कवि ध्रुवदेव मिश्र पाषाण की रचना-यात्रा अर्धशती पार कर चुकी है और जीवन 75वें वसंत में प्रवेश कर रहा है। उचित ही है कि हम दायित्वपूर्ण ढंग से उनके अब तक के रचनात्मक जीवन और व्यक्तित्व को सामने रख मूल्यांकन-मीमांसा करें, एक विहंगम दृष्टि से कवि जीवन को देखें। यह देखना कवि और उसके पाठक के लिये जितना जरूरी है उतना ही देश और समाज के लिये भी। हर जाग्रत समाज अपनी भाषा के सिपाही को समय के विशेष संधि-स्थलों पर तोष-संतोष-सुकून देता है, आत्मीय संस्पर्श देता है विभिन्न आयोजनों संयोजनों के माध्यम से। कवि ध्रुवदेव मिश्र पाषाण पर केंद्रित पुस्तक 'धारदार शीशा' इस निमित्त से किया गया संयोजकीय प्रयास है। यहां जो सामग्री संयोजित संकलित है वह उनके रचनाकार को कुछ अधिक खोलेगी और गहन-गंभीर मूल्यांकन का मार्ग भी प्रशस्त करेगी।
पचास-पचपन वर्षों की अवधि में कवि पाषाण की सृजनशीलता ने जो सत्य-मणियां बटोरी हैं अपने जीवन के शोध से, काव्य-समर्पण और निष्ठा से- वे कीमती हैं, प्रभा उनकी अभी फीकी नहीं पड़ी है तो इस कारण से कि मानव- मुक्ति की अभीप्सा और पुरुषार्थ से अर्जित की गई हैं। इसलिये भी कि सांस्कृतिक एवं काव्य-पुरोधाओं द्वारा दिया गया लोकमंगल का परम लक्ष्य उनकी आंखों से कभी ओझल नहीं हुआ है; क्योंकि स्पष्टता और दृढ़ता के कारण उनका आत्मविश्वास, संघर्ष और न हारनेवाला संकल्प उन्हें सदैव क्रांतिशील और लोकाभिमुख किये रहता है। साफ दृष्टि, पारदर्शी अभिव्यक्ति और पक्के इरादे के कवि पाषाण के लिये कवि-कर्म आदमीयत की खेती है, कभी न टूटनेवाला एक युद्ध है।
शब्दक्षेत्र के योद्धाकवि श्री पाषाण के विकास को ठीक-ठीक देखने समझने के लिये पहले कुछ प्रारंभिक प्रसंग। पहला काव्य उद्रेक 9 वर्ष की उम्र में हुआ था जब उन्होंने प्राथमिक शाला के अपने शिक्षक की विदाई में कुछ पंक्तियां लिखी थीं। प्रतिभा की पहचान से जुड़ी एक घटना 11 वर्ष की वय की है।
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