वैदिक संस्कृति का विकास: The Development of Vedic Culture

FREE Delivery
Express Shipping
$28.50
$38
(25% off)
Express Shipping: Guaranteed Dispatch in 24 hours
Quantity
Delivery Usually ships in 3 days
Item Code: NZD271
Publisher: SAHITYA AKADEMI
Author: लक्ष्मण शास्त्री जोशी (Laxman Shastri Joshi)
Language: Hindi
Edition: 2005
ISBN: 8126021705
Pages: 379
Cover: Hardcover
Other Details 9.0 inchX 5.5 inch
Weight 610 gm
Fully insured
Fully insured
Shipped to 153 countries
Shipped to 153 countries
More than 1M+ customers worldwide
More than 1M+ customers worldwide
100% Made in India
100% Made in India
23 years in business
23 years in business
Book Description

पुस्तक के विषय में

वैदिक संस्कृति का विकास तर्कतीर्थ लक्ष्मण शास्त्री जोशी द्वारा लिखित मराठी कृति वैदिक संस्कृतिचा विकास का हिन्दी अनुवाद है, जो मूलत: वैदिक संस्कृति पर 1949 में लेखक द्वारा दिए गए छह व्याख्यानों का संग्रह है। यह कृत्ति नृतत्वशास्त्र और इतिहास-दर्शन के आलोक में वैदिक संस्कृति के विकास को रेखांकित करती है, जिसने पूर्व-वैदिक सांस्कृतिक परंपराओं को भी अपने में समाहित किया हुआ है तथा जिसने असंख्य शताब्दियों से राष्ट्रीय सांस्कृतिक विकास को प्रेरणा दी है ।

प्रथम व्याख्यान में संस्कृति की परिभाषा, वैदिक संस्कृति का क्षेत्र, इतिहास, वैदिक जीवन का नृतत्वशास्त्रीय चरित्र, उनकी विरासत, भाषा एवं साहित्य, सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक और धार्मिक जीवन पर विचार किया गया है। द्वितीय व्याख्यान में उपनिषदकालीन विकास और मनुष्य द्वारा प्राकृतिक संसाधनों पर नियंत्रण एवं ज्ञान-विज्ञान के विभिन्न परिक्षेत्रों से उसके परिचय पर चर्चा की गई है। तृतीय व्याख्यान वैदिक लोगों के परिवार और सामाजिक संस्थाओं पर केन्द्रित है, जबकि चतुर्थ व्याख्यान महाकाव्यों और पुराणों में वर्णित वैदिक जीवन पर । पाँचवें व्याख्यान में बौद्ध और जैन धर्मों तथा भारतीय संस्कृति में इनके योगदान का रेखांकन है। छठे व्याख्यान में समकालीन सांस्कृतिक आदोलनों, यथा- ब्रह्म समाज, प्रार्थना समाज, आर्य समाज और सत्य समाज सहित राजाराम मोहन राय, लोकमान्य तिलक, श्री अरविन्द, महात्मा गाँधी एवं एम.एन. राय जैसे युग मनीषियों के विचारों का समाहार है ।

इस पुस्तक को साहित्य अकादेमी पुरस्कार (1955) प्राप्त करनेवाली प्रथम मराठी कृति होने का गौरव प्राप्त है। यह अनुवाद मराठी-हिन्दी के प्रतिष्ठित विद्वान मोरेश्वर दिनकर पराड़कर ने किया है, जिसे पढ़ते हुए मूल का-सा आस्वाद मिलता है ।

लेखक के विषय में

तर्कतीर्थ लक्ष्मणशास्त्री जोशी (जन्म : 1901, निधन : 1994) ने जिस तरह पुरानी प्रणाली से संस्कृत के माध्यम से वेद, ब्राह्मण, उपनिषद, सांख्य, योग, मीमांसा, न्याय, दर्शन, वेदांत और धर्मशास्त्रों पर असाधारण अधिकार प्राप्त किया था, उसी तरह अंग्रेजी के माध्यम से पाश्चात्य दर्शन, तर्कशास्त्र, इतिहास, समाजशास्त्र आदि का भी तलस्पर्शी ज्ञान प्राप्त किया था। उन्होंने कलकत्ता से 1922 में तर्कतीर्थ की उपाधि परीक्षा उत्तीर्ण की थी। उन्होंने 1922 में प्राज्ञ पाठशाला में एक अध्यापक के रूप में अपनी आजीविका शुरू की और फिर धर्मकोश के संस्थापक संपादक बन गए जिसका प्रकाशन 1934 से शुरू हुआ और जिसके 16 खंड प्रकाशित हुए। केवलानंद सरस्वती के निधन के पश्चात् वे पाठशाला के प्रधान बने। 1951 में वे पुनर्निर्मित सोमनाथ मंदिर के प्रधान पुरोहित बने, जहाँ उन्होंने 150 पुरोहितों को प्रशिक्षित किया। 1960 में वे महाराष्ट्र राज्य साहित्य संस्कृत मंडल के अध्यक्ष नियुक्त हुए । वहाँ उन्होंने 19 खंडों में मराठी विश्वकोशकी परियोजना तैयार की और उसे संपादित भी किया ।

