी मेरे कानों में गूँज रही है। होली पर 'तगा' (सूत का धागा) बाँधने जाना, धूल वाले दिन जनजातीय स्त्रियों का धमारी गाते हुए निकलना, गली में तिनगिनी-दन्दान और मिचौनी वाले ठेले, मसानी और बराई (वाराही देवी) के मेलों में परिवार के लोगों के साथ दादी की चादर ओढ़कर छोटे-से तम्बू के भीतर बैठकर भोजन करना, 'तेरी नाक पै तोता नाचै' प्लने वाली कंजरियों का करुण भिक्षाटन, गनगौर के दिन कन्याओं का गीत गाते हुए बाजार में निकलना, रामलीला तथा रासलीला से सम्बन्धित उत्सव, रथ का मेला, अघोई, देवठान (देवोत्थान) और रक्षाबन्धन-जैसे पर्वों पर लोक संस्कृति के चिते हुए क्लात्मक थापे और वन्दनवार, ढोलताशों के साथ पतंगों के आसमानी पेंच, ठठेरे वाली गली में पीतल के बर्तनों पर दोंचे (चमकीले निशान) डालने की तालबद्ध खटखट, लल्ला रँगरेज़ द्वारा रँगी हुई रंग-बिरंगी चुनरियों की लहराती क़तारें, हलवाईख़ाने में बूरा कूटने वाले श्रमिकों का पसीने से सराबोर सुडौल शरीर, मिट्टी के कबूतर और चंडोल, बाजार में साँड़ों की लड़ाई और हाथरस की बगीचियों का क्रीड़ायुक्त माहौल-सभी-कुछ सपना-सा हो गया है। नकटिया (शूर्पणखा) की फौज, रावण के मेले में काली का खेलना, कंस-मेले की आतशबाज़ी, हाथरस के रईसों की चार घोड़ों वाली बग्गियाँ और जोधल गुरू का ताँगा कभी भूले नहीं जा सकते । ताँगे का घोड़ा तो भाँग पीकर चुपचाप चलता रहता था और जोधल गुरू अकेले मिचमिचाती आँखों से उसमें पिछली सीट पर बैठे ऊँघते रहते थे ।'
बाल्यकाल के उत्तरार्द्ध में ही भारत की आज़ादी का बिगुल बजने लगा । मैंने अपनी अवस्थानुसार, आन्दोलनकारियों को सहयोग देते हुए आज़ादी के दीवानों को घर में प्रश्रय दिया । नेताजी सुभाषचन्द्र बोस छद्मवेश में कुछ घंटों के लिए हमारे घर काकाजी से मिलने आए थे । उनका मेरे सिर पर हाथ फिराकर आशीर्वाद देना मैं कभी भूल नहीं सक्ता । स्वदेशी आन्दोलन को बल देने के लिए मैंने तकली और चरखे सेसूत काता तथा खादी को अपनाया । छोटा और भावुक था, इसलिए विभाजन के दर्दनाक दृश्य मुझे सदैव पीड़ा देते रहे।
सन् 1935 से हमारे प्रतिष्ठान द्वारा 'संगीत' मासिक पत्र का नियमित प्रकाशन हो रहा था, अत: भारत के दिग्गज संगीतकार और साहित्यकार हमारे यहाँ आने लगे थे। मुझे गायन, वादन और नृत्य-तीनों विधाओं को सीखने का अवसर मिला। 'हिज़ मास्टर्स वॉयस' कम्पनी की एजेंसी के कारण फिल्मी गानों के ग्रामोफोन-रिकॉर्ड हमारे यहाँ बड़ी संख्या में आते थे, जिन्हें सुनते-सुनते फिल्मों का संगीत भी मेरी रगों में बस गया। इस प्रकार मुझे शास्त्रीय संगीत, लोकसंगीत और फिल्म-संगीत की त्रिवेणी में स्नान करने का पूरा अवसर मिला।
