यूरोप में हम में से अनेक हैं, जिनको यूरोपीय सभ्यता अब संतुष्टिकारक नहीं लग रही है। हमारी असंतुष्ट संतानें, जो पश्चिमी प्रेरणा की है, वे हमें पश्चिमी निवास में जकड़ा महसूस करती हैं। वे हमारी गूढता, प्रखरता, और दर्शन की नाटकों जैसी ऊर्जा जिसने दो हजार वर्षों से अधिक समय के लिए विश्व को जीता और राज किया, की अवमानना कर उसकी अपर्याप्तता और उसकी सीमित आक्रामकता को स्वीकार करती हैं। हम में से अत्यल्प हो 'एशिया' की ओर देखते हैं।
महान् भूमि एशिया, यूरोप जिसका एक प्रायःद्वीप है, सेना का हराबल दस्ता, भारी जहाज का अग्रभाग (prow), हजारों प्रज्ञाओं भरा, उसी से हमेशा हमारे देवता और विचार आये हैं। सूर्यपथ का पीछा करते अनेक यात्राएँ करते हमारे आदमियों से "पूर्व" का सम्पर्क खो गया। हम हमारी विक्षुब्ध और सीमित क्रियाओं वाले उद्देश्यों के कारण एशिया को वैश्विक और महान् विचारों से दूर हो विकृत हो गयें।
और अब पश्चिमी प्रजातियाँ अपने आप को गहरी अँधी घाटियों में फँसा पाती है और अस्तित्व के लिए एक दूसरे का क्रूर दमन करने पर उतारू है। इस खूनी पराजय से अपनी आत्माओं को दूर खींचे। मानवता को चतुर्दिक आकाशीय धाराओं की ओर लौटे। एशिया के ऊँचे पठारों पर फिर से चढ़ें।
जब यूरोप के हाथों में आये व्यापार से लूटा, या जबरन वसूली की, या "चर्च" अथवा "सभ्यता" के नाम उसके देशों का शोषण हुआ तब भी एशिया ने घृणा की दृष्टि से नहीं देखा। लेकिन यूरोप ने एशिया की "आध्यात्मिक संपदा" से क्या लाभ प्राप्त किया? वह संग्रहों और पुरातात्विक संग्रहालयों में दबी पड़ी रही। कुछ प्रबुद्ध यात्रियों ने, अध्ययनशील सदस्यों ने, इसके टुकड़ों को कुतरा लेकिन यूरोप के आध्यात्मिक जीवन ने उससे कोई लाभ नहीं लिया।
पश्चिम' जिस विश्श्रृंखलित चेतना की अव्यवस्था के बीच जो संघर्ष कर रहा है, किसे पता है कि चीन और भारत की चालीस शताब्दियों पुरानी सभ्यता ने हमारे दुःख, टाँचे के लिए अपेक्षा करने वालों को कोई प्रत्युत्तर (समाधान) दिया है? जर्मनीवासी जिन्होंने अपनी अप्रसन्न जीवनशक्ति से 'एशिया' से भूखी आत्मा लिए प्रथमतः प्रश्न किया क्योंकि उन्हें अब 'यूरोप' में वह 'खुराक' नहीं मिल रही थी; और पिछले कुछ वर्षों की आपदाओं ने और राजनैतिक क्रियाओं तथा स्तरहीन जीवन को उन्नत मानने के भ्रम ने, नैतिक विकास पर सोचने को मजबूर किया है। काउन्ट केसरलिंग, जैसे कुछ 'नोबल' अध्येताओं ने 'एशिया' की बुद्धिमत्ता को लोकप्रिय किया है। और जर्मनी के कुछ निष्कपट कवि, जैसे हर्मन हेस (Hermann Hesse), 'पूर्वी' विचारों के जादू में आ चुके हैं, और ब्रह्माण्डीय सत्ता के कलासंतों की आत्माओं के बीच की नीरवता में खोने को तैयार हैं।
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