लक्ष्मणशास्त्री जोशी की प्रकाशित मराठी कृतियों में प्रमुख हैं- आनंद मीमांसा हिन्दु धर्मची समीक्षा: ज्योति निबंध वैदिक संस्कृतिचा विकास आधुनिक मराठी साहित्यची समीक्षा व रससिद्धांत, उपनिषदचे मराठी भाषांतर, तर्कतीर्थ लक्ष्मणशास्त्री लेख सग्रह। शुद्धिसर्वस्वम् उनकी प्रकाशित संस्कृत कृति है, जबकि राजवाड़े लेख संग्रह तथा लोकमान्य तिलक लेखसंग्रह नामक दो कृतियों के संपादन उन्होंने साहित्य अकादेमी के लिए किए हैं।

उनकी अनेक कृतियों के हिन्दी अनुवाद भी प्रकाशित हैं । भारत के संविधान का संस्कृत अनुवाद भी उन्होंने किया है, जो भारत सरकार द्वारा भारतस्य संविधानम् शीर्षक से प्रकाशित है ।

साहित्य अकादेमी पुरस्कार, भारत के राष्ट्रपति द्वारा राष्ट्रीय संस्कृत पंडित की उपाधि, पद्यभूषण अलंकरण, साहित्य अकादेमी की महत्तर सदस्यता सहित अनेक पुरस्कारों-सम्मानों से विभूषित तर्कतीर्थ लक्ष्मण शास्त्री जोशी वैदिक रिसर्च इंस्टीट्यूट, पुणे के अध्यक्ष भी रहे ।

प्रस्तावना

वर्तमान भारतीय संस्क्रुति वास्तवमें वैदिक संस्कृतिका ही विकसित रूप है। इस संस्कृतिके दिक्कालात्मक शरीरको श्यानमें रखकर उसके स्वरूपका यहाँ

वर्णन किया गया है। ' दिक् 'का अर्थ है देश अर्थात् भारतवर्ष । जन्मसे लेकर आजतक इस संस्कृतिका विकास भारतवर्षमें ही छुआ है। यद्यपि यह संस्कृति अन्य देशोंके सम्पर्कमें आई है अथवा इसे अन्य देशोंमें फैलानेका प्रयत्न भी हुआ है; तो भी भारतवर्षकी सीमाएँ ही इसकी यथार्थ सीमाएँ है। इतिहासज्ञोंके सब मतभेदोंकी ओर ध्यान देते हुए यह कहना पड़ेगा कि इस सस्कृतिका काल कमसे कम चार या पाँच हजार वार्षोंका हैं । इतिहासके ज्ञाताओंका अनुमान है कि ईसाके पूर्व पन्द्रहवीं शताब्दीके लगभग मोहोंजोदारों तथा हरप्पाकी प्राचीन सिन्धु-संस्कृतिके साथ इन्द्रपूजक वैदिकोंका संघर्ष हो रहा था। पुराण-विद्याके अध्येताओंकी राय है कि आर्य त्रैवर्णिक तथा शूद्र सबको समान रूपसे प्रमाण एवं पवित्र मानने-गले पौराणिक धर्मका संस्कृतिका सम्बन्ध वेदोंके पूर्ववर्ती कालके आर्येतर प्राचीन भारतीयोंके साथ स्थापित होता है। परन्तु वर्तमान समयमें उपलब्ध पौराणिक संस्कृतिका स्वरूप असलमें वही है जो वैदिकों द्वारा पूर्ण- तया आत्मसात् किया गया था। वैदिक संस्कृतिके विकासक्रममें विशिष्ट प्रकारकी जिन प्रमुख प्रवृत्तियोंने सहयोग दिया और उसके विद्यमान स्वरूपका निर्माण किया उन सब प्रवृत्तियोंकी संकलनात्मक एवं सारग्राही समीक्षा या चर्चा ही प्रस्तुत पुस्तकका ईप्सित कार्य हैं । यह चर्चा केवल उन्हीं प्रवृत्तियोंसे सम्बन्ध रखती है जिन्होने संस्कृतिको विशेष शक्ति और विविध आकार देनेका सामर्थ्य दिखलाया है। यह दिखाई दिया कि उक्त प्रवृत्तियोंकी शक्तिाँ अपने अपने विशिष्ट कालखण्डमें अत्यन्त प्रतापी सिद्ध हुई हैं । अतएव इस स्थानपर उनके प्रेरक तत्वोंकी मूलगामी समीक्षा प्रस्तुत की गई है। वेदोके पूर्ववर्ती कालमें वैदिकेतरोंकी महान् संस्कृतिका युग भारतवर्षमें विथ. मान था। यहाँ की नदियोंके तटों तथा पर्वतोंके इर्द-गिर्दमें वैदिकेतरोंके राज्यों, ग्रामों तथा नगरोंकी रचना हुई थी । भाषा, धर्म, कला, स्थापत्य, कृषि, वाणिज्य, लेखन आदि उन्नत मानव-समूहोंके विविध व्यवहारोंसे वे परिचित थे । मोहोंजोदारो तथा हरप्पाके अवशेष तथा द्रविड़ों और शूद्रोंके मूलत: वैदिक परम्परासे असम्बद्ध आचार-विचार दोनों वेदपूर्व कालकी संस्कृतिको सूचित करते हैं । अतएव विद्यमान भारतीय संस्कृतिकों वैदिक संस्कृतिका विकसित रूप माननेमें एकान्तिक दृष्टिकोणका दोष आता है। इसका उत्तर यह कहकर दिया जा सकता है कि वेदपूर्व संस्कृति अपने प्रभावी तथा अविच्छिन्न रूपमें अपना अस्तित्व सिद्ध नहीं करती । वैदिक संस्कृति ही वह प्राचीनतम संस्कृति है जो सबसे वरिष्ठ एवं प्रभावी सिद्ध हुई है; क्योंकि उसने वर्तमान समयतक अपनी कर्तृत्व-शक्तिको लुप्त नहीं होने दिया । वेदोंके पूर्ववर्ती कालकी संस्कृतियोंने अपने अवशेषोंको वैदिक संस्कृतिके आधिपत्यमें लाकर सुरक्षित रखा है। इस तरह यद्यपि उन संस्कृतियोंने अपने अस्तित्वको कायम रखा है; तो भी मानना होगा कि वह (अस्तित्व) वैदिक संस्कृतिका ही अत्र बन गया है। वेद, वेदाङ तथा वेदान्त तीनोंकी अध्यक्षता तथा सर्वतोमुखी प्रभुताके दर्शन वेद-कालसे लेकर आजतकके सांस्कृतिक आन्दोलनमें किसी न किसी न रूपमें होते ही हैं । भारतीय संस्कृतिके इतिहासमें ऐसा कोई भी महत्वपूर्ण कालखण्ड नहीं दिखाया जा सकता जिसमें ब्रह्म- बिद्या अथवा आध्यात्मिक तत्वज्ञानको केन्द्रीय खान प्राप्त न हुआ हो । वास्तवमें यहाँके इतिहासके सभी काल-खण्ड ब्रह्म-कल्पनामें अथवा ब्रह्मसूत्रमें पिरोए गए हैं । प्रस्तुत पुस्तकमें हमने इस वातको सिद्ध करनेकी चेष्टा की है कि जिन तथा बुद्धके विचारोंका सार उपनिषदो तथा साख्य, योग जैसे दर्शनोंके विचारोंसे अत्यन्त निकटका है। हमसे पहले अनेकों पाश्रात्य तथा भारतीय पुरातत्ववेत्ता- ओंने इस बातको बिना किसी विवादके स्वीकार किया है। बौद्ध-धर्म औपनिषद विचारोंकी ही परिणति है, इस सम्बन्धमें सभी पण्डित सहमत हैं । यह सच है कि संन्यासदीक्षा, योग तथा मूर्तिपूजाका सम्बन्ध वेंद-पूर्वकालकी संस्कृतियोंसे बतलाया जा सकता है; परन्तु इनका उपनिषदोंके साथका सम्बन्ध जितना सुसंगत एवं स्पष्ट है उतना ही वेद-पूर्व कालकी संस्कृतिसे है, इसे सिद्ध नहीं किया जा सक्ता । इसका कारण यह है कि वह संस्कृति संसारसे उठ गई है। अग्रिचयनके अध्ययनके आधारपर हमने यह सिद्ध किया है कि मूर्तिपूजाका अङ्गीकार पहले वेदोंने ही किया। पौराणिक संस्कृतिके, खासकर शैव तथा वैष्णव धर्मोंके विवेचनमें हमने यह भी स्पष्ट किया है कि वेद-पूर्व कालकी संस्कृतिकों आत्मसात् करनेके यत्नका सूत्रपात करनेमें वैदिक ही सवप्रथम थे । बुद्ध तथा महावीरका जन्म जिन मानव-गर्णामें हुआ उनका भाषा तेथ। समाज-रचना वैदिक भाषासे और वेदौंभें अभिव्यक्त समाजरचनासे बहुत ही मिलती-जुलती है। प्राकृत भाषा तथा वैदिक संत भाषा दौनों एक हा कुलकी भाषाएँ हैं । ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा वैदिक, चातुर्वणर्य की कल्पना भी वेदोंको ही कल्पना है ।

संस्कृतिके दो रूप ही सदैव दिखाई देते है, भौतिक तथा आध्यात्मिक । परन्तु यह मान्य करना पड़ता है कि उक्त दोनों रूप वस्तुत: एक ही अखण्ड वस्तुके स्वरूप है। बिना भौतिक शाक्तिकी सहायताके मानव-शरीरकी धारणा असम्भव है; अतएव मानव-संस्कृतिमें मानव-संस्कृतिमें भौतिक विश्वका उपयोग करने की प्रक्रिया एवं पर्द्धतिका अन्तर्भाव हो बात। है। आध्यात्मिक अर्थात् मानसिक स्वरूपका विस्तृत विवरण प्रस्तुत निबन्धके पहले व्याख्यानमें किया गया है। हमेशा यह कहा जाता है कि भौतिक व्यवहार ही संस्कृति की नींव है और मानसिक व्यवहार वह प्रासाद है जो इसी नीयपर खड़ा किया गय। है। उक्त विवेचन यद्पि आलक्ङारिक अर्थमें सत्य है, तो भा संस्कृतिकी मीमासामें समस्याओं का समाधान करना तभी संभव है जब हम भौतिक तथा अध्यामित्क रूपोंको एक दूसरेपर निर्भर मानकर ही विचार करना शुरू करेंगे । बालवर्म आध्यात्मिक तथ। आधिभौतिक दोनों ही विभाग विचारोंकी सुविधाके लिए कल्पित किये गए है। जिस तरह जीवशक्ति, प्राण अथवा मनका शरीरसे पृथक अस्तित्व मानना एक विशुद्ध कल्पना है उसी तरह उक्त कल्पना-भेद भी । प्रस्तुत निबन्धमें हमने प्रधान रूपसे वैदिक संस्कृतिके विकासके लिए प्रेरक आध्यात्मिक शाक्तिका ही विचार किया है। मानवी प्रपच्ममें वैचारिक सामर्थ्य अथवा मानसिक शाक्तियाँ ही अत्यन्त प्रभावी सिद्ध होती हैं । अत:एवं प्रस्तुत निबन्धके विवेचन में संस्कृतिके इसी स्वरूपको अधिक महत्त्व दिया गया है ।

 

अनुक्रमणिका

1

वेदकालीन संस्कृतिक

1-42

2

तर्कमूल प्रज्ञामें वेदोंकी परिणति

43-89

3

वैदिकोंकी कुटुम्बसंस्था तथा समाजसंख्या

90-139

4

इतिहास-पुराणों तथा रामायणकी संस्कृति

140-195

5

बौद्धों तथा जैनोंकी धर्म-विजय

196-255

6

आधुनिक भारत के सांस्कृतिक आन्दोलन

256-302

7

परिशिष्ट-1

303-342

8

परिशिष्ट-2

343-360

 

Sample Page


Frequently Asked Questions
  • Q. What locations do you deliver to ?
    A. Exotic India delivers orders to all countries having diplomatic relations with India.
  • Q. Do you offer free shipping ?
    A. Exotic India offers free shipping on all orders of value of $30 USD or more.
  • Q. Can I return the book?
    A. All returns must be postmarked within seven (7) days of the delivery date. All returned items must be in new and unused condition, with all original tags and labels attached. To know more please view our return policy
  • Q. Do you offer express shipping ?
    A. Yes, we do have a chargeable express shipping facility available. You can select express shipping while checking out on the website.
  • Q. I accidentally entered wrong delivery address, can I change the address ?
    A. Delivery addresses can only be changed only incase the order has not been shipped yet. Incase of an address change, you can reach us at [email protected]
  • Q. How do I track my order ?
    A. You can track your orders simply entering your order number through here or through your past orders if you are signed in on the website.
  • Q. How can I cancel an order ?
    A. An order can only be cancelled if it has not been shipped. To cancel an order, kindly reach out to us through [email protected].
Add a review
Have A Question

For privacy concerns, please view our Privacy Policy

Book Categories