काका जी के साथ मुझे विभिन्न विद्वानों, संत-महात्माओं और कलाकारों का सतत सान्निध्य तथा नाटकों में अभिनय करने का पर्याप्त अवसर प्राप्त हुआ। एक बार मेरठ के मास्टर रूपी की प्रसिद्ध नाटक-कम्पनी हाथरस आई । नाटक का नाम था 'लैला-मजनूँ' । आज तक न वैसा मजनूँ देखा और न वैसी लैला । उन्हीं दिनों नौटंकी के क्षेत्र में 'नवाब' नामक एक ऐसा युवा कलाकार था, जो स्त्री-वेश में बिना लाउडस्पीकर के, हज़ारों श्रोताओं की भीड़ को अपनी सुरीली, टीपदार और बुलन्द आवाज़ से मन्त्रमुग्ध कर देता था । रसिया के रस में डूबे खिच्चो आटेवाले की रसिया-प्रस्तुति भी मेरे रोम-रोम में बसने लगी। मैं रात-रात-भर रसिया-दंगलों का आनन्द लेता । जब 'रोशना'नामक कलाकार स्त्री की भूमिका में प्रत्येक बार नई ड्रैस पहनकर पहली मंजिल के छज्जे से कूदकर मंच पर प्रकट होता, तो जनता 'हाय-हाय' कर उठती । वह समाँ क्त की तरह आज भी ताज़ा है।
हाथरस के देवछठ-मेले में वर्षों तक तरह-तरह के नाटक, कवि-सम्मेलन, संगीत-समारोह, कुश्ती-दंगल, खेल-तमाशे तथा लोक-नाट्य मेरे देखने में आए, जिनके संस्कार मानस-पटल पर लगातार अंकित होते गए ।
सन् 1983 में मेरे द्वारा निर्मित ' जमुना-किनारे 'नामक ब्रजभाषा-फ़िल्म ने ब्रज की लुप्त होती सांस्कृतिक विधाओं को जीवित रखने का-प्रयास किया । यदि नई पीढ़ी में कुछ जागरूकता आ जाए तो नौटंकी, ढोला, लावनी, ख्याल, होरी, आल्हा, टेसू-झाँझी के गीत, चट्टे के गीत, रसिया, रास, जागरण, बमभोले का डमरू, 'हर गंगे' वालों की खटताल, कनफटे जोगियों का चिमटा, भोपाओ के बीन; कठपुतली, नटबाजीगर, रीछ (भालू), बन्दर और सँपेरों के तमाशे, बहुरूपियों और नक्कालों के रूपक व चुटकुले, झूले की मल्हारें, निहालदे के दर्द-भरे गीत और ब्रज की जन-जातियों का संगीत फिर से जीवित होकर गूँजने लगेगा । ब्रज-संस्कृति की समृद्धता से परिचित कराने वाली यह पुस्तक पाठकों की सेवा में प्रस्तुत है । मुझे विश्वास है कि विद्वानों, शोधकर्ताओं एवं कलाकारों के लिए यह समान रूप से उपयोगी सिद्ध होगी । मेरे अनुजद्वय-बालकृष्ण गर्ग ने पांडुलिपि के संशोधन-संवर्द्धन तथा डॉ० मुकेश गर्ग ने गीतों के स्वरांकन में महत्वपूर्ण सहयोग दिया है, जिसके लिए मैं उन्हें साधुवाद देता हूँ और उनके यशस्वी व स्वस्थ-दीर्घ जीवन की कामना करता हूँ। मेरी शिष्या उमा नेगी ने जिस लगन से लिपि-लेखन में श्रम किया, उसके लिए मैं उसके उज्ज्वल भविष्य की कामना करते हुए आशीर्वाद ही प्रदान कर सक्ता हूँ। मेरी पत्नी रीता गर्ग ने ब्रज और कृष्णतत्त्व के प्रति मेरे लगाव को सदैव प्रोत्साहन देते हुए लोकोक्तियों के संग्रह में विशेष योगदान दिया है, अत : उनके प्रति आभार व्यक्त करना भी मैं अपना कर्तव्य समझता हूँ । आचार्य श्री ओमप्रकाश शर्मा ने संस्तुत-ग्रन्थों के आवश्यक अंशों का हिन्दी-अनुवाद उपलब्ध कराकर मुझे कृतार्थ किया है। जिन विद्वानों ने समय-समय पर ब्रज-संस्कृति से सम्बन्धित साहित्य की रचना की, उन सभी से मुझे प्रेरणा और प्रोत्साहन मिला, अत: इस ग्रन्थ को मैं उन्हीं का प्रसाद मानता हूँ।
ब्रज-कला-केन्द्र के संस्थापक मथुरा के स्वर्गीय रामनारायण अग्रवाल 'भैयाजी' मेरे परम मित्रों में से थे, जिनका सम्पूर्ण जीवन ब्रज-संस्तुति के व्यापक प्रचार-प्रसार और उत्थान-हेतु बीता। उनके अनुरोध, आग्रह और आदेश के परिणामस्वरूप ही इस ग्रन्थ का प्रणयन हो सका है, अत: मैं उन्हीं को यह समर्पित कर रहा हूँ।